ये थका-थका सा जोश मेरा, ये ढला-ढला सा शबाब है
तेरे होश फिर भी उड़ गए, मेरा हुस्न क़ामयाब है
ये शहर, ये दश्त, ये ज़मीं तेरी, हवा सरीखी मैं बह चली
तू ग़ुरेज न कर मुझे छूने की, मेरा मन महकता गुलाब है
ये कूचे, दरीचे, ये आशियाँ, सब खुले हुए तेरे सामने
है निग़ाह मेरी झुकी-झुकी, ये ग़ुरूर मेरा हिज़ाब है
है बसा हुआ कोई शऊर है, मेरे ज़ह्न के किसी कोने में
है चमक गौहर की कोई, या नज़र में मेरी आब है
क्यूँ पिघल रही मैं बर्फ़ सी, न चराग़-ओ-आफ़ताब है
अब क्या कहूँ ये क्यूँ हुआ, ये सवाल ला-जवाब है
वो हज़ार इश्क़-ए-चमन सही, मेरी हज़ार दीद-ए-शिकस्त सही
मैं हर क़दम पे कुचल गई, तेरे सामने सारा हिसाब है !
ये दिल कभी तो धड़क गया, कभी बिखर गया गुलाब सा
है ख़ुमार तारी क्यूँ 'अदा', क्या जगा हुआ कोई ख़्वाब है ?
क्यूँ पिघल रही मैं बर्फ़ सी, न चराग़-ओ-आफ़ताब है
अब क्या कहूँ ये क्यूँ हुआ, ये सवाल ला-जवाब है
वो हज़ार इश्क़-ए-चमन सही, मेरी हज़ार दीद-ए-शिकस्त सही
मैं हर क़दम पे कुचल गई, तेरे सामने सारा हिसाब है !
ये दिल कभी तो धड़क गया, कभी बिखर गया गुलाब सा
है ख़ुमार तारी क्यूँ 'अदा', क्या जगा हुआ कोई ख़्वाब है ?
न रोएगी नर्गिस कहीं, न आएगा कोई दीदावर
ये दिन भी अब वो दिन नहीं, और रात ज़ाहराब है
ज़ाहराब=ज़हरीला पानी
जब से तेरे नैना मेरे नैनों से लागे रे ....
ये शहर, ये दश्त, ये ज़मीं तेरी, हवा सरीखी मैं बह चली
ReplyDeleteतू ग़ुरेज न कर मुझे छूने की, मेरा मन महकता गुलाब है------
गजब की अनुभुतीं
बधाई
ज्योति जी,
Deleteआपका आभार !
ये तो ग़ालिबाना अंदाज़ में लिखी हुई प्रतीत होती है !
ReplyDeleteलिखते रहिये।
मजाल साहेब,
Deleteअंदाज़ का तो कोई अंदाजा नहीं मुझे।
बस अंदाज़े से जो अंदाज़ आ जाए, वही अंदाज़ अपना अंदाज़ होता है :)
ये गालिबाना नहीं बहादुर शाह जफ़रि का अंदाज़ है.....
Deleteदी............
ReplyDeleteआज पता नहीं क्यूँ.....
नींद ही नहीं आ रही है
ए पगली सो जा नहीं तो तबियत ख़राब हो जायेगी :)
Deleteसुंदर प्रस्तुति
ReplyDeleteधन्यवाद ओंकार जी।
Deleteउम्दा।
ReplyDeleteधन्यवाद विकेश !
Deleteक्यूँ पिघल रही मैं बर्फ़ सी, जब चराग़-ओ-आफ़ताब नहीं ?
ReplyDeleteअब क्या कहूँ ये क्यूँ हुआ, ये सवाल ला-जवाब है
....लाज़वाब! बहुत उम्दा प्रस्तुति....
कैलाश जी, आपका आभार !
Delete"वो हज़ार इश्क़-ए-चमन सही, मेरी हज़ार दीद-ए-शिकस्त सही
ReplyDeleteहर क़दम पे मैं कुचली गई, तेरे सामने सारा हिसाब है"
खूबसूरत रचना.
सुब्रमनियन जी, आपको हज़ारों शुक्रिया !
Deleteशुक्रिया करम मेहेरबानी यशोदा :)
ReplyDeleteआपका धन्यवाद !
ReplyDeleteबहुत सशक्त यादगार रचना
ReplyDeleteअब तो बस यही कोशिश है :
Deleteरहें न रहें हम ........
वाह बहुत सुन्दर | आभार
ReplyDeleteकभी यहाँ भी पधारें और लेखन भाने पर अनुसरण अथवा टिपण्णी के रूप में स्नेह प्रकट करने की कृपा करें |
Tamasha-E-Zindagi
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धन्यवाद तुषार !
Deleteकिस पंक्ति या किस शब्द पर इंगित करूँ ,बस आदाब करती हूँ :)
ReplyDeleteसाथ में आपकी आवाज़ ......
निवेदिता जी,
Deleteसच्ची भावनाओं को शब्दों की ज़रुरत ही नहीं होती।
आपका स्नेह मिला और क्या चाहिए भला !
ReplyDeleteये थका-थका सा जोश मेरा, ये ढला-ढला सा शबाब है
तेरे होश फिर भी उड़ गए, मेरा हुस्न क़ामयाब है
ये शहर, ये दश्त, ये ज़मीं तेरी, हवा सरीखी मैं बह चली
तू ग़ुरेज न कर मुझे छूने की, मेरा मन महकता गुलाब है--बहुत सुन्दर है
डैश बोर्ड पर पाता हूँ आपकी रचना, अनुशरण कर ब्लॉग को
अनुशरण कर मेरे ब्लॉग को अनुभव करे मेरी अनुभूति को
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खूबसूरत रचना
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