हमारी जिंदगी में भी, कई बे-नाम रिश्ते हैं
जिन्हें हम इतनी शिद्दत से न जाने क्यूँ निभाते हैं
तुम्हारी हर दगाबाज़ी हमें जी भर रुलाती है
सबेरा जब भी होता है तो हम सब भूल जाते हैं
यहाँ ये कैसी दुनिया है जिसे आभासी कहते हैं
अगर पत्थर वो झूठे हैं, क्यूँ सच्चे चोट खाते हैं ?
ज़रा रहने दो मुझमें भी अभी इतनी सी ग़ैरत तो
कि जब हम नज़रें मिलाते हैं हम नज़रें चुराते हैं
अभी उतना ही गिरने दो हमें ख़ुद की निगाहों में
कभी झुक करके सोचें हम चलो ख़ुद को उठाते हैं
ये माना हम कभी कुछ भी नहीं दे पाए हैं तुमको
मगर हम रूह की हद से तुम्हें मेरी जाँ बुलाते हैं
ये दिल दर्द के जज़्बात से जब भी लरज़ता है
पकड़ कर डाल हम ख़ामोशियों के झूल जाते हैं
बड़ा है कौन यां ग़र तुम, कभी इस बात को सोचो
हरिजन के छुए पर ये बिरहमन क्यूँ नहाते हैं..?
कभी सोचा 'अदा' तुमने, गरीबों की ही बीवी को
सभी देवर से क्यूँ बनकर के, भाभी जाँ बुलाते हैं ?
छोड़ दे सारी दुनिया किसी के लिए... आवाज़ 'अदा' की..
बहुत सुन्दर प्रस्तुति...!
ReplyDeleteआपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल मंगलवार के चर्चा मंच चौराहे पर खड़ा हमारा समाज ( चर्चा - 1225 ) में "मयंक का कोना" पर भी है!
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
क्षमा करें... पिछली टिप्पणी में दिन गलत हो गया था..!
ReplyDeleteबहुत सुन्दर प्रस्तुति...!
आपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा आज बृहस्पतिवार के चर्चा मंच चौराहे पर खड़ा हमारा समाज ( चर्चा - 1225 ) में "मयंक का कोना" पर भी है!
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
गाना बहुत खूब गाया। कविता/गजल चकाचक!
ReplyDelete" ये माना हम कभी कुछ भी नहीं दे पाए हैं तुमको
ReplyDeleteमगर हम रूह की हद से तुम्हें मेरी जाँ बुलाते हैं".....बेस्ट लगा ...
और गीत -बेस्टेस्ट ......
अभी उतना ही गिरने दो हमें ख़ुद की निगाहों में
ReplyDeleteकभी झुक करके सोचें हम चलो ख़ुद को उठाते हैं
~ सुबहान अल्लाह!
बेहतरीन ग़ज़ल ....... गाना भी अच्छा लगा
ReplyDeleteये दिल दर्द के जज़्बात से जब भी लरज़ता है
ReplyDeleteपकड़ कर डाल हम ख़ामोशियों के झूल जाते हैं .......बढ़िया।
bahut hi sundar prstuti,abhar,.
ReplyDeletekhubsurat gajal... jabab nahi iska...:)
ReplyDeleteरिश्ते अब लगता है कि बस सहूलियत के लिए ही होकर रहते चले जा रहे हैं
ReplyDeleteक्या बात है बहुत खूब !
ReplyDeleteविचारों का विरोधाभास ही रिश्तों की डोर लगती है कभी कभी..
ReplyDeleteबहुत सुन्दर गजल ..........
ReplyDeleteआपको यह बताते हुए हर्ष हो रहा है के आपकी इस विशेष रचना को आदर प्रदान करने हेतु हमने इसे आज दिनांक ८ मई, २०१३, बुधवार के ब्लॉग बुलेटिन - कर्म की मिठास में शामिल किया है | कृपया बुलेटिन ब्लॉग पर तशरीफ़ लायें और बुलेटिन की अन्य कड़ियों का आनंद उठायें | हार्दिक बधाई |
ReplyDeleteबेहद खूबसूरत प्रस्तुति |
ReplyDeleteकभी यहाँ भी पधारें और लेखन भाने पर अनुसरण अथवा टिपण्णी के रूप में स्नेह प्रकट करने की कृपा करें |
Tamasha-E-Zindagi
Tamashaezindagi FB Page
बहुत ही सुन्दर रचना.बहुत बधाई आपको .
ReplyDelete