लड़की !
यही तो नाम है हमरा....
पूरे १९ बरस तक माँ-पिता जी के साथ रहे...सबसे ज्यादा काम, सहायता, दुःख-सुख
में भागी हमहीं रहे, कोई भी झंझट पहिले हमसे टकराता था, फिर हमरे
माँ-बाउजी से...भाई लोग तो सब आराम फरमाते होते थे.....बाबू जी सुबह से
चीत्कार करते रहते थे, उठ जाओ, उठ जाओ...कहाँ उठता था कोई....लेकिन हम
बाबूजी के उठने से पहिले उठ जाते थे...आंगन बुहारना ..पानी भरना....माँ का
पूजा का बर्तन मलना...मंदिर साफ़ करना....माँ-बाबूजी के नहाने का इन्तेजाम
करना...नाश्ता बनाना ...सबको खिलाना.....पहलवान भाइयों के लिए सोयाबीन का
दूध निकालना...कपड़ा धोना..पसारना..खाना बनाना ..खिलाना ...फिर कॉलेज
जाना....
और कोई कुछ तो बोल जावे हमरे माँ-बाबूजी या भाई लोग को.आइसे भिड जाते कि लोग त्राहि-त्राहि करे लगते.....
हरदम बस एक ही ख्याल रहे मन में कि माँ-बाबूजी खुश रहें...उनकी एक हांक पर हम हाज़िर हो जाते ....हमरे भगवान् हैं दुनो ...
फिर हमरी शादी हुई....शादी में सब कुछ सबसे कम दाम का ही लिए ...हमरे बाबूजी टीचर थे न.....यही सोचते रहे इनका खर्चा कम से कम हो.....खैर ...शादी के बाद हम ससुराल गए ...सबकुछ बदल गया रातों रात, टेबुलकुर्सी, जूता-छाता, लोटा, ब्रश-पेस्ट, लोग-बाग, हम बहुत घबराए.....एकदम नया जगह...नया लोग....हम कुछ नहीं जानते थे ...भूख लगे तो खाना कैसे खाएं, बाथरूम कहाँ जाएँ.....किसी से कुछ भी बोलते नहीं बने.....
जब
'इ' आये तो इनसे भी कैसे कहें कि बाथरूम जाना है, इ अपना प्यार-मनुहार
जताने लगे और हम रोने लगे, इ समझे हमको माँ-बाबूजी की याद आरही है...लगे
समझाने.....बड़ी मुश्किल से हम बोले बाथरूम जाना है....उ रास्ता बता दिए
हम गए तो लौटती बेर रास्ता गडबडा गए थे ...याद है हमको....
हाँ
तो....हम बता रहे थे कि शादी हुई थी, बड़ी असमंजस में रहे हम .....ऐसे
लगे जैसे हॉस्टल में आ गए हैं....सब प्यार दुलार कर रहा था लेकिन कुछ भी
अपना नहीं लग रहा था.....
दू दिन बाद हमरा भाई आया ले जाने हमको घर......कूद के तैयार हो गए जाने के लिए...हमरी फुर्ती तो देखने लायक रही...मार जल्दी-जल्दी पैकिंग किये, बस ऐसे लग रहा था जैसे उम्र कैद से छुट्टी मिली हो.....झट से गाडी में बैठ गए, और बस भगवान् से कहने लगे जल्दी निकालो इहाँ से प्रभु.......घर पहुँचते ही धाड़ मार कर रोना शुरू कर दिए, माँ-बाबूजी भी रोने लगे ...एलान कर दिए कि हम अब नहीं जायेंगे .....यही रहेंगे .....का ज़रूरी है कि हम उहाँ रहें.....रोते-रोते जब माँ-बाबूजी को देखे तो ....उ लोग बहुत दूर दिखे, माँ-बाबूजी का चेहरा देखे ....तो परेसान हो गए ...बहुत अजीब लगा......ऐसा लगा उनका चेहरा कुछ बदल गया है, थोडा अजनबीपन आ गया है.....रसोईघर में गए तो सब बर्तन पराये लग रहे थे, सिलोट-लोढ़ा, बाल्टी....पूरे घर में जो हवा रही....उ भी परायी लगी ...अपने आप एक संकोच आने लगा, जोन घर में सबकुछ हमरा था ....अब एक तिनका उठाने में डरने लगे.... लगा इ हमारा घर है कि नही !..........ऐसा काहे ??? कैसे ??? हम आज तक नहीं समझे....
यह कैसी नियति ??......कोई आज बता ही देवे हमको ....कहाँ है हमरा घर ??????
रिमझिम गिरे सावन...आवाज़ 'अदा' की...
मार्मिक
ReplyDeleteअपना घर जहाँ जन्म हुआ, पले बड़े हुए और अपने ही माँ बाप को छोड़ कर चले जाना, उसी घर में अजनबी बन जाना। मार्मिक ही तो है, इस दुःख को महसूस करने के लिए बेटी के रूप में जन्म लेना होगा।
Deleteनिभा लिया तो दोनों
ReplyDeleteकितना सटीक जवाब मिला अदा आपको
Deleteअगर लड़की निभा ले तो दो घर हैं यानी घर पाने के लिये किसी भी लड़की के लिये "निभाना" कसोटी हुई और लडको को जन्म जात मिलना तय रहा
और जब लड़का दामाद बना तो आजन्म "मेहमान" कहलाया और मेहमान नवाजी पर उसका हक़ हुआ , उस से तुरंत पूछना बनता हैं " बाथरूम " हो आये तो नाशता लगाया जाए
हाँ निभा तो दिए हैं।
Deleteशायद हमलोगों का जन्म ही सिर्फ निभाने के लिए हुआ है। कभी हम नारियों के जूते में पुरुष अपने पाँव डाल कर सिर्फ एक बार सोचने की कोशिश करेंगे, तो बहुत सारी बातें समझ में आएँगी। कभी पुरुष, नारी को एक मनुष्य का ही दर्ज़ा दे कर देखें। पुरुष गण एक बारकल्पना करें कि बिदाई आपकी पत्नी की नहीं आपकी हो गयी और रातों रात आप अपने घर से निकल कर किसी और के घर में पूरे जन्म के लिए बंद कर दिया गया, जहाँ आपको अपनी जगह बनाने के लिए हर दिन मेहनत करनी है, आप पर सबकी नज़र टिकी हुई है।
शायद ऐसा सोचने से नारी को समाज में थोड़ी इज्ज़त देने की और कोशिश हो। फिर भी ये सच है हम निभा दिए और आगे भी निभायेंगे ही, क्योंकि हम जैसी पैदा ही हुईं हैं सिर्फ निभाने के लिए।
sachi baat
ReplyDeleteसुनिधि जी,
Deleteधन्यवाद !
मार्मिक प्रस्तुति !!
ReplyDeleteयही तो सत्य है हम स्त्रियों के लिए !
Deleteआपका धन्यवाद !
by the way these days the woman issues rock your blog
ReplyDeleteThanks Rachna ji, in-fact they were always there. I am re-posting them :)
Deleteइस समय हम जहाँ पर हैं और जहाँ हमारे कदमों को स्थायित्व देने को हमारे बच्चे साथ हैं वहीं .... सस्नेह :)
ReplyDeleteनिवेदिता जी,
Deleteअब तो यही कहेंगे हम, माँ-बाप से दूर जाने का दुःख कम तो नहीं होता लेकिन हां उसकी आदत हम स्त्रियाँ अपना लेतीं हैं :(
इधर ससुराल उधर मायका
ReplyDeleteविवाहिता जीवन बता किसका
विचित्र चली आ रही रीति
दोनों ओर बांटो सुख-प्रीति
मैंने बहुत पहले एक शेर लिखा था, यहाँ वो दोहराती हूँ :
Deleteहम यहाँ आधे बसे, आधे हैं अब और कहीं
ज़िन्दगी बँट गई पर दूरी मिटाई न गई
सारा जहां आपका.
ReplyDeleteऔर हम ?
Deleteआपका आभार राहुल जी।
कहानी कही पढ़ी लगी और गाना क्या कहने जब भी मुलाकात होगी १०१ रूपया बड़े भाई की जेब में सदा पाओगी बिना संकोच निकाल लेना .....
ReplyDeleteहाँ भईया आपने पहले भी पढ़ी है इसे, रही बात १०१ की तो ऊ हम निकाल ही लेवेंगे :)
Deleteक्या लिखा है......
ReplyDeleteहम औरतन के भाग में यही कुछ
लिख रखा है राम जी नें
खाएँ....पियें..मुटियाएँ बाबूजी के घर में
फिर ठेल दें हमका एक अनजान के ठौर में
सादर
हई देखो, एतना खाओगी तो का करेगा लोग-बाग़ , डाईटिंग का वास्ते भेज दिया अनकर घर में की तानी सूख-साख जाओ अब ..
Deleteहाँ नहीं तो !
वाह! लाजवाब लेखन | मार्मिक और बहुत ही विचारणीय, अभिव्यक्ति विचारों की | पढ़कर प्रसन्नता हुई | आभार
ReplyDeleteकभी यहाँ भी पधारें और लेखन भाने पर अनुसरण अथवा टिपण्णी के रूप में स्नेह प्रकट करने की कृपा करें |
Tamasha-E-Zindagi
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धन्यवाद तुषार !
Deleteहै तो ये पीड़ा ही .....
ReplyDeleteजी हाँ मोनिका जी, ये गहन पीड़ा है और इससे दो-चार होना हम स्त्रियों की नियति :(
Deleteयशोदा जी आपके आ-भारी हैं जी हम :)
ReplyDeleteनारी पीड़ा को उजागर करती विचारणीय पोस्ट.
ReplyDeleteआपका धन्यवाद दीपक जी !
Deleteआपकी रचनाएं हृदयातल तक पैठ बनातीं है।इसने भी...
ReplyDeleteक्या खूब दर्शाया है आपने! जैसे सुध संभाली बस 'पराये घर जाना है तुम्हे..'
वहां पहुंचे-'पराई बेटी आई है',ये और वो दोनो पराये तो अपना कहां?
ये मर्म तो एक लड़की ही समझ सकती है कि 'अपने आप को खोकर' ही उसे दुनियां मे जगह मिलती है।
सादर
वंदना जी,
Deleteजो बात मैं पूरी पोस्ट में कह पायी आपने चार पंक्तियों में कह दी। यह ऐसा दुःख है, जिसके साथ हम स्त्रियाँ पूरी उम्र जीती हैं, और तारीफ की बात ये कि कभी कह नहीं पातीं हैं।
हृदय से आभारी हूँ।