प्रातः जब मैं जगी
मन कोयला बन
धधक उठा
गीत ठिठक गए
और जीवन !
अभिशप्त सा, खिंचा-खिंचा
निश्वास, स्पंदन धीमा,
नैनों में पावस था,
धरा करुण-करुण थी और
गगन में सावन था
जीवन अब मरण था
हर्ष अब कढ़ा था
निष्प्राण तन तरु की
कथा अधूरी रह गई
उम्र बनी,
उम्र बनी,
विषम, दुर्गम, दुरूह,
सुख, यौवन सब अंतर्ध्यान,
मन कोकिला मूक थी,
मन कोकिला मूक थी,
था बस
विरह, संदेह, अविश्वास में तर,
विरह, संदेह, अविश्वास में तर,
फैला हुआ
जीर्ण सा आँचल मेरा
कई प्रश्न लिए हुए,
जीर्ण सा आँचल मेरा
कई प्रश्न लिए हुए,
बोलो न !
क्यों, कैसे, कब ?
हृदय फटा है, परन्तु डटा है
क्यों, कैसे, कब ?
हृदय फटा है, परन्तु डटा है
मैं जीवन समर लड़ी हूँ
आज भी खड़ी हूँ
नहीं किया पलायन,
माँ थी मैं,
परन्तु तुम, विश्वासघाती !!
हारे तुम हो
सिद्धार्थ !!
कैसे मोक्ष पाओगे ?
ऋणी हो तुम मेरे
नहीं मुक्त करुँगी तुम्हें, कभी भी,
याद रखना
मैं हूँ यशोधरा
तुम्हारे राहुल की माँ....
बहुत ही सुन्दर भावपूर्ण प्रस्तुति,आभार.
ReplyDeleteराजेन्द्र जी,
Deleteआपका आभार !
मैं आपके ब्लॉग में जब भी जाती हूँ , वाईरस होने की सूचना मिलती है और ब्लॉग बंद हो जाता है। कृपया देख लीजिये क्या बात है।
धन्यवाद !
हृदय फटा है, परन्तु डटा है
ReplyDeleteमैं जीवन समर लड़ी हूँ
आज भी खड़ी हूँ
नहीं किया पलायन,
माँ थी मैं,
परन्तु तुम, विश्वासघाती !!
किसी अपने का विश्वशघाती निकलना बहुत दर्द देता है. बेहद अच्छा लिखा है
मेरे ब्लॉग पर भी आइये ..अच्छा लगे तो ज्वाइन भी कीजिये
पधारिये आजादी रो दीवानों: सागरमल गोपा
बिलकुल सही कहा आपने, ग़ैरों के दिए तकलीफ झेलना आसान है, अपनों की दी हुई छोटी से चोट भी झेलना बहुत बहुत मुश्किल है।
DeleteThanks Yashwant !
ReplyDeleteबहुत खूब हर एक शब्द चीख रहे गज़ब वाह...!!
ReplyDeleteजब मन व्यथिक हो शब्द चीख ही पड़ते हैं :(
Deleteसुंदर भाव। मैं भी ये सोचता हूं कि माता पिता का रिण केवल पुत्र कुछ हद तक उनकी सेवा कर के चुका सकता है।
ReplyDeleteसही कहते हैं आप किन्तु कुछ ऋणों से मुक्त नहीं हुआ जा सकता।
DeleteBehad satik air sashakt rachna
ReplyDeleteRamram
आपको पसंद आया ताऊ जी, हम खुशकिस्मत भये।
Deleteसीता राम सीता राम !
sundar bhav yashodhara ka dard kisi ne nahi samjha , yadi vo tyag nahi karti to aaj siddarth buddh nahi bante lekin iske badle yashodhara ko kitne samajik taane sunne pade honge ............
ReplyDeleteयुग कोई भी हो, और कोई भी नारी हो, ताने, त्याग, त्याज्य, ताड़न, नारी की बस यही नियति है :(
Deleteगहरी भावपूर्ण प्रस्तुति ...
ReplyDeleteनासवा साहेब,
Deleteशुक्रिया, मेहेरबानी !
बेहद विडंबनास्पर्शी।
ReplyDeleteहाँ, यही कह कर तसल्ली मिलती है, वर्ना यशोधरा के प्रश्न तो उत्तरहीन ही रहे होंगे शायद ।
Deleteधन्यवाद !
एक बार फिर गहरे भाव लिए पुनर्प्रकाशित रचना पढना बहुत अच्छा लगा..
ReplyDeleteकविता जी,
Deleteआपको पसंद आया, हृदय से आभारी हूँ।
एक गतिमान, एक है स्थिर, किसको मान. किसको अभिमान?
ReplyDeleteबहुत सुन्दर ....प्रेरक चिन्तन
ReplyDeleteमाँ थी मैं,
परन्तु तुम, विश्वासघाती !!
हारे तुम हो
सिद्धार्थ !!
कैसे मोक्ष पाओगे ?
ऋणी हो तुम मेरे
नहीं मुक्त करुँगी तुम्हें, कभी भी,
याद रखना
मैं हूँ यशोधरा
तुम्हारे राहुल की माँ....