Saturday, October 23, 2010

बैंगन की डंठल...


याद है मुझे,
बचपन में,
तरकारी से
वो बैंगन की डँठल
के लिए लड़ पड़ना,
सिर्फ इसलिए कि,
वह चिकन के जैसे
होने का
अहसास दिलाती थी
उसे लुत्फ़ से,
नोच नोच कर खाना
और एकदम
विजेता बन जाना,
बचे हुए
रानों पर हिकारत
की नज़र फेकना
और ख़ुद को
सांत्वना देना कि
हमने सचमुच
चिकन खाया है |
वो लड़ाई
अब तक रुकी नहीं
मानसिकता की तरकारी
से प्रभुत्वता की डँठल
हर कोई झपट
रहा है
विजयी बनने का ख्वाब
बैंगन और चिकन का
फ़र्क मिटा देता है
पता तब चलता है
जब वही चूसे हुए
बैंगन की डँठल के रान
कुटिलता से मुस्काते हैं
तुम्हें छले जाने का
अहसास कराते हैं
देर हो जाती है
और हम
बैंगन और चिकन
की मरीचिका से निकल
नहीं पाते हैं....

11 comments:

  1. व्यंजनों के चित्र पोस्टों पर प्रतिबंधित हों, देखते ही मन विचलित हो जाता है। :-)

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  2. आपकी कविता तो बहुत अच्छी है, कुछ और टिप्पणी देना चाहता था लेकिन प्रवीण जी की टिप्पणी पढ़ कर हँसता हुआ जा रहा हूँ...उनसे सहमत हूँ..

    हा हा हा..

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  3. देखिये जब पार्टी देने के लिये आप खुद सामने मौजूद ना हों तो दोस्तों की स्वादग्रंथि से छल कदापि उचित नहीं माना जा सकता :)

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  4. हां, ये हुई न कविता...इतनी मस्त।

    वैसे भी मै केवल खाने पीने वाली कविताएं ही समझ पाता हूँ। यह कविता तो एकदम्मै मस्त लगी।

    फोटो लगाना जरूरी था क्या....खामखां आज घर में बैंगन का भुर्ता बनाने के लिए श्रीमती जी को कहना पड़ेगा अब :)

    सुंदर कविता है।

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  5. विजयी बनने का ख्वाब
    बैंगन और चिकन का
    फ़र्क मिटा देता है
    पता तब चलता है
    जब वही चूसे हुए
    बैंगन की डँठल के रान
    कुटिलता से मुस्काते हैं
    तुम्हें छले जाने का
    अहसास कराते हैं
    हंसी हंसी मे बहुत बडी बात कही है। शुभकामनायें।

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  6. याद है मुझे
    कहलाता था मैं
    थाली में का बैंगन
    जब मैं दोनों पक्षों का
    तुष्टिकरण करता :)

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  7. विजयी बनने का ख्वाब
    बैंगन और चिकन का
    फ़र्क मिटा देता है
    पता तब चलता है
    जब वही चूसे हुए
    बैंगन की डँठल के रान
    कुटिलता से मुस्काते हैं

    बहुत अच्‍छी अभिव्‍यक्ति !!

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  8. बैंगन को बैंगन समझ कर ही खाया जाये तो छलावे से बचा जा सकता है ।

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  9. :).........kya shandaar mrig marichika hai...:D

    tarkari ka baigan, agar chikan ka ahsaas de de, to kya kahna.........:D


    lekin aapne jis mansikta ko darshana chaha hai, usme safal rahi hain..........:)

    (+++)

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  10. वो लड़ाई
    अब तक रुकी नहीं
    मानसिकता की तरकारी
    से प्रभुत्वता की डँठल
    हर कोई झपट
    रहा है
    विजयी बनने का ख्वाब
    बैंगन और चिकन का
    फ़र्क मिटा देता है
    पता तब चलता है
    जब वही चूसे हुए
    बैंगन की डँठल के रान
    कुटिलता से मुस्काते हैं


    आपकी यह पुरानी कविता पढ़ कर अच्छा लगा । जिंदगी में कितनी मृगमरिचिकाएँ पाले हुए हैं हम ...बैंगन में भी चीकन देख लेते हैं और किसी जीवित इंसान में बेगुन ... हैं ना !!!

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  11. बैंगन की डंठल! मजा आ गया. बहुत ही अलग ढंग से कुछ सच को कह रही है आपकी कविता.

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