इस समय जो भी सुनने को मिल रहा है ...मेरा यह संस्मरण सामयिक कहा जा सकता है, इसलिए दोबारा डाल रही हूँ।
अब तक तो हम स्टेशन पर ही खड़े थे....स्टेशन क्या था एक छप्पर , जिसके नीचे, यात्रियों के बैठने के लिए दो-चार बेंच, जिसके हर बेंच पर कोई न कोई लेटा हुआ नज़र आ रहा था...शायद इस भरी दुपहरी में इससे ज्यादा आरामदेह जगह और कोई नहीं थी आस-पास...मेरा वहां बैठने का तो ,प्रश्न ही कहाँ उठता था...फिर क्या था मन बना लिए, चल-चल रे नौजवान...रुकना तेरा काम नहीं चलना तेरी शान...किसी मंजे हुए सेनानी की तरह अब कमर कसे हम भी मंजिल की ओर चल पड़े ....
रेलवे लाईन पार करके हम दूसरी तरफ आ गए...आसमान बिलकुल साफ़ और सूर्य देवता अपने पूरे ताम-झाम पर, गाँव में वैसे भी आसमान साफ़ होता है, जेठ की दोपहरी और चिलचिलाती धूप....आँख उठा कर ऊपर देखने की कोशिश किये भी थे और कहे भी थे....वाह..! सूर्य महाराज , आज मत बक्शना हमको....
रास्ते के नाम पर कच्ची सी पगडण्डी...जो आते जाते क़दमों से बनी थी...घास जमती भी तो कैसे...जमने से पहले ही पाँव से रौंद दी जाती...पगडण्डी की मिटटी गर्मी में नमी खोकर धूल बनने लगी थी...इसलिए सारी पगडण्डी धूल से अटी पड़ी थी....बीच-बीच में जब लू कहें या हवा , चलती तो अपने साथ ग़ुबार भी उड़ाती जाती..गोल-गोल...और हम अपनी आँखें बचाने के लिए दूसरी तरफ मुंह घुमा लेते थे..दोनों हाथों में सामान जो था हमारे ..
अगर हम जानते कि कोई लेने नहीं आएगा तो हील पहन कर थोड़े ही ना आते ..चप्पल ही पहन लेते ...अब हील की वजह से रास्ता चार कोस का हो जाएगा..माँ कितनी बार कहती है हील मत पहना करो...अच्छा नहीं होता हील पहनना...लेकिन माँ के ही कारण तो हमरी हाईट कम है...सारी हाईट भाई लोगों को दे दी...और हमको बना दी पांच फुट्टी...कितनी बार माँ को सुना चुके हैं हम ...इतनी नाटी काहे हैं हम ...माँ कहती है तुम नाटी नहीं हो...एकदम ठीक हो...अच्छी लगती हो...लड़की जात , बहुत ज्यादा लम्बी अच्छी नहीं लगती है ...हम भी मुंह बिसूर के बोल ही दिए थे...हाँ हाँ..काहे नहीं तुम अपनी गलती थोड़े ही न मानोगी...माँ मेरा मन रखने को कहती..कितनी सुन्दर तो लगती हो तुम , बेकार में अपना मन ख़राब करती हो...वैसे भी पसेरी भर हीरा कभी कोई देखा है का...कीमती चीज़ का साईज हमेशा छोटा होता है.....माँ भला अपनी कृति को बुरा कैसे कह सकती है...उसको तो हम सुन्दर लगेंगे ही...लेकिन हम भी कहाँ बात ज़मीन पर गिरने देते हैं ...अच्छा..! अगर हम एतना ही खूबसूरत हैं तो कोई ब्यूटी कॉम्पिटिशन वाला हमको लेता काहे नहीं है ...हाईट देखकर ही सब मना कर देते हैं...माँ धीरे से मुस्किया देती है ...लेकिन बोल जरूर दी थी...ई घर की लड़की लोग ब्यूटी कॉम्पिटिशन में नहीं जातीं हैं...और उसका ई बात पर हमरा एड़ी का बोखार चूंदी में चढ़ गया था ...बिफर कर हम बोले थे.. हाँ हाँ काहे नहीं...नाच न जाने आँगन टेढ़ा....माँ जोर से हँस कर हमरा मुहावरा सुधार गयी थी....ना ना..गलत बोलती हो..बोलो अंगूर खट्टे हैं.....
भगवान् ने भी गज़ब चीज बनाया है ...पेड़..! कितना घना है...कितना ठंढा है...इसके नीचे कितनी राहत है...सूरज के प्रकोप से एकदम से बच गए थे हम...बिलकुल ऐसा लगा जैसे पिता का साया हो सिर के ऊपर..जो छतरी बनकर जीवन की कड़ी धूप से बचा लेते हैं...बाबा का चेहरा आँखों के सामने तैर गया था ...अब तक हलक भी सूखने लगा था...झट से थैले से पानी का बोतल निकाल कर गटागट एक सांस में पीने लगे हम ...यह भी एक सुख है...असीम सुख...पानी का स्वाद अमृत से बढ़ कर लग रहा था ...थोड़ी देर इसी पेड़ की छाया में बैठ जाते हैं.....अरे पहुँच जायेंगे...अभी तो भरखर दोपहरिया है...आराम आराम से जायेंगे...मन ही मन ख़ुद को समझाते रहे और विपरीत परिस्थिति को अनुकूल बनाने का प्रयास करते रहे ... अब हमको भी अकेले सफ़र का आनंद आने लगा था...
अगर बाबा को पता चला कि हम अकेले ही दो कोस चले थे और हमको लेने कोई नहीं आया था ..तो सबकी छुट्टी कर देंगे ऊ ...लाडली बेटी हैं उनकी हम ...हमको जो भी कष्ट देगा..ऊ तो भुगतेगा ही.....देख लेना सब बतावेंगे हम ...किसी को ऊ छोड़नेवाले नहीं हैं...सोच-सोच कर हम खुश होने लगे कि कैसे बाबा सबकी क्लास लेवेंगे...अब हम अपने मन में कैसे शिकायत करना है ..इसका चक्रव्यूह रचने में जुट गए थे.....
अरे..! ई कौन चला आ रहा है साइकिल की घंटी बजाता हुआ ...सामने से कोई बड़ी तेज़ी से चला आ रहा है.. ई तो रमेश है..मेरा चचेरा भाई...अच्छा तो अब याद आई हमरी...बचोगे नहीं बच्चू...ई जो एक-एक डेग हम चले हैं...सबका हिसाब हम देवेंगे बाबा को...और ई साइकिल में काहे आ रहा है.. मोटरसाइकिल कहाँ है...?
रमेश जब तक पास आया हमरा चेहरा गुस्से में और लाल हो गया...कहाँ थे तुम ? दीदी चलो, बैठो...जल्दी से...लेकिन हम कौन सा उसको छोड़ देने वाले थे...अरे...ऐ..! हम साइकिल पर कैसे बैठेंगे ?.अरे पीछे करियर है उस पर बैठो...और का...! अच्छा...! बाप जनम हम कभी नहीं बैठे...हमसे नहीं होगा ई सब....मोटरसाइकिल कहाँ है..? अब ऊ भी झुंझलाने लगा था ..अरे ! उसका काम हो रहा है...अब बैठो भी...
अरे ! ऐसा का काम हो रहा है..बताते काहे नहीं हो ? चलो न दीदी जल्दी, घर पहुँच कर बताएँगे...
उस दिन पता चला साइकिल के कैरियर में बैठना भी एक कला है...पूरे रास्ते रमेश चुप था..हम केतना बार पूछे कि का काम हो रहा है मोटरसाईकिल का..लेकिन ऊ कुछ नहीं बोला...अब पीछे बैठकर हम अपना बैलेंस बनाते कि उससे बतकही करते...
ख़ैर राम-राम करते हम गाँव पहुँच गए...दूसरा कोई दिन होता तो सब भागे आते..लेकिन आज कोई नहीं आया...ऐसा सन्नाटा पूरा गाँव में कि लगता था कोई मर गया है...दूर से देखे...मेरी दादी, मेरी सब फूफू, सारी चाची...गाँव भर का बच्चा लोग ..बड़का कूआं के चारो-चौहद्दी खड़े हैं...कोई न तो मुस्कुरा रहा है...न बतिया रहा है...बस सब फुसुर-फुसुर कर रहे थे..रमेश हमरा सामान अन्दर ले गया.और हम पहुँच गए कूआं पर...
दादी का पाँव छूवे ...सब चाची, फूफू फट-फट अपना पाँव आगे कर दीं...हम पाँव छूते जावें और बीच-बीच में कुआँ में हुलकते भी जावें और साथे-साथे पूछते जावें...का हुआ है ?
अब हम ई जिद्द पकड़ लिए...कि साधन के घर जाना है...का जाने उसके माँ-बाप पर का बीत रही होगी...सब मना करते रहे हमको...लेकिन बात नहीं मानना हमारी प्रवृति जो ठहरी...पहुँच गए हम, अपना शोक व्यक्त करने...हमको निकलते देख दादी चिल्लाई अरे कोई उसके साथ जाओ...ई लड़की बात ही नहीं मानती है...हमरी फूफू हमको जाता देख, पीछे-पीछे चली आई...
साधन के घर का माहौल देख कर हमको लगा कहीं हम गलत घर में तो नहीं आ गए....वहां सबकुछ महा-सामान्य था...बस साधन की माँ का हृदय विदीर्ण दिखा...बाप ऐसा ही बैठा था ,जैसे हर दिन बैठता था...चेहरे पर न सोच, न शोक...ऐसे असामान्य घटना घटित होने पर भी, इतना सामान्य दिखने वाले इंसान से बात भी क्या की जा सकती थी...साधन की माँ इस तरह, छुप कर शोकाकुल थी ,मानो कोई पाप कर रही हो....हम खुदे सकते में आ गए ...कुछ कह नहीं पाए...और लौटने लगे...फूफू फिर फुसुर-फुसुर करने लगी...हम बोले थे न मत जाओ...मगर तुम काहे सुनोगी...! लेकिन फूफू इनको कोई दुःख नहीं है...दीनदयाल चाचा ऐसे बैठे हैं जैसे कुछ हुआ ही नहीं है...बाप हैं ई कि कसाई...! अब फूफू का धीरज टूट गया था...एक नंबर का कसाई है हरामजादा...तुम पूछ रही थी न..कि ऊ लड़का कौन है...जो साधन को धोखा दिया है...उसका बाप ही है कमीना ऊ लड़का...ई सुनते ही हम तो गश खाकर गिरने-गिरने को हो गए....याद आ गया हमको वो रास्ते का घनी छाँव वाला पेड़...जिसके नीचे खड़े होकर हमको हमारे पिता का साया महसूस हुआ था...लगा ऊ पेड़ चरमरा कर हमपर ही गिर गया हो...धम्म से...!
ट्रेन से उतरना ऊ भी अकेले और ऊ भी सारे सामान के साथ कितना मुश्किल है, उतरते साथ हम अपनी आँखें मीच-मिचाने लगे ...दूर-दूर तक कोई भी पहचाना सा चेहरा नज़र नहीं आया....कोई आया क्यों नहीं लेने ? फ़ोन तो कर दिए थे कि २ बजे की ट्रेन से हम आ रहे हैं...थैला, बास्केट, पर्स सबकुछ उठाना कितना मुश्किल है, हम बुदबुदा रहे थे ..कोई रिक्शा भी नहीं है..आज हमको पहली बार अपने गाँव आने पर कोफ़्त हो रही थी..धूप इतनी तेज़ कि मत पूछो...गर्मी के मारे समूचा बदन पसीने से नहाया हुआ बुझा रहा था... पसीने को आँचल से पोछते हुए हम बडबडाते जाते थे.. ..अब तो जाना ही होगा पैदल, कम से कम दो कोस का रास्ता है..सोच कर ही मन बैठ गया..लेकिन उपाय क्या है..साड़ी के आँचल को कस कर कमर से बाँध लिये ..सामने की चुन्नट उठा कर सामने ही खोस लिए, नीचे पेटीकोट नज़र आने लगा था..हुंह ..जाने दो का फर्क पड़ता है..सोचकर अपना ही कन्धा झटक दिए ... पर्स कंधे पर लटका लिए, एक हाथ में बास्केट और दूसरे हाथ में थैला लेकर दो कोस की दूरी तय करने के अभियान में लग गए ...
अब तक तो हम स्टेशन पर ही खड़े थे....स्टेशन क्या था एक छप्पर , जिसके नीचे, यात्रियों के बैठने के लिए दो-चार बेंच, जिसके हर बेंच पर कोई न कोई लेटा हुआ नज़र आ रहा था...शायद इस भरी दुपहरी में इससे ज्यादा आरामदेह जगह और कोई नहीं थी आस-पास...मेरा वहां बैठने का तो ,प्रश्न ही कहाँ उठता था...फिर क्या था मन बना लिए, चल-चल रे नौजवान...रुकना तेरा काम नहीं चलना तेरी शान...किसी मंजे हुए सेनानी की तरह अब कमर कसे हम भी मंजिल की ओर चल पड़े ....
रेलवे लाईन पार करके हम दूसरी तरफ आ गए...आसमान बिलकुल साफ़ और सूर्य देवता अपने पूरे ताम-झाम पर, गाँव में वैसे भी आसमान साफ़ होता है, जेठ की दोपहरी और चिलचिलाती धूप....आँख उठा कर ऊपर देखने की कोशिश किये भी थे और कहे भी थे....वाह..! सूर्य महाराज , आज मत बक्शना हमको....
रास्ते के नाम पर कच्ची सी पगडण्डी...जो आते जाते क़दमों से बनी थी...घास जमती भी तो कैसे...जमने से पहले ही पाँव से रौंद दी जाती...पगडण्डी की मिटटी गर्मी में नमी खोकर धूल बनने लगी थी...इसलिए सारी पगडण्डी धूल से अटी पड़ी थी....बीच-बीच में जब लू कहें या हवा , चलती तो अपने साथ ग़ुबार भी उड़ाती जाती..गोल-गोल...और हम अपनी आँखें बचाने के लिए दूसरी तरफ मुंह घुमा लेते थे..दोनों हाथों में सामान जो था हमारे ..
अगर हम जानते कि कोई लेने नहीं आएगा तो हील पहन कर थोड़े ही ना आते ..चप्पल ही पहन लेते ...अब हील की वजह से रास्ता चार कोस का हो जाएगा..माँ कितनी बार कहती है हील मत पहना करो...अच्छा नहीं होता हील पहनना...लेकिन माँ के ही कारण तो हमरी हाईट कम है...सारी हाईट भाई लोगों को दे दी...और हमको बना दी पांच फुट्टी...कितनी बार माँ को सुना चुके हैं हम ...इतनी नाटी काहे हैं हम ...माँ कहती है तुम नाटी नहीं हो...एकदम ठीक हो...अच्छी लगती हो...लड़की जात , बहुत ज्यादा लम्बी अच्छी नहीं लगती है ...हम भी मुंह बिसूर के बोल ही दिए थे...हाँ हाँ..काहे नहीं तुम अपनी गलती थोड़े ही न मानोगी...माँ मेरा मन रखने को कहती..कितनी सुन्दर तो लगती हो तुम , बेकार में अपना मन ख़राब करती हो...वैसे भी पसेरी भर हीरा कभी कोई देखा है का...कीमती चीज़ का साईज हमेशा छोटा होता है.....माँ भला अपनी कृति को बुरा कैसे कह सकती है...उसको तो हम सुन्दर लगेंगे ही...लेकिन हम भी कहाँ बात ज़मीन पर गिरने देते हैं ...अच्छा..! अगर हम एतना ही खूबसूरत हैं तो कोई ब्यूटी कॉम्पिटिशन वाला हमको लेता काहे नहीं है ...हाईट देखकर ही सब मना कर देते हैं...माँ धीरे से मुस्किया देती है ...लेकिन बोल जरूर दी थी...ई घर की लड़की लोग ब्यूटी कॉम्पिटिशन में नहीं जातीं हैं...और उसका ई बात पर हमरा एड़ी का बोखार चूंदी में चढ़ गया था ...बिफर कर हम बोले थे.. हाँ हाँ काहे नहीं...नाच न जाने आँगन टेढ़ा....माँ जोर से हँस कर हमरा मुहावरा सुधार गयी थी....ना ना..गलत बोलती हो..बोलो अंगूर खट्टे हैं.....
ई सब सोच कर धूप में लाल हुआ हमरा चेहरा मुस्कुरा उठा था ....माँ-बाप जैसी प्यारी चीज़ दुनिया में कुछ है का...सोचकर ही मन खुश हो गया...अब तक सूर्य भगवान् अपना जलवा दिखा चुके थे....हे भगवान् प्यास से गला सूख गया है अब तो ...सामने जो पेड़ है..उसके नीचे ही रुक कर ज़रा सुस्ता लेते हैं ...दो घूँट पानी भी पी लेवेंगे....फिर का था लम्बा-लम्बा डग भरते हुए पहुँच गए हम विशाल, घने पेड़ की छाँव में... पेड़ के नीचे खड़ा होते साथ लगा जैसे, कश्मीर पहुँच गए...हुमायूं, बाबर, अकबर जो भी था...ऊ भी अगर यहाँ होता तो, यही कहता..धरती पर अगर कहीं स्वर्ग है तो यहीं है..यहीं है...यहीं है...मेरा खुद से बात करने का सिलसिला ज़ारी रहा ..
भगवान् ने भी गज़ब चीज बनाया है ...पेड़..! कितना घना है...कितना ठंढा है...इसके नीचे कितनी राहत है...सूरज के प्रकोप से एकदम से बच गए थे हम...बिलकुल ऐसा लगा जैसे पिता का साया हो सिर के ऊपर..जो छतरी बनकर जीवन की कड़ी धूप से बचा लेते हैं...बाबा का चेहरा आँखों के सामने तैर गया था ...अब तक हलक भी सूखने लगा था...झट से थैले से पानी का बोतल निकाल कर गटागट एक सांस में पीने लगे हम ...यह भी एक सुख है...असीम सुख...पानी का स्वाद अमृत से बढ़ कर लग रहा था ...थोड़ी देर इसी पेड़ की छाया में बैठ जाते हैं.....अरे पहुँच जायेंगे...अभी तो भरखर दोपहरिया है...आराम आराम से जायेंगे...मन ही मन ख़ुद को समझाते रहे और विपरीत परिस्थिति को अनुकूल बनाने का प्रयास करते रहे ... अब हमको भी अकेले सफ़र का आनंद आने लगा था...
अगर बाबा को पता चला कि हम अकेले ही दो कोस चले थे और हमको लेने कोई नहीं आया था ..तो सबकी छुट्टी कर देंगे ऊ ...लाडली बेटी हैं उनकी हम ...हमको जो भी कष्ट देगा..ऊ तो भुगतेगा ही.....देख लेना सब बतावेंगे हम ...किसी को ऊ छोड़नेवाले नहीं हैं...सोच-सोच कर हम खुश होने लगे कि कैसे बाबा सबकी क्लास लेवेंगे...अब हम अपने मन में कैसे शिकायत करना है ..इसका चक्रव्यूह रचने में जुट गए थे.....
अरे..! ई कौन चला आ रहा है साइकिल की घंटी बजाता हुआ ...सामने से कोई बड़ी तेज़ी से चला आ रहा है.. ई तो रमेश है..मेरा चचेरा भाई...अच्छा तो अब याद आई हमरी...बचोगे नहीं बच्चू...ई जो एक-एक डेग हम चले हैं...सबका हिसाब हम देवेंगे बाबा को...और ई साइकिल में काहे आ रहा है.. मोटरसाइकिल कहाँ है...?
रमेश जब तक पास आया हमरा चेहरा गुस्से में और लाल हो गया...कहाँ थे तुम ? दीदी चलो, बैठो...जल्दी से...लेकिन हम कौन सा उसको छोड़ देने वाले थे...अरे...ऐ..! हम साइकिल पर कैसे बैठेंगे ?.अरे पीछे करियर है उस पर बैठो...और का...! अच्छा...! बाप जनम हम कभी नहीं बैठे...हमसे नहीं होगा ई सब....मोटरसाइकिल कहाँ है..? अब ऊ भी झुंझलाने लगा था ..अरे ! उसका काम हो रहा है...अब बैठो भी...
अरे ! ऐसा का काम हो रहा है..बताते काहे नहीं हो ? चलो न दीदी जल्दी, घर पहुँच कर बताएँगे...
उस दिन पता चला साइकिल के कैरियर में बैठना भी एक कला है...पूरे रास्ते रमेश चुप था..हम केतना बार पूछे कि का काम हो रहा है मोटरसाईकिल का..लेकिन ऊ कुछ नहीं बोला...अब पीछे बैठकर हम अपना बैलेंस बनाते कि उससे बतकही करते...
ख़ैर राम-राम करते हम गाँव पहुँच गए...दूसरा कोई दिन होता तो सब भागे आते..लेकिन आज कोई नहीं आया...ऐसा सन्नाटा पूरा गाँव में कि लगता था कोई मर गया है...दूर से देखे...मेरी दादी, मेरी सब फूफू, सारी चाची...गाँव भर का बच्चा लोग ..बड़का कूआं के चारो-चौहद्दी खड़े हैं...कोई न तो मुस्कुरा रहा है...न बतिया रहा है...बस सब फुसुर-फुसुर कर रहे थे..रमेश हमरा सामान अन्दर ले गया.और हम पहुँच गए कूआं पर...
दादी का पाँव छूवे ...सब चाची, फूफू फट-फट अपना पाँव आगे कर दीं...हम पाँव छूते जावें और बीच-बीच में कुआँ में हुलकते भी जावें और साथे-साथे पूछते जावें...का हुआ है ?
हमरी मंझली फूफू फुसफुसाई...'साधन' डेग दी कुआँ में.....'साधन' मात्र सोलह साल की अबोध लड़की थी, हमारे गाँव की...रिश्ता तो कुछ भी नहीं था...लेकिन गाँव में सभी रिश्तेदार ही होते हैं... अरे डेग दी कि गिर गयी ? हमरी आवाज़ में गुस्सा मिश्रित आश्चर्य था...अरे नहीं , कूद गयी कूआं में...अरे बाप रे ! ऐसा काहे ? और आप सब खड़ा काहें हैं...निकालिए न उसको ...!!
अब कोई फायदा नहीं, मेरी चाची बोल पड़ी...तो का साधन मर गयी ? हम फट से पूछे...सब एक सुर में बोले ...हाँ ..! अब हम पूरी बात जानना चाहते थे ....लेकिन काहे कूद गयी ? दादी बोली...'काँचा जीव थी...' अब हमरा माथा घूम गया ...ई काँचा जीव का होता है ? चल..! घर चल...हमरी बड़की फूफू...हमको धकियाते हुए घर ले जाने लगी....ऐ फूफू ! ई कांचा जीव का होता है...? अरे पगली ! चल घर बताते हैं...घर पहुँचने से पहले ही हमको पता चल गया, कांचा जीव का माने...साधन माँ बनने वाली थी...बिना बियाह के माँ बनना ऊ भी गाँव में ...घोर पाप तो है ही...
कुआं के पास अब शोर मचने लगा था...कोई सिपाही-उपाही ले आये थे लोग, हमरी मोटरसाईकिल में बिठा कर....लाश निकाली जा रही थी और पंचनामा की तैयारी हो रही थी...
अब कोई फायदा नहीं, मेरी चाची बोल पड़ी...तो का साधन मर गयी ? हम फट से पूछे...सब एक सुर में बोले ...हाँ ..! अब हम पूरी बात जानना चाहते थे ....लेकिन काहे कूद गयी ? दादी बोली...'काँचा जीव थी...' अब हमरा माथा घूम गया ...ई काँचा जीव का होता है ? चल..! घर चल...हमरी बड़की फूफू...हमको धकियाते हुए घर ले जाने लगी....ऐ फूफू ! ई कांचा जीव का होता है...? अरे पगली ! चल घर बताते हैं...घर पहुँचने से पहले ही हमको पता चल गया, कांचा जीव का माने...साधन माँ बनने वाली थी...बिना बियाह के माँ बनना ऊ भी गाँव में ...घोर पाप तो है ही...
कुआं के पास अब शोर मचने लगा था...कोई सिपाही-उपाही ले आये थे लोग, हमरी मोटरसाईकिल में बिठा कर....लाश निकाली जा रही थी और पंचनामा की तैयारी हो रही थी...
अब हमरी दादी, फूफू, चाची सब घर पहुँच गए थे...हम भी नारी मुक्ति आन्दोलन का झंडा लेकर ,बहसबाजी की जुगत में लग गए थे...दादी के सामने बैठ गए ..हम बोले ..दादी अगर साधन किसी से प्रेम करती थी और उससे और उसके प्रेमी से भूल हो ही गयी थी तो ...उनका बियाह कर देना था...साधन को मरने की का ज़रुरत थी...कौन है ऊ लड़का जो ऐसा बेईमान निकला..,कहाँ है ऊ..? सब मुंह में ताला डाले बैठे रहे...वातावरण बहुत ही संदिग्ध और विषाक्त होने लगा था...हम बौराए हुए सबसे पूछते रहे...अरे कौन है ऊ लड़का..हमको बताओ अभी हम उस कमीने की ऐसी-तैसी करते हैं...कोई कुछ नहीं बोला...
अब हम ई जिद्द पकड़ लिए...कि साधन के घर जाना है...का जाने उसके माँ-बाप पर का बीत रही होगी...सब मना करते रहे हमको...लेकिन बात नहीं मानना हमारी प्रवृति जो ठहरी...पहुँच गए हम, अपना शोक व्यक्त करने...हमको निकलते देख दादी चिल्लाई अरे कोई उसके साथ जाओ...ई लड़की बात ही नहीं मानती है...हमरी फूफू हमको जाता देख, पीछे-पीछे चली आई...
साधन के घर का माहौल देख कर हमको लगा कहीं हम गलत घर में तो नहीं आ गए....वहां सबकुछ महा-सामान्य था...बस साधन की माँ का हृदय विदीर्ण दिखा...बाप ऐसा ही बैठा था ,जैसे हर दिन बैठता था...चेहरे पर न सोच, न शोक...ऐसे असामान्य घटना घटित होने पर भी, इतना सामान्य दिखने वाले इंसान से बात भी क्या की जा सकती थी...साधन की माँ इस तरह, छुप कर शोकाकुल थी ,मानो कोई पाप कर रही हो....हम खुदे सकते में आ गए ...कुछ कह नहीं पाए...और लौटने लगे...फूफू फिर फुसुर-फुसुर करने लगी...हम बोले थे न मत जाओ...मगर तुम काहे सुनोगी...! लेकिन फूफू इनको कोई दुःख नहीं है...दीनदयाल चाचा ऐसे बैठे हैं जैसे कुछ हुआ ही नहीं है...बाप हैं ई कि कसाई...! अब फूफू का धीरज टूट गया था...एक नंबर का कसाई है हरामजादा...तुम पूछ रही थी न..कि ऊ लड़का कौन है...जो साधन को धोखा दिया है...उसका बाप ही है कमीना ऊ लड़का...ई सुनते ही हम तो गश खाकर गिरने-गिरने को हो गए....याद आ गया हमको वो रास्ते का घनी छाँव वाला पेड़...जिसके नीचे खड़े होकर हमको हमारे पिता का साया महसूस हुआ था...लगा ऊ पेड़ चरमरा कर हमपर ही गिर गया हो...धम्म से...!
विदीर्ण, महा-सामान्य, घनी छांववाला वृक्ष, वृक्ष का चरमरा कर गिरना.............उत्कृष्ट संस्मरण।
ReplyDeleteकुछ दुःख ऐसे होते हैं, जिनको अभिव्यक्त करने का सामर्थ्य शब्दों में नहीं होता। यह एक ऐसी ही घटना थी।
Deleteधन्यवाद विकेश।
तौबा !
ReplyDeleteकिसी मजलूम का शोषण, बलात्कार, एक इनसान को ज़िबह करने के जैसा ही होता है। फिर चाहे कोई हज़ारों तरह की पूजा, इबादत और तौबा करे, कहाँ कुछ बदलता है !
Deleteजीवन का अपना अलग रंग है रिश्ते हम बनाते हैं नर और नारी ही बनाये हैं इश्वर ने .आपको फुर्सत मिले तो एक नज़र डालें
ReplyDeletehttp://zaruratakaltara.blogspot.in/2013/03/blog-post_20.html यकीन २ पर ...
हालाँकि ये शर्मसार करने वाली घटना है भले ही काल्पनिक होगी ...
मेरी कल्पना इतनी विकृत नहीं है। ये काल्पनिक नहीं है भईया ...सच्ची घटना है , लोग अभी भी जिंदा हैं जिनसे बात की जा सकती हैं|
Deleteमाँ बेटी , भाई बहन, मामा भांजी, ये पवित्र रिश्ता है इन पर ऐसी घटना और सत्य रिश्तों पर से विश्वास उठ जाता है
ReplyDeletenishabd hun
ReplyDeleteITNA SAB KUCHH JAANTAE HUAE AAP KAESE MERI PICHHLI POST "SAMAACHAR "PAR KAMENT DAE PAAYII HONGI SAAREY SAMAY YAHII SOCHTEE RAHII
Deleteरचना जी,
Deleteमुझे इस बात का यकीन है कि इंसान के कर्मों की सज़ा उसे इसी जन्म में मिल जाती है, यहाँ भी ऐसा ही हुआ, साधन के मरने के कुछ वर्षों के बाद ही उसके बाप के ऊपर पता नहीं कैसे एक शाम एक पेड़ ही गिर गया था। उसकी न जाने कितनी हड्डियाँ, कितनी पसलियाँ टूट गईं थी, मालूम नहीं, उसकी कमर भी टूट गयी थी। वो सारी रात चीत्कार करता रहा था। उसके इसी पाप को सबने याद रखा था। गाँव वालों ने सब सुन कर अनसुनी कर दी थी, कोई उसे डॉक्टर के पास नहीं ले गया, आख़िरकार चीत्कार करते करते दूसरी सुबह वह हमेशा के लिए शांत हो गया। ये खबर सुन कर मुझे कितनी शान्ति मिली थी मैं बता नहीं सकती। सोचा था मैंने चलो धरती पर एक बोझ कम हुआ।
ओह!! इस मधुर संस्मरण का ऐसा अंत होना था .
ReplyDeleteऐसे में कहाँ सुरक्षित है लड़की ??
समझो जिस लड़की ने ऐसे हादसों से दो चार हुए बिना जीवन जी लिया, वो परम भाग्यशाली है...भले ही उसने कुछ दूसरा जीवन में पाया हो या नहीं यही उसकी biggest achievement है.
अभी जो भारत में लड़कियों की हालत और उनके लिए जो माहौल है, देख कर लगता है, वहाँ लड़की रूप में जन्म नहीं लेना ही अपने आप में एक उपलब्धि होगी :(
Deleteउफ़ ... जो न हो वो कम है इस दुनिया में ...
ReplyDeleteअगर यही दुनिया है, तो क्या दुनिया है :(
Deleteपुरुषों की महिलाओं के प्रति छोटी-छोटी गैरजिम्मेदाराना बातों की ओर हम ध्यान नहीं देते हैं, लेकिन किसी भी व्यक्ति की मानसिकता छोटी-छोटी बातों से ही बनती है। ब्लॉग जगत में भी ऐसी बातें बहुत हो चुकीं हैं। अब इस बात का भी विरोध करना बहुत ज़रूरी है कि कोई भी महिलाओं के लिए अभद्र टिप्पणी या अभद्र पोस्ट न लिखे।
ReplyDeleteमानसिकता बदलनी है तो फिर इसकी शुरुआत भी होनी ही चाहिए। मैं तो यही कहूँगी, ब्लॉग जगत में महिलाओं के लिए किसी भी तरह की अभ्रद टिप्पणी और अभद्र पोस्ट का पूर्ण रूप से बहिष्कार होना चाहिए।
isii abhiyaan ko lae kar banaaya haen naari blog shuru sae yahii keh rahii hun ki chaliyae ek saath khadhae ho aur bashishkaar karey har us vyakti ko jo kisi bhi stri kae prati niradar ki baat kehtaa haen
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