Tuesday, October 5, 2010

जो बिना खर्चा, बिना असलहे के, जीत की गारंटी दिलाती है ....


(री-ठेल) कहीं मंदिर में घंटी बाजे,
कहीं अजान सुनाती है,
पाँच बजे पौ फटते ही,
वो पानी भरने जाती है,
नलका के चारों चौहद्दी, मजमा बड़ा लगाती है,
बाल्टी और देगची की,
कतार बढ़ती ही जाती है,
मेरी बारी पहले आये, हर रण-नीति अपनाती है,
ऐसी पोलिटिक्स चलती है,
पोलिटिक्स ख़ुद बिलबिलाती है,
चाणक्य की कूटनीति भी, 
यहीं पर मुंहकी खाती है, धुरंधर राजनीतिज्ञों की राजनीति,  फट से फुस हो जाती है,  तब विफलताएं शांति वार्ताओं की,कितनी सफल नज़र आती हैं,झोंटा-झोंटी, जूतम-पैजार के,अनुपम दृश्य दिखाती है. जब कभी कवियों की कलम,
गूंगी सी हो जाती है,
विशुद्ध अनुप्रास और छंदमयी रचनाएँ,
यहीं प्रेरणा पाती है,
छि:, छिनाल, छिछोरी, छद्मी,
री छप्पन छुरी, कहाँ जाती है,
मेरी बाल्टी वहां पहले थी,
अपने बाप का राज चलाती है,
तू कुलटा, कलमुंही, कुलछनी,
बाप तक तू क्यूँ जाती है,
नकटी, नकचढ़ी, नागिन, निगोड़ी,
काहे नाच दिखाती है,
बेसुरी, बंदरिया, बदजात, बावरी,
बकबक करती जाती है,
तेरे बाबा ने कभी नलका देखा,
जो इतनी बात बनाती है,
यह दृश्य जब देखा हमने, बात एक मन में आती है,
ऐसी गति और ऐसी आग,
बंदूकें भी कहाँ पाती है,
वो कोलाहल और वो मार, मिसाईल तक शर्माती है, यह अनुपम शक्ति काहे को, पनघट पर जाया जाती है,क्यूँ नहीं हमरी सरकार, एक ऐसी सेना बनाती है,जो बिना खर्चा, बिना असलहे के,जीत की गारंटी दिलाती है...! 

14 comments:

  1. जब कभी कवियों की कलम,
    गूंगी सी हो जाती है, विशुद्ध अनुप्रास और छंदमयी रचनाएँ,
    यहीं प्रेरणा पाती है, bahut khub ..acchi lagi apk yah rachna

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  2. नलका के चारों चौहद्दी,
    मजमा बड़ा लगाती है,..........

    कहां गए वो पनहारिन के दिन :)

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  3. ये आज आप कैसी, विचित्र रचना सुनाती है ?
    कौनसी विजय गाथा है ये, हमें तो समझ न आती है ?
    हमें तो लगता है, आप किसीका फकत मजाक बनाती है ?
    पर जहाँ तक मालूम है, आप तो ऐसी तबीयत न पाती है ?
    या आज कुछ ठीक नहीं है ? खाने में क्या खाती है ?

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  4. वो कोलाहल और वो मार,
    मिसाईल तक शर्माती है,
    यह अनुपम शक्ति काहे को,
    पनघट पर जाया जाती है,
    क्यूँ नहीं हमरी सरकार,
    एक ऐसी सेना बनाती है,
    जो बिना खर्चा, बिना असलहे के,
    जीत की गारंटी दिलाती है...!

    एक सामयिक ज्वलंत सवाल..
    बहुत सुन्दर प्रस्तुति

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  5. बहुत सुन्दर, असली राजनीति इन सबके लिये हो।

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  6. पनघट की राजनीति पर बड़े पानीदार विचार हैं आपके ! नेता जो पढ़लें तो पानी पानी हो जायें :)

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  7. subh kaa or naari ka bhut achha chitrn he mubaark ho bhn ji. akhtar khan akela kota rajsthnan

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  8. @ मजाल साहेब...
    मजाक बनाने की अदा ई 'अदा' कहाँ जुटाती है
    जो देखा है, 'उहाँ' पड़ोस में बस वही बात बताती है
    खाना तो मजाल साहेब अपन ख़ुद ही पकाती है
    कभी चावल है, कभी पराठे और कभी-कभी चपाती है
    :):)

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  9. भारत में, विशेषकर गाँव-देहात और कस्बों में पानी के लिए बड़ी लम्बी लाइनें लगती देखी हैं हमने भी ...
    यह अनुपम शक्ति काहे को,
    पनघट पर जाया जाती है,
    क्यूँ नहीं हमरी सरकार,
    एक ऐसी सेना बनाती है,
    जो बिना खर्चा, बिना असलहे के,
    जीत की गारंटी दिलाती है...!

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  10. बधाई........

    वाह वाह कविता !

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  11. खरी खरी स्थिति बयां कर डाली आपने.......ना जाने काम समझेंगें हमारे चिकने घड़े नेता......

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  12. चाल का या शहर की तंग गालियों का सा दृश्य सजीव हो उठा ...!

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  13. आज रावण बध की नहीं बल्कि भ्रष्ट मंत्रियों,सांसदों,विधायकों और उनके नाजायज चमचों का बध करने और फिर विजयादशमी मनाने की सख्त जरूरत है क्योकि ये सभी रावण के बाप हैं .....ऐसा करने के बाद ही हमारा भारत असल में महान बनेगा ...

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