याद है मुझे,
बचपन में,
तरकारी से
वो बैंगन की डँठल
के लिए लड़ पड़ना,
सिर्फ इसलिए कि,
वह चिकन के जैसे
होने का
अहसास दिलाती थी
उसे लुत्फ़ से,
नोच नोच कर खाना
और एकदम
विजेता बन जाना,
बचे हुए
रानों पर हिकारत
की नज़र फेकना
और ख़ुद को
सांत्वना देना कि
हमने सचमुच
चिकन खाया है |
वो लड़ाई
अब तक रुकी नहीं
मानसिकता की तरकारी
से प्रभुत्वता की डँठल
हर कोई झपट
रहा है
विजयी बनने का ख्वाब
बैंगन और चिकन का
फ़र्क मिटा देता है
पता तब चलता है
जब वही चूसे हुए
बैंगन की डँठल के रान
कुटिलता से मुस्काते हैं
तुम्हें छले जाने का
अहसास कराते हैं
देर हो जाती है
और हम
बैंगन और चिकन
की मरीचिका से निकल
नहीं पाते हैं....
व्यंजनों के चित्र पोस्टों पर प्रतिबंधित हों, देखते ही मन विचलित हो जाता है। :-)
ReplyDeleteआपकी कविता तो बहुत अच्छी है, कुछ और टिप्पणी देना चाहता था लेकिन प्रवीण जी की टिप्पणी पढ़ कर हँसता हुआ जा रहा हूँ...उनसे सहमत हूँ..
ReplyDeleteहा हा हा..
देखिये जब पार्टी देने के लिये आप खुद सामने मौजूद ना हों तो दोस्तों की स्वादग्रंथि से छल कदापि उचित नहीं माना जा सकता :)
ReplyDeleteहां, ये हुई न कविता...इतनी मस्त।
ReplyDeleteवैसे भी मै केवल खाने पीने वाली कविताएं ही समझ पाता हूँ। यह कविता तो एकदम्मै मस्त लगी।
फोटो लगाना जरूरी था क्या....खामखां आज घर में बैंगन का भुर्ता बनाने के लिए श्रीमती जी को कहना पड़ेगा अब :)
सुंदर कविता है।
विजयी बनने का ख्वाब
ReplyDeleteबैंगन और चिकन का
फ़र्क मिटा देता है
पता तब चलता है
जब वही चूसे हुए
बैंगन की डँठल के रान
कुटिलता से मुस्काते हैं
तुम्हें छले जाने का
अहसास कराते हैं
हंसी हंसी मे बहुत बडी बात कही है। शुभकामनायें।
याद है मुझे
ReplyDeleteकहलाता था मैं
थाली में का बैंगन
जब मैं दोनों पक्षों का
तुष्टिकरण करता :)
विजयी बनने का ख्वाब
ReplyDeleteबैंगन और चिकन का
फ़र्क मिटा देता है
पता तब चलता है
जब वही चूसे हुए
बैंगन की डँठल के रान
कुटिलता से मुस्काते हैं
बहुत अच्छी अभिव्यक्ति !!
बैंगन को बैंगन समझ कर ही खाया जाये तो छलावे से बचा जा सकता है ।
ReplyDelete:).........kya shandaar mrig marichika hai...:D
ReplyDeletetarkari ka baigan, agar chikan ka ahsaas de de, to kya kahna.........:D
lekin aapne jis mansikta ko darshana chaha hai, usme safal rahi hain..........:)
(+++)
वो लड़ाई
ReplyDeleteअब तक रुकी नहीं
मानसिकता की तरकारी
से प्रभुत्वता की डँठल
हर कोई झपट
रहा है
विजयी बनने का ख्वाब
बैंगन और चिकन का
फ़र्क मिटा देता है
पता तब चलता है
जब वही चूसे हुए
बैंगन की डँठल के रान
कुटिलता से मुस्काते हैं
आपकी यह पुरानी कविता पढ़ कर अच्छा लगा । जिंदगी में कितनी मृगमरिचिकाएँ पाले हुए हैं हम ...बैंगन में भी चीकन देख लेते हैं और किसी जीवित इंसान में बेगुन ... हैं ना !!!
बैंगन की डंठल! मजा आ गया. बहुत ही अलग ढंग से कुछ सच को कह रही है आपकी कविता.
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