कल एक बहुत ही खूबसूरत फिल्म आ रही थी टी वी पर, 'पिंजर' । यूँ तो कई बार देखा है इस फिल्म को लेकिन हर बार यह फिल्म, मुझे बहुत कुछ सोचने को मजबूर कर देती है । नायिका 'पूरो' की कहानी.....एक स्त्री की स्त्रियोचित संवेदनाओं की उथल-पुथल का, इन्द्रधनुषी शाहकार । रिश्तों, भावनाओं का निहायत खूबसूरती से संजोया हुआ, एक मार्मिक दस्तावेज़ है ये फिल्म। पाप-पुण्य, इंसानियत- हैवानियत, आबरू-बेआबरू, असंतोष, अविश्वास, छल-कपट, धर्मान्धता, बदला और बँटवारे की राजनीति के बीहड़ में रिश्तों का मुरझाना, पनपना और हर विसंगति को अपनाते, दरकिनार करते हुए एक स्त्री के मन में, अपने ही घाती के लिए प्रेम का फूटना, अपने आप में एक करिश्मा तो है लेकिन एक सवाल खड़ा कर सोचने को मजबूर कर ही देता है, आखिर क्यूँ और कैसे, प्रेम संभव हो जाता है, उसी से जिसने उसे कहीं का नहीं छोड़ा होता है ?
एलिजाबेथ स्मार्ट का अपहरण 2002 में हुआ था। 9 महीनों बाद वो मिली। पुलिस ने उसे ढूंढ निकाला और साथ ही उसका अपहरणकर्ता भी गिरफ्तार हुआ। हैरानी इस बात से हुई, कि एलिज़ाबेथ को अपनों के पास और अपने घर सुरक्षित पहुँच जाने के बाद भी, अपने अपहरणकर्ता की सलामती की फ़िक्र थी। ये क्या है ? इसे आप प्रेम कहेंगे या आदत या फिर असुरक्षा में सुरक्षा का अहसास ? या फिर इसे आप स्त्रियोचित गुण ही कहेंगे ?
ऐसी ही एक घटना याद आ रही है जो मेरे बचपन में घटी थी । 'आशामणि' नाम था उसका लेकिन हमलोग, 'आसामनी' ही कहते थे। मोहल्ले की ही लड़की थी, बराबर ही उम्र रही होगी हमारी। तब 14-15 वर्ष रही होगी उसकी उम्र
जिस दिन आसामनी गायब हो गयी थी । मोहल्ले में ये चर्चा, बहुत दिनों चलती रही, आख़िर आसामनी गयी कहाँ ?
जिस दिन आसामनी गायब हो गयी थी । मोहल्ले में ये चर्चा, बहुत दिनों चलती रही, आख़िर आसामनी गयी कहाँ ?
मोहल्ले वालों ने बहुत ढूँढा उसे। उसे नहीं मिलना था, वो नहीं मिली। वैसे भी गरीब की बेटी गायब हो जाए तो 'बोझ उतरने' जैसा ही अहसास होता है परिवार को। परिवार वालों के चेहरों से तो ये भी लगता था कभी-कभी, कहीं आसामनी मिल ही न जाए फिर जो ग्रह कटा है वो फिर झेलना पड़ेगा। कुछ दिनों तक ये चर्चा मोहल्ले में सिर्फ 'अटकल' लगाने के लिए होती रही, बाद में जब सारे 'अटकली विकल्प' ख़त्म हो गए तो चर्चा भी समाप्त हो गयी। धीरे-धीरे, इस घटना की जगह दूसरी घटनाओं ने ले लिए और आसामनी का गायब होना अनगिनत घटनाओं की गर्द में दब कर 'कोल्ड केस' बन गयी। लेकिन, मेरे मन में ये घटना घर कर गयी थी। कारण शायद ये भी हो हमउम्र होने की वजह से, रास्ते में आते-जाते, एक दूसरे से नज़रों का रिश्ता तो था ही। उसका इस तरह गायब हो जाना मेरी नज़रों को खाली कर गया था, किसी एक फ्रेम में ...
आज से तीन साल पहले मैं भारत गयी थी। माँ से मालूम हुआ कि, आसामनी आई हुई है। ये सुनते ही जाने क्यूँ, नज़रों का खाली फ्रेम भरता हुआ लगा था। उसका नाम बिलकुल भी अनजाना नहीं लगा। उसका एकदम से वापिस आना, मुझे कहीं अन्दर एक संतुष्टि का ठहराव दे गया, लेकिन उत्सुकता का उफ़ान भी थमा गया । मैं इतनी बेचैन हो गयी उससे मिलने को कि नहीं रोक पायी खुद को और चल ही पड़ी मैं उससे मिलने।
उसके घर के पास जब पहुंची तो आस-पास कौतुकता भरी नज़रें, मुझ पर टिकी ही रहीं मानों पूछ रहीं हों 'आज कैसे इधर का रास्ता भूल गयी तुम ?' 'ऐसे तो कभी नहीं आती'...पूछा तो किसी ने नहीं लेकिन मैंने ही कह दिया, 'आसामनी से मिलने आये हैं हम'। उसके घर के लोग भाग-भाग का कुर्सी ला रहे थे, और मेरी आँखें, आसामनी को ढूंढ रहीं थीं। कहाँ थी वो इतने दिन ? कैसी दिखती होगी ? क्या हुआ उसके साथ ? दिल में सवालों का भूचाल आया हुआ था। और कलेजा ऐसे धक्-धक् कर रहा था, जैसे सदियों बाद मैं ही वापिस आई हूँ। मेरा इंतज़ार, बस कुछ पलों का ही था और वो सामने आ ही गयी। देखा तो कहीं से भी ये वो आसामनी थी ही नहीं, न पहनावे से, न बोल-चाल से। ठेठ हरियाणवी बोली और ठेठ हरियाणवी परिधान। लेकिन आँखों में वही पुरानी पहचान थी। मैंने उसका हाथ थाम लिया। हाथ थाम कर यूँ लगा था, जैसे मैंने खुद को पा लिया हो। एक बहुत लम्बे, अनकहे, अनबूझे, इंतज़ार का अंत हुआ था, उस दिन।
मेरे पूछने पर जो उसने बताया था, वो कुछ इस तरह था ... वो उस शाम, दूकान गयी थी कुछ लेने। उसकी माँ ने भेजा था। वापसी में अंधेरा, थोडा और घना हो गया था। रास्ते में एक औरत मिली थी, उससे बातें करती रही वो ... कुछ खाने को दिया था उसने। ग़रीब की आशाएँ, हमेशा पेट पर ही ख़त्म होतीं हैं। बस वही खाना उसके लिए मुहाल हो गया। उसके बाद जब, उसकी आँखें खुली, तो ख़ुद को ट्रेन में पाया उसने। जीवन में पहली बार ट्रेन में भी बैठी थी वो। वो औरत उसके साथ ही थी। कुछ कह नहीं पायी वो, न उस औरत से, न ही सहयात्रियों से। बचपन से, डर कर जो रहने को बताया गया था उसे। उसे बोलना तो सिखाया ही नहीं गया था। उसे तो बस यही बताया गया था, लडकियां ज्यादा नहीं बोलतीं, बस वो नहीं बोली।
पता नहीं किन-किन रास्तों से, कहाँ-कहाँ होती हुई, उसकी ज़िन्दगी, कहाँ पहुँच रही थी, उसे कुछ भी मालूम नहीं था।कठपुतली की डोर की तरह, उसके जीवन की डोरी भी, एक हाथ से दुसरे हाथ में, आ-जा रही थी।
अंततोगत्वा, उसे हरियाणा में एक किसान परिवार को बेच दिया गया। उसकी क़ीमत क्या लगी, ये उसे नहीं मालूम। परिवार में चार भाई थे, और एक पिता भी। माँ नाम की 'चीज़' भी थीं वहाँ, लेकिन बस 'चीज़' ही थी वो। खरीद कर या जीत कर लाई गयी 'चीज़' पर तो सबका अधिकार होता ही है।आसामनी पर भी अपने-अपने अधिकार का प्रयोग सबने किया। और बस उसकी ज़िन्दगी की सुबह-शाम उस घर में बदल गयी। दिन भर खेतों में हाड-तोड़ मेहनत, घर का भी काम और फिर रात को .....। खेत से घर और घर से खेत तक की दूरी तय करती हुई उसकी ज़िन्दगी कटने लगी।
सोचती हूँ, कैसे एक बच्ची का अल्हड़पन, रातों-रात 'प्रोमोशन' पाकर उसे औरत बना देता है ? बचपन उम्र के दायरे में नहीं होता, वो तो शरीर के दायरे में होता है। बस एक बार शरीर, उस दायरे से बाहर आ जाए फिर चाहे उम्र कुछ भी हो, बचपन खो जाता है।
ख़ैर, एक ज़िन्दगी की शुरुआत, खरीद-फ़रोख्त से शुरू हुई, फिर वासना की धरातल पर वर्षों घिसटने के बाद , रिश्तों के बीज धीरे-धीरे पनपने लगे और देखते ही देखते आसामनी, उस परिवार के वंशज जनने लगी। उसके चार बच्चे हुए। उस परिवार के सबसे छोटे बेटे की अब वो पत्नी कहाती है। और वही उसे, उसके परिवार से मिलाने रांची ले आया था। मिली मैं, आसामनी के 'पति' से भी, अपनी गर्दन वो उठा नहीं पाया मेरे सामने, न ही नज़रें मिला पाया वो। लेकिन उसकी झुकी हुई नज़रें भी मुझे ठेंगा दिखा रहीं थीं। ये बिलकुल वैसा ही था, जैसे किसी ने किसी निर्दोष का बलात्कार किया हो और फिर उसी लड़की से शादी करके महान बन गया हो। उस आदमी से मिलकर मन खिन्न हो गया था। लेकिन मन में, यह भी आया विश्वास की कोंपलें कहीं तो फूटीं थीं, जो ये ले आया आसामनी को उसके माँ-बाप से मिलाने। मैं घर तो लौट आई लेकिन मन शान्ति और अशांति की जंग में मशगूल था । ये मन भी न, बहुत अजीब है।
दो-चार दिन बाद ही आसामनी बदहवास सी मेरे घर आई। पता चला उसके पति की तबियत ख़राब है। मेरी जानकारी में कोई, अच्छा सा डॉक्टर है तो बता दूँ। उसके आँसू रुकने का नाम नहीं ले रहे थे। मैं फ़ोन में उलझी, उसे हर तरह से ढाढस बंधाने की कोशिश कर रही थी। उससे बार-बार मैं कह रही थी, सब ठीक हो जाएगा। और वो मुझसे कहती जाती थी, 'अगर मेरे आदमी को कुछ हो गया तो, मैं जी नहीं पाऊँगी ??? और मैं आवाक़, उसका मुंह देख रही थी और सोच रही थी ......क्या सोच रही थी ??? पता नहीं मैं क्या सोच रही ...सच कहूँ तो, कुछ सोच ही नहीं पा रही थी ...
क्या है ये ? प्यार, प्रेम, मुट्ठी भर आसमान या धूप का एक टुकड़ा, असुरक्षा में सुरक्षा का अहसास, या फिर पिंजरे में आज़ादी की साँस, .... या फिर, शायद हम औरतें ऐसी ही होतीं हैं ???????
तुम्हीं मेरे मंदिर
समृद्ध लेखनी भावपूर्ण
ReplyDeleteलम्बे, अनकहे, अनबूझे, इंतज़ार का अंत..........नि:शब्द।
ReplyDeleteचपन उम्र के दायरे में नहीं होता, वो तो शरीर के दायरे में होता है, बस एक बार शरीर, उस दायरे से बाहर आ जाए, फिर चाहे उम्र कुछ भी हो....................अंतर्निहित कर लिया।
पूरा संस्मरण गहन और उत्कृष्ट है। और शायद मैंने इसे पूर्व में जनसत्ता के समांतर कॉलम में पढ़ा है। क्या मैं ठीक हूँ?
बहुत सुन्दर प्रस्तुति..!
ReplyDeleteबढ़िया संस्मरण।
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शस्य श्यामला धरा बनाओ।
भूमि में पौधे उपजाओ!
अपनी प्यारी धरा बचाओ!
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पृथ्वी दिवस की बधाई हो...!
@शायद हम औरतें ऐसी ही होतीं हैं ???????
ReplyDeleteहाँ ,ऐसी ही होती हैं. खर पतवार सी ,जिधर भी फेंक दो जड़ें जमा लेती हैं .
नारी की इसी सहनशीलता को वसुधा की उपमा दी गई है वास्तव में हद को पार करनेवाली समस्त अच्छाई बुराई ही बन जाती है ....
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ReplyDeleteवर्तमान का सच गहन अभिव्यक्ति
उत्कृष्ट प्रस्तुति
आग्रह है मेरे ब्लॉग में भी सम्मलित हों
beshak
ReplyDeleteसही लिखा है दीदी आपने वाह
विनत नमन लेखनी के प्रवाह और विषयवस्तु के चयन हेतु
बेहतरीन मनोवैग्यानिक विश्लेषण
ReplyDeleteपता नहीं। शायद हम जानती हैं कि इससे भी बुरा हो सकता था हमारे साथ और कम बुरा होने को ही अपना सौभाग्य मान लेती हैं।
घुघूती बासूती
अगर 'शायद' ही का तकाज़ा है, तो अच्छा ही सोचा जाए … उस स्त्री का वर्तमान सुखद चलता प्रतीत होता है, क्यों खांमखां भूत का स्मरण कर के उसे चौपट किया जाए ... :)
ReplyDeleteलिखते रहिये ...
पता नहीं, पर यह व्यवहार अचम्भित अवश्य करता है।
ReplyDeleteदीदी ये पोस्ट बहुत भावपूर्ण है और मेरे लिए हमेशा संग्रहणीय रहेगी, पिंजर फिल्म भोपाल की ज्योति टॉकीज में देखी थी, यूपीएससी का मेन्स देने के बाद, फिल्म को देखने के बाद बहुत मिश्रित किस्म के भाव थे, एक तरह खुशी थी अच्छा पेपर देकर आने के बाद सुनहरी दुनिया में प्रवेश के सपने की और दूसरी ओर विभाजन में बिसरा दी गई लाखों लड़कियों का दुख।
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