Thursday, April 25, 2013

हमारी जिंदगी में भी, कई बे-नाम रिश्ते हैं......



हमारी जिंदगी में भी, कई बे-नाम रिश्ते हैं
जिन्हें हम इतनी शिद्दत से न जाने क्यूँ निभाते हैं 

तुम्हारी हर दगाबाज़ी हमें जी भर  रुलाती है
सबेरा  जब भी होता है तो हम सब भूल जाते हैं 

यहाँ  ये कैसी दुनिया है जिसे आभासी कहते हैं
अगर  पत्थर वो  झूठे हैं, क्यूँ सच्चे चोट खाते हैं ? 

ज़रा रहने दो मुझमें भी अभी इतनी सी ग़ैरत तो
कि जब हम नज़रें मिलाते हैं हम नज़रें चुराते हैं

अभी उतना ही गिरने दो हमें ख़ुद की निगाहों में 
कभी झुक करके सोचें हम चलो ख़ुद को उठाते हैं

ये माना हम कभी कुछ भी नहीं दे पाए हैं तुमको   
मगर हम रूह की हद से तुम्हें मेरी जाँ बुलाते हैं

ये दिल दर्द के जज़्बात से जब भी लरज़ता  है
पकड़ कर डाल हम ख़ामोशियों के झूल जाते हैं

बड़ा है कौन यां ग़र तुम, कभी इस बात को सोचो
हरिजन के छुए पर ये बिरहमन क्यूँ नहाते हैं..?

कभी सोचा  'अदा' तुमने, गरीबों की ही बीवी को  
सभी देवर से क्यूँ बनकर के, भाभी जाँ बुलाते हैं ?

छोड़ दे सारी दुनिया किसी के लिए... आवाज़ 'अदा' की..




16 comments:

  1. बहुत सुन्दर प्रस्तुति...!
    आपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल मंगलवार के चर्चा मंच चौराहे पर खड़ा हमारा समाज ( चर्चा - 1225 ) में "मयंक का कोना" पर भी है!
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

    ReplyDelete
  2. क्षमा करें... पिछली टिप्पणी में दिन गलत हो गया था..!
    बहुत सुन्दर प्रस्तुति...!
    आपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा आज बृहस्पतिवार के चर्चा मंच चौराहे पर खड़ा हमारा समाज ( चर्चा - 1225 ) में "मयंक का कोना" पर भी है!
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

    ReplyDelete
  3. गाना बहुत खूब गाया। कविता/गजल चकाचक!

    ReplyDelete
  4. " ये माना हम कभी कुछ भी नहीं दे पाए हैं तुमको
    मगर हम रूह की हद से तुम्हें मेरी जाँ बुलाते हैं".....बेस्ट लगा ...
    और गीत -बेस्टेस्ट ......

    ReplyDelete
  5. अभी उतना ही गिरने दो हमें ख़ुद की निगाहों में
    कभी झुक करके सोचें हम चलो ख़ुद को उठाते हैं
    ~ सुबहान अल्लाह!

    ReplyDelete
  6. बेहतरीन ग़ज़ल ....... गाना भी अच्छा लगा

    ReplyDelete
  7. ये दिल दर्द के जज़्बात से जब भी लरज़ता है
    पकड़ कर डाल हम ख़ामोशियों के झूल जाते हैं .......बढ़िया।

    ReplyDelete
  8. रि‍श्‍ते अब लगता है कि बस सहूलि‍यत के लि‍ए ही होकर रहते चले जा रहे हैं

    ReplyDelete
  9. क्या बात है बहुत खूब !

    ReplyDelete
  10. विचारों का विरोधाभास ही रिश्तों की डोर लगती है कभी कभी..

    ReplyDelete
  11. बहुत सुन्दर गजल ..........

    ReplyDelete
  12. आपको यह बताते हुए हर्ष हो रहा है के आपकी इस विशेष रचना को आदर प्रदान करने हेतु हमने इसे आज दिनांक ८ मई, २०१३, बुधवार के ब्लॉग बुलेटिन - कर्म की मिठास में शामिल किया है | कृपया बुलेटिन ब्लॉग पर तशरीफ़ लायें और बुलेटिन की अन्य कड़ियों का आनंद उठायें | हार्दिक बधाई |

    ReplyDelete
  13. बेहद खूबसूरत प्रस्तुति |

    कभी यहाँ भी पधारें और लेखन भाने पर अनुसरण अथवा टिपण्णी के रूप में स्नेह प्रकट करने की कृपा करें |
    Tamasha-E-Zindagi
    Tamashaezindagi FB Page

    ReplyDelete
  14. बहुत ही सुन्दर रचना.बहुत बधाई आपको .

    ReplyDelete