'नारीवाद' एक ऐसा शब्द है जो किसी भी नारी के साथ लग जाए तो 'नर' उससे भय खाने लगते हैं। आज जिसे देखो वही, नारीवाद को जानने, समझने का मुगालता पाले रहता है। जो भी स्त्री, नारी के पक्ष में बोले या लिखे उसे, उससे बिना पूछे ही, नारीवादी का तमगा पहना दिया जाता है। लेकिन सच तो ये है कि नारीवाद को सही अर्थों में परिभाषित किया ही नहीं गया है।
कहीं पढ़ा था नारीवाद राजनैतिक आंदोलन का एक सामाजिक सिद्धांत है, जो स्त्रियों के अनुभवों पर आधारित है। कहीं पढ़ा कि नारीवाद एक विचारधारा है, जिसमें महिलाओं की मुक्ति के प्रयास किये जाते हैं। अब प्रश्न यह है, किससे मुक्ति, किस तरह की मुक्ति और कितनी मुक्ति ??
नारीवाद की भी अपनी अलग-अलग विचारधारा है। कुछ नारिवादियाँ समाज में 'असमान अधिकारों' के खिलाफ हैं, समाज में महिलाओं का शोषण रोकना चाहतीं हैं, महिलाओं को सबल और सशक्त बनाना चाहती हैं। और मुझे लगता है, यही नारीवाद का मुख्य और सबसे बड़ा ध्येय भी है, अर्थात 'महिलाओं का शक्तिकरण , आर्थिक और सामाजिक रूप से !'
आर्थिक रूप से कमजोर व्यक्ति किसी बड़े आन्दोलन या सामाजिक बदलाव का नेतृत्व नहीं कर सकता है । समाज से भिड़ने के लिए और उसके दबाव को झेलने के लिए जो आर्थिक मज़बूती चाहिए, अगर यह शक्ति आपके पास नहीं है तो आपकी सारी ‘क्रांति’, जिंदा रहने की जुगत के हवाले हो जाती है। खुद को संभाल न पाने वाला इन्सान, कैसे किसी आर्थिक-सामाजिक विरोध और असहयोग को झेलकर समाज से टकराएगा ? एक पराश्रित और कमजोर वर्ग से भी यह उम्मीद करना, कि वह क्रांति की अलख जगाकर परिस्थितियां बदल दे सकता है , निहायत मासूमाना मुतालबा है। और समाज में पुरुष तबके और नारी तबके में , नारियों को ही शारीरिक और आर्थिक रूप से कमजोर माना जाता है। नारी, शारीरिक रूप से तो पुरुष के साथ बराबरी नहीं कर सकती, इसलिए भी बहुत ज़रूरी है, नारी की आत्मनिर्भरता और आर्थिक स्वतंत्रता,जिससे नारी को बल मिले।
इस मामले को अगर आप स्त्री-विमर्श के हवाले से समझें तो, परत-दर-परत पुरुष समाज की एक गहरी होशियारी और आत्मलोभ का कच्चा चिठ्ठा खुलने लगता है। कौन नहीं जनता, आज से कुछ समय पहले , लड़कियों को पढ़ाने लिखाने में खर्च करने में माँ-बाप कोताही करते थे। कौन नहीं जानता कि एक समय था, लड़कियों को नौकरी करने से हतोत्साहित करना, घर से बाहर नहीं जाने देना, उन्हें किसी भी हाल में आत्मनिर्भर नहीं होने देना, पुरुष प्रधान समाज की मंशा थी । कौन नहीं जानता आज भी संपत्ति में बंटवारे को लेकर, समाज कितना पुरुषवादी है। बेटियों को हिस्सा देने के नाम पर क़ानूनी बारीकियों और पेचीदगियों को, काम में लाया जाता है और बेटी का ‘हिस्सा’ तिल-तिल कर दबाया जाता है। कौन नहीं जानता आज भी विधवाओं की स्थिति क्या है, हमारे समाज में ? कौन नहीं जानता, हर साल कितनी कन्या भ्रूण हत्याएं हो रहीं हैं, कौन नहीं जानता कि आज भी, दहेज़ की बलि वेदी पर, हर साल कितनी मासूम ज़िंदगियाँ चढ़तीं ही जा रहीं हैं, कौन नहीं जानता, कि बलात्कार की कितनी घटनाएं हर दिन हो रहीं हैं, और मुजरिमों के लिए सज़ा की गुहार लगाते-लगाते लडकियाँ बूढ़ी हो जा रहीं हैं ?? ऊपर लिखे कारणों को लेकर, जो नारीवाद आन्दोलन चल पड़ा है, उसे आप 'उदारवादी नारीवाद' सकते हैं, जो स्त्री को दोयम दर्जे से निकालने को कटिबद्ध है, जिसका लक्ष्य हैं, क़ानूनन स्त्री को उसका अधिकार दिलाने की हर संभव कोशिश करना।
इस मामले को अगर आप स्त्री-विमर्श के हवाले से समझें तो, परत-दर-परत पुरुष समाज की एक गहरी होशियारी और आत्मलोभ का कच्चा चिठ्ठा खुलने लगता है। कौन नहीं जनता, आज से कुछ समय पहले , लड़कियों को पढ़ाने लिखाने में खर्च करने में माँ-बाप कोताही करते थे। कौन नहीं जानता कि एक समय था, लड़कियों को नौकरी करने से हतोत्साहित करना, घर से बाहर नहीं जाने देना, उन्हें किसी भी हाल में आत्मनिर्भर नहीं होने देना, पुरुष प्रधान समाज की मंशा थी । कौन नहीं जानता आज भी संपत्ति में बंटवारे को लेकर, समाज कितना पुरुषवादी है। बेटियों को हिस्सा देने के नाम पर क़ानूनी बारीकियों और पेचीदगियों को, काम में लाया जाता है और बेटी का ‘हिस्सा’ तिल-तिल कर दबाया जाता है। कौन नहीं जानता आज भी विधवाओं की स्थिति क्या है, हमारे समाज में ? कौन नहीं जानता, हर साल कितनी कन्या भ्रूण हत्याएं हो रहीं हैं, कौन नहीं जानता कि आज भी, दहेज़ की बलि वेदी पर, हर साल कितनी मासूम ज़िंदगियाँ चढ़तीं ही जा रहीं हैं, कौन नहीं जानता, कि बलात्कार की कितनी घटनाएं हर दिन हो रहीं हैं, और मुजरिमों के लिए सज़ा की गुहार लगाते-लगाते लडकियाँ बूढ़ी हो जा रहीं हैं ?? ऊपर लिखे कारणों को लेकर, जो नारीवाद आन्दोलन चल पड़ा है, उसे आप 'उदारवादी नारीवाद' सकते हैं, जो स्त्री को दोयम दर्जे से निकालने को कटिबद्ध है, जिसका लक्ष्य हैं, क़ानूनन स्त्री को उसका अधिकार दिलाने की हर संभव कोशिश करना।
उसी तरह 'समाजवादी नारीवाद' भी है, जो उत्पादन, पुनुरुत्पादन के श्रम विभाजन में, समानता की बात करता है। वेतन में समानता की बात करता है। नौकरी में मिलने वाली फसिलीटीस की बात करता है।
'एक्सट्रीम नारीवाद' तो समाज में पितृसत्ता या पुरुषसत्ता पर ही कुठाराघात करता है, और इस सत्ता को सीरे से ख़ारिज़ करता है।
इसी तरह एक और धारा है जिसे हम 'स्वैच्छिक नारीवाद' कह सकते हैं, जो बिना किसी अंकुश के अपनी इच्छा से सबकुछ करने का समर्थक है । जैसे सिगरेट पीना, शराब पीना, स्वतंत्र जीना, विवाह जैसी संस्थाओं को नहीं मानना इत्यादि।
अब यह ज़रूरी नहीं, कि हर नारीवादी स्त्री, इन सभी धाराओं को स्वीकार करती है। लोगों का यह मानना ही ग़लत है, कि हर नारीवादी नारी, प्रत्येक धारा के साथ है। नारीवादी नारी, किसी एक धारा की समर्थक हो सकती है, या यों कहें अक्सर ऐसा ही होता है। आप इन धाराओं के समर्थकों को भी, आपस में आलोचना करते हुए देख सकते हैं। इसलिए नारीवादी होने का अर्थ, ये लगा लेना, कि वो उदारवाद, समाजवाद, एक्सट्रीम नारीवाद और स्वैच्छिक नारीवाद, इन सबका समर्थन करती है, बिलकुल गलत होगा। अतः आईंदा जब कभी आप किसी को नारीवादी घोषित करें तो ये जान लें कि वो किस तरह के नारीवाद की पक्षधर है।
नारीवाद का जन्म पश्चिम में हुआ है। अब तो भारत में भी यह अपनी स्थिति मजबूत कर चुका है। क्योंकि नारीवाद पश्चिम की देन माना जाता है, इसलिए बहुधा इसे हमारी भारतीय संस्कृति का विध्वंशक समझा जाता है और अक्सर नारीवाद के नाम से ही, भारतीय पुरुषों के पैर उखड़ने लगते हैं। नारीवादियों को भी इस बात का ध्यान रखना अत्यावश्यक है, पश्चिम से, पूर्वी समाज की तुलना वो नहीं कर सकतीं हैं। भारत में नारीवादी किसी भी धारा की समर्थक क्यों न हो, पूर्वी चिंतन को दरकिनार नहीं कर सकतीं हैं । इस बात को मद्दे-नज़र रखते हुए, एक स्वस्थ संतुलित नारीवाद का अभ्यास बिलकुल किया ही जा सकता है, जब नारी का उत्थान, समाज की प्रगति की पहली शर्त बन चुका है।
त्रासदी यह है कि आज हर नारीवादी, नारी को, बिना कुछ सोचे हुए 'स्वैच्छिक नारीवाद' के घेरे में लाकर खड़ा कर दिया जाता है। जबकि हो सकता है वो, उदारवादी हो, या फिर समाजवादी हो । अधिकतर पढ़ी-लिखी मध्यवर्गीय परिवार की नारियाँ 'स्वैच्छिक नारीवाद' से परे, घर परिवार, बच्चों, शादी, नौकरी इत्यादि के साथ और अपने हर दायित्व का निर्वहन करते हुए, अपने अधिकारों और स्वतंत्रता की सीमा निर्धारित करते हुए, अपनी जायज़ मांगों के लिए संघर्षरत है। वो 'स्वैच्छिक नारीवादी ' नारियों से कहीं कठिन काम कर रहीं हैं। बेशक, वो सबकुछ तिलाञ्जलि देकर, इस आन्दोलन में कूद नहीं पड़ी हैं, लेकिन उनकी आवाज़ उतनी ही बुलंद है और उतनी ही कारगर भी। क्योंकि वो जो बदलाव ला रहीं हैं, उसके त्वरित परिणाम और प्रमाण उनके सामने होते हैं, वो हैं उनके पति और उनके बच्चों की सोच में बदलाव । भारत में आज, लगभग हर संवेदनशील नारी, नारीवादी है, फर्क सिर्फ इतना है कि वो 'स्वैच्छिक नारीवादी' न होकर, पुरुषों के साथ, एक ही घर में रहकर, अपनी स्वतंत्रता और अधिकारों के लिए सतत प्रयत्नशील है और बहुत हद तक सफल भी है।
त्रासदी यह है कि आज हर नारीवादी, नारी को, बिना कुछ सोचे हुए 'स्वैच्छिक नारीवाद' के घेरे में लाकर खड़ा कर दिया जाता है। जबकि हो सकता है वो, उदारवादी हो, या फिर समाजवादी हो । अधिकतर पढ़ी-लिखी मध्यवर्गीय परिवार की नारियाँ 'स्वैच्छिक नारीवाद' से परे, घर परिवार, बच्चों, शादी, नौकरी इत्यादि के साथ और अपने हर दायित्व का निर्वहन करते हुए, अपने अधिकारों और स्वतंत्रता की सीमा निर्धारित करते हुए, अपनी जायज़ मांगों के लिए संघर्षरत है। वो 'स्वैच्छिक नारीवादी ' नारियों से कहीं कठिन काम कर रहीं हैं। बेशक, वो सबकुछ तिलाञ्जलि देकर, इस आन्दोलन में कूद नहीं पड़ी हैं, लेकिन उनकी आवाज़ उतनी ही बुलंद है और उतनी ही कारगर भी। क्योंकि वो जो बदलाव ला रहीं हैं, उसके त्वरित परिणाम और प्रमाण उनके सामने होते हैं, वो हैं उनके पति और उनके बच्चों की सोच में बदलाव । भारत में आज, लगभग हर संवेदनशील नारी, नारीवादी है, फर्क सिर्फ इतना है कि वो 'स्वैच्छिक नारीवादी' न होकर, पुरुषों के साथ, एक ही घर में रहकर, अपनी स्वतंत्रता और अधिकारों के लिए सतत प्रयत्नशील है और बहुत हद तक सफल भी है।
इस विषय में कुछ भी कहना अन्यथा लिया जा सकता है, बस इतना ही कहूँगा कि बाहर का थका घर आकर शान्ति चाहता है।
ReplyDeleteअगर आप आलेख पढ़ते तो ऐसा नहीं कहते :)
Deleteन नारीविमर्श का अधिकार है हमें और न ही उसमें रुचि। सहजीवन की मौलिक ईकाई परिवार है, कोई भी चिन्तन व प्रयास उसे सुदृढ़ करने के लिये ही होगा। आलेख पढ़ा तभी विषयगत टिप्पणी करने से बच रहा हूँ।
Deleteनारी की समस्याओं पर विमर्श करने का अधिकार भी सबको है और कर्तव्य भी, रूचि नहीं होना अलग बात है। जिस सशक्त ओहदे पर आप है, आपसे, परिवार के इतर, समाज में नारी की बदहाली भरी ज़िन्दगी, में बदलाव की ज़रुरत को समझने भर की उम्मीद हमें ज़रूर है। फिर भी आप अपने हिसाब से ठीक ही सोच रहे होंगे। आपकी भावनाओं का पूरा सम्मान करते हैं हम।
Deleteटिप्पणी करने से आपका बचना बिलकुल समझ में आता है। नो प्रॉब्लम :)
Deleteअनुभव का आभाव कह लीजिये। नारी को जो भी स्वरूप देखा है, वह परिवार के भीतर ही देखा है। वहाँ जो सीखा है, वही विचारों में गुंथा है। वैयक्तिक आधार पर उसका विश्लेषण करना कठिन रहा है, सदा से। हाँ, सामाजिक जीवन में तो नारी के प्रति सम्मान के अतिरिक्त कुछ सूझा ही नहीं। परिवार से इतर नारियों का विषय उद्वेलित करता है, पर समाधान उस मार्ग कभी नहीं जाता जहाँ परिवार का भी आधार दरकने लगे।
Deleteअपने विचार निश्चय लिखूँगा, संघनित होने के बाद। बस अभी कतरा रहा हूँ, आशा है आप क्षमा कर देंगी।
एक संतुलित आलेख ...टैग लगा होने से ही कोई नारीवादी नहीं हो सकता , प्रत्येक नारी अपने स्तर पर कुछ न कुछ योगदान देती है !
ReplyDeleteबिलकुल सही कहा आपने, बस यही बात तो मैंने भी कहा है।
Deleteखूब लिखा है!
ReplyDeleteआपने भी खूब पढ़ा है :)
Deleteइसी तरह एक और धारा है जिसे हम 'स्वैच्छिक नारीवाद' कह सकते हैं, जो बिना किसी अंकुश के अपनी इच्छा से सबकुछ करने का समर्थक है । जैसे सिगरेट पीना, शराब पीना, स्वतंत्र जीना, विवाह जैसी संस्थाओं को नहीं मानना इत्यादि।
ReplyDeleteada
what about those who dont smoke , dont drink but believe that freedom and equality means that all genders have equal right to drink and smoke and its not that woman should not do this because this is bad
good and bad are same for all "as a right "
how do you tag such woman ?? what type of feminist do you call them ??
If those women who do think that drinking, smoking is bad for both women and men they will fall under UDARVAADI NAARIVAAD.
Deletewonderful clarity swapna - exactly.
ReplyDeleteany "label" like "you are a nariwadi" is usually an insult in the guise of praise, from people who are afraid to own up that they are against you, want to hit out but are cowards to do so.
narwadi or any vadi - i don't know what that is - but your analysis appeals. per this analysis, i myself fall in the category too :)
the best work for womens rights on the hindi blog platform is undoubtedly rachna ji's. she dares to speak even while knowing that she will be unfairly targeted - and she gives a damn for the targeting :) though i disagree with her on many issues, i agree with her views on many others too.
---------------
any "vaad" ususally is biased because it blinds one to the goods on the other side, but on the other hand, any "vaad" arises because there is so much "bad" happening against one community of humanity that people are forced to act.
the best work for womens rights on the hindi blog platform is undoubtedly rachna ji's
Deletedoes this mean you have voted for naari blog :) thanks do it every day
:)
Deleterachna ji - remember - there is something called as secret ballot :)
love the work on naari - is the MAXIMUM i can say on this platform (though i will continue to agree and disagree with you topicwise)
Thanks Shilpa !
Delete
ReplyDeleteकल दिनांक 14/04/2013 को आपकी यह पोस्ट http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर लिंक की जा रही हैं.आपकी प्रतिक्रिया का स्वागत है .
धन्यवाद!
धन्यवाद यशवंत !
Deleteउसी तरह 'समाजवादी नारीवाद' भी है, जो उत्पादन, पुनुरुत्पादन के श्रम विभाजन में, समानता की बात करता है। वेतन में समानता की बात करता है। नौकरी में मिलने वाली फसिलीटीस की बात करता है।
ReplyDeleteऔर सबसे पहले वह घर में समानता की बात करता है जिसमे वह उन्मुक्तता से गर्व के साथ जी सके ।
नारीवाद की परते दर परते खोलते हुए सार्थक आलेख ।
अब प्रश्न यह है, किससे मुक्ति, किस तरह की मुक्ति और कितनी मुक्ति ??
कुछ भी विचार हम किसी पर नहीं थोप सकते ।हर स्त्री अपने लिए अपना कोना निकाल ही लेती है और पुरुष हमेशा माँ और पत्नी बीच अपने आप को सेंडविच कहकर" बिचारा "बन्ने में अपना भला समझता है । ये भी सच है की आम स्त्री कोई भी" वाद" नहीं चाहती ।
शोभना दी, आपका धन्यवाद !
Deleteनारीवाद को आपने अच्छी तरह पारिभाषित ही नहीं किया बल्कि उसके अनेक परिप्रेक्ष्यों को भी स्पष्ट किया !
ReplyDeleteकभी हो सकता है पुरुश्वाद की भी अलख जगे
यही कोशिश थी डॉक्टर साहेब, अक्सर हम सबको एक ही लपेट लिया जाता है, और इस बात से मुझे बहुत कोफ़्त होती है :)
Deleteबहुत ही सुन्दर और संतुलित आलेख...नारीवाद शब्द अक्सर एक तंज के साथ प्रयोग किया जाता है .जिस स्त्री ने भी अपनी या दूसरी स्त्रियों के अधिकार और स्वतंत्रता की बात की ,उसे झट से नारीवादी कहकर एक अलग ही कैटेगरी में डाल दिया जाता है, मानो वह आम स्त्रियों से अलग हो.
ReplyDeleteजबकि सच यह है कि हर स्त्री भीतर से नारीवादी ही है और जैसा तुमने उल्लेख किया है,अपने सामर्थ्य और माहौल के अनुसार स्त्रियों की प्रगति के लिए प्रयासरत है.
मुझे तो मेरी कामवाली बाई से बढ़कर नारीवादी कोई दूसरी नहीं दिखती, जिसने यह शब्द भी नहीं जाना है पर गाँव से शहर अपनी मर्जी से आयी है,अपने पति, घरवालों का विरोध सहते हुए भी घरों में काम करके अपनी बेटी को पढाया, बेटी को नौकरी करने के लिए प्रोत्साहित किया, बेटी की कमउम्र में शादी को नकारा और अभी भी उसकी बेटी के अट्ठारह साल के हो जाने के बावजूद उसे उसकी शादी की कोई जल्दी नहीं है..कहती है, अच्छा लड़का मिलेगा तभी देखभाल करके उसकी शादी करेगी .
अरे रश्मि,
Deleteइस बात का आईडिया ही तुमसे बात करते वक्त दिमाग में आया।
तुम अपनी कामवाली को मेरी तरफ से शाबाशी दे देना :)
आपका धन्यवाद !
ReplyDeleteआपका धन्यवाद अरुन जी !
ReplyDelete
ReplyDeleteबेहतरीन प्रस्तुति
पधारें "आँसुओं के मोती"
धन्यवाद प्रतिभा !
Deleteसहमत हूँ...इसीलिए क्योंकि जो प्रचलित नारीवाद है या जिसे एक टैग के समान काम में लिए जाता है वो बरसों से दिशाहीन है , वरना तो मोर्चों के दम पर कितना कुछ बदल गया होता अब तक
ReplyDeleteमोनिका जी,
Deleteइस आन्दोलन की अब तक तक की असफलता का सबसे बड़ा कारण है, नारीवादियों का दिग्भ्रमित होना। पश्चिम का अन्धानुकरण, उनमें से एक बात है,जो बातें पश्चिम के लिए सही हैं वो पूरब के लिए भी सही हों, कोई ज़रूरी नहीं है। ये तो बिलकुल आम और अमरुद को एक जैसा समझने वाली बात है। नारीवादियों को सांस्कृतिक-सामंजस्य तो बनाना ही होगा, वर्ना फायदा कम नुक्सान ज्यादा है।
मेरी बात का भी मतलब यही है ...फायदा कम नुकसान ज्यादा हुआ ही है
Deleteबहुत सुन्दर लेख लिखा है आपने। साधुवाद! एक बात आपने बहुत अच्छे से उकेरी है जो महत्वपूर्ण है कि परिवार के साथ रहकर परिवार के पुरूष की सोच में परिवर्तन करना सबसे महत्वपूर्ण आंदोलन है जिसमें नारी सफल भी हो रही है।
ReplyDeleteतथाकथित नारीवादी लोगों को यह बात समझनी होगी कि शराब पीने या देह दिखाने की स्वतंत्रता नारी स्वातंत्रय की प्रतीक नहीं है वरन पितृसत्तात्मक सोच का ही आधुनिक नारीवादी रूप है। मूल रूप से देखें तो परिवार के मसलों में अपना पक्ष रखने का अधिकार तथा हमबिस्तर होने के लिए न कहने का अधिकार नारी को मिलना चाहिए। नारी स्वातंत्रय की शुरूआत यहीं से हो सकती है।
इस सुन्दर लेख के लिए आपका साधुवाद और बधाई!
मैंने अभी-अभी यही बात ऊपर अपनी प्रति-टिप्पणी में कही है। इस बात से इनकार नहीं कि कम से कम भारत में सफलता सफलता पाने के लिए, सांस्कृतिक-सामंजस्य की आवश्यकता है।
Deleteलेकिन इस बात से भी इनकार नहीं होना चाहिए, आज समाज में पुरुष जिन स्रोतों से ताकत, सम्मान, आत्मविश्वास हासिल कर पाता है, उन्हीं स्रोतों की आवश्यकता नारी को भी है। आज पुरुष-समाज से दो टूक सवाल करती हूँ कि पिता-भाई के रूप में क्या आपने अपनी बेटी और बहन को परिवार की जायदाद में हिस्सा दिया ? अगर पिता-भाई के रूप में ही पुरुष ईमानदार और न्यायप्रिय नहीं हैं, तो उनकी बेटियां-बहनें अबलायें ही तो बनी रहेंगी। नारी के लिए ससुराल और समाज में बिना किसी हैसियत की बनने की प्रक्रिया मायके से ही शुरू होती है, जब माँ-बाप बेटी की शिक्षा के प्रति उदासीन रहते हैं, आत्मनिर्भर होने के लिए पिता की संपत्ति में पिता और भाई ही हक नहीं देते हैं, तो नारी की स्थिति कैसे सुधरेगी ??? अगर औरत इनसे लैस रहे तो ससुराल क्या पूरे समाज के आगे ससम्मान ज़िन्दगी जी सकती है, लेकिन अगर पिता ही ने उसे इन में आभावों से अपाहिज बना दिया हो तो क्या मायका, क्या ससुराल और क्या बाहर की दुनिया ! सभी जगह उसे समझौते ही करने पड़ेंगे । फिर आप आत्मसम्मान, आत्मविश्वास, आत्मनिर्भरता पर जितनी मर्ज़ी भाषण दे दे, उसका भला नहीं होने वाला। देह-उह दिखाने की बात ही एक चक्रव्यूह है, नारी इस में फंसकर मुद्दे से न भटके, मैं तो यही कहूँगी।
बहुत सुंदर परिभाषाओं के साथ नारीवाद का चित्रण किया है
ReplyDeleteसादर
मेरे अंगना भी पधारें
''माँ वैष्णो देवी ''
सरिता जी,
Deleteआभारी हूँ !
संतुलित और समंजित लेख के लिए बधाई
ReplyDeleteThis comment has been removed by the author.
ReplyDeleteआपने सही कहा है नारीवाद का मतलब "स्वैच्छिक नारीवाद" नहीं है बल्कि मतलब है वो नारी जो अपने अधिकार के साथ साथ अपने कर्तव्य को अब ज्यादा अच्छी तरह से समझने लगी है. बच्चों के पालन पोषण के साथ साथ अपने पति के कदम से कदम मिलाकर चल रही है इससे फ़ायदा पुरुष समाज को भी है. हर तरह से वो हेल्प कर रही पति को भी. पुरुष को तो नारीवाद में हंड्रेड परसेंट साथ देना चाहिए. जहाँ आज की नारी अपने अधिकार के साथ साथ अपने कर्तव्य को बखूबी समझने लगी है और वो अपनी सीमा भी जानती है.
ReplyDeleteनारीवाद पुरुषों को घायल करने लिए तलवार काम नहीं करती है बल्कि अगर किसी नारी के साथ अन्याय हुआ है और वह अपेक्षित है और न्याय के लिए अकेले लड़ना कुछ कठिन हो रहा हो तो उसके लिए हथियार का काम जरुर करती है तो नारीवाद क्या बुरा है ?? वो अगर बाहर की नारियों में शक्ति भरने और अपने साथ हुए अन्याय के खिलाफ आवाज उठाने की ताकत भर रही है तो कोई बताये क्या गलत कर रही है?
रंजना जी,
Deleteस्वागत है आपका।
सहमत हूँ आपकी बातों से।
धन्यवाद !
संतुलित लेख :)
ReplyDeleteसंतुलित टिप्पणी :)
Deleteआदरेया आपका यह गहन शोधात्मक लेख 'निर्झर टाइम्स' पर लिंक किया गया है। कृपया http://nirjhar-times.blogspot.com पर अवलोकन करें। आपका सुझाव/प्रतिक्रिया सादर आमंत्रित है
ReplyDeleteआपका आभार वंदना जी !
Deleteनिर्झर टाईम्स मेरे लिए नयी जगह थी, आपका काम प्रशंसनीय है।
Deleteअच्छा लेख है..सोचने अपर मजबूर करता हुआ
ReplyDeleteआपका ऐसा कहना बहुत मायने रखता है मेरे लिए !
Deleteजब भी नारी अपने व्यक्तित्व को अक्षुणण रखने का प्रयत्न करती है ,सामाजिक स्तर पर व्यक्ति के रूप में स्वीकृति चाहती है ,कभी आरोप लगाकर ,धर्म और परंपराओं का नाम लेकर, हँसी उड़ाकर कर कई प्रकार के आरोपों मे उलझा कर या धमका कर उसे विरत करने की कोशिशें पुरुष-प्रधान समाज में शुरू हो जाती है.पुरुष होने का अहं पाले लोग भयंकर अत्याचार करने से भी नहीं चूकते और ऐसी मानसिकता लोग व्यंग्य-बाण ,और ज़हरीले बोल बोल कर अपनी अरुचि दर्शाते हैं,बौखलाहट में सामान्य शिष्टाचार भी भूल जाते हैं ,या स्त्री से बात करने में सभ्य-आचरण रखने में उनकी शान घटती है.बेतुके तर्कों में उलझा कर डाइवर्ट या उत्तेजित करना चाहते हैं.ऐसी स्थितियों में अन्याय के विरोध के स्वर तीखे हो जाएं,प्रतिकार के लिये कुछ दिशान्तरण भी हो जाय पर,परिवार और संतान के हित पर नारी किसी प्रकार आँच नहीं आने देती.
ReplyDeleteलोग बात को कहीं भी मोड़ लें, विवाद खड़े कर लें सब ऊपरी आरोपण हैं अंतर्निहित तत्व है- समान स्तर पर अपनी स्वीकृति और मानवोचित न्याय !
आपकी बातों से पूरी तरह सहमत हूँ।
Deleteहर बात का उदगम पश्चिम को मानना एक भंयकर भ्रम है, भारतीय संस्कृति का ह्रास तो लगभग 1000 वर्षो की गुलामी से हुआ।
ReplyDeleteगिरिधारी जी,
Deleteपश्चिम के सिर पर अपने दोषों का ठीकरा फोड़ना तो आज का फैशन हो गया है भारत में । ये वही लोग हैं जो पश्चिम को दोष देने से पहले, पैंट-शर्ट, सूट, जूते, टाई जैकेट पहन लेते हैं, जिनके बच्चे अंग्रेजी स्कूलों में पढ़ते हैं। हर घर में अंग्रेजियत का माहौल है हिन्दुस्तान में, जिसे अपना कर गर्व महसूस करते हैं सभी, स्टेटस सिम्बल माना जाता है यह भारतीय समाज में। लेकिन पहली फुर्सत में पश्चिम को गाली दे देना इनका अधिकार भी होता है और कर्तव्य भी। पश्चिम की कृपा नहीं होती तो जो लोग ब्लॉग्गिंग ही कर रहे हैं लोग, क्या वो कर पाते ? आज हम देवनागरी लिपि अपने कंप्यूटर में देख रहे हैं, क्या ये देख पाते ? लेकिन पश्चिम के प्रति कृतज्ञता का एक शब्द भी कहना इनके लिए भारी पड़ता है।
भारतीय संस्कृति का बिगुल बजाने से पहले आईने के सामने एक बार खड़े होने की आवश्यकता है उनको, देखें खुद को कि वो कितने भारतीय संस्कृति को पहन ओढ़ कर खड़े हैं। जब फ़ायदा उठाते हैं तो पश्चिम का ज़िक्र तक नहीं करते, और जब उलूल-जूलूल बातें अपना कर खुद की भद्द पिटवाते हैं तो पश्चिम को खरी-खोटी सुनाते हैं। हाँ यही एक बात है, जो विशुद्ध भारतीय मानसिकता है :)
आपका बहुत धन्यवाद आपने अपनी बात हम सब तक पहुँचाई।
बहुत बढ़िया सार्थक चिंतन भरी प्रस्तुति
ReplyDelete