काव्य मंजूषा
Sunday, October 24, 2010
मैं बिन आवाज़ गा रही हूँ...
शक़ मिजाज़ बन गया
अब
सबूत जुटा रही हूँ ,
अलफ़ाज़ तक ख़फा हैं
बिन आवाज़ गा रही हूँ ,
क्यूँ
खाली रहे कोई
वरक़ इस शजर का
तेरे नाम की झालर से
हर गोशा सजा रही हूँ
पहचान
अब
मेरी
यहाँ
,
डगमग
सी चल रही है,
पानी में अपने पाँव के,
कुछ
निशाँ बना रही हूँ......
एक गीत...आपकी नज़र..
Newer Post
Older Post
Home