जंगल जैसे लोग
झेल नहीं पाते,
घबराते हैं
कहीं चीड़ों के झुरमुट में
चाँदनी न बिखर जाए,
और वो साँप सी रेंगती
झूठी ईमानदारी की पटरियाँ,
जिनपर
काहिली के मंसूबे
सफ़र करते हैं,
अपने मकसद और मुक़ाम पर
पहुँचने से पहले
पकड़े न जाएँ,
इसलिए,
इसलिए,
सबकी नज़रें बचाकर
लीपते हैं दंभ से,
ज्ञान की ज़मीन
और लगाते हैं चाटुकारिता
के रंग-ओ-रोगन,
और लगाते हैं चाटुकारिता
के रंग-ओ-रोगन,
पर, उनकी अपनी ही
छिद्रान्वेषी कोशिशें
उसे थोथा कर देतीं हैं
और तब ग़ुलाम
हुई कुंठाएं,
चेहरे बदल-बदल कर
मोहने की कोशिश में
लग जातीं हैं,
टिके रहने के लिए...
अब, वर्चस्व तो बचाना है न !
लग जातीं हैं,
टिके रहने के लिए...
अब, वर्चस्व तो बचाना है न !
आख़िर,
जंगल का भी अपना, क़ानून तो होता ही है....!!
जंगल का भी अपना, क़ानून तो होता ही है....!!
सबकी नज़रें बचाकर
ReplyDeleteलीपते हैं दंभ से,
ज्ञान की ज़मीन
बहुत सुन्दर चित्रण, भाव गज़ब के
ये बहुत सही कहा कि सीधी सच्ची बाते लोग झेल नहीं पाते ...
ReplyDeleteसीधी सच्ची बातें ही क्यूँ ....सीधे सच्चे लोग भी कहाँ ....जुट जाते हैं सब उनकी स्वाभाविकता का गला घोंटने ...
करके बर्बाद फूलों सा कोमल आशियाँ
पूछते हैं लोग ...
बदल गया है क्यों मौसम का मिजाज़ ....!!
जंगल का ही तो कानून होता है ....सभ्यताओं का बचा कहाँ है ...आगे बढ़ने की होड़ में लाशें बिछाये जाते हैं और उन लाशों की सीढियों पर कदम रखा कर बढ़ते जाते हैं ....
शानदार और सटीक बात कह दी!!
ReplyDeleteSundar kavitaa ada ji,
ReplyDeleteseedhee sachchee baat
jangal jaise log jhel nahee paate... waah !!
"अपने मकसद और मुक़ाम पर
ReplyDeleteपहुँचने से पहले
पकड़े न जाएँ,
इसलिए,
सबकी नज़रें बचाकर
लीपते हैं दंभ से,
ज्ञान की ज़मीन"
सच्चाई जाहिर होकर ही रहती है।
आजकल के माहौल को बयां करती प्रस्तुति।
और जंगल के कानून का पालन करने वालों को जब कभी उनकी भाषा में प्रत्युत्तर मिलेगा, वही सभ्य कानून की दुहाई देते फ़िरेंगे।
जंगल का भी अपना, क़ानून तो होता ही है....!!
ReplyDeleteजंगल का कानून शक्ति पर आधारित होता है।
जितने भयभीत लोग,उतना बड़ा गुट,
असुरक्षा की भावना से ग्रसित्।
बहुत अच्छी कविता बहना
अच्छी मानवीय सोच ,संवेदनाओं और संघर्ष से उपजे विचारों को कविता के रूप में श्रेष्ठ प्रस्तुती के लिए धन्यवाद / आज नैतिकता और मानवता को बचाने के लिए एकजुट होने की जरूरत है /आशा है आप इसी तरह ब्लॉग की सार्थकता को बढ़ाने का काम आगे भी ,अपनी अच्छी सोच के साथ करते रहेंगे / ब्लॉग हम सब के सार्थक सोच और ईमानदारी भरे प्रयास से ही एक सशक्त सामानांतर मिडिया के रूप में स्थापित हो सकता है और इस देश को भ्रष्ट और लूटेरों से बचा सकता है /आशा है आप अपनी ओर से इसके लिए हर संभव प्रयास जरूर करेंगे /हम आपको अपने इस पोस्ट http://honestyprojectrealdemocracy.blogspot.com/2010/04/blog-post_16.html पर देश हित में १०० शब्दों में अपने बहुमूल्य विचार और सुझाव रखने के लिए आमंत्रित करते हैं / उम्दा विचारों को हमने सम्मानित करने की व्यवस्था भी कर रखा है / पिछले हफ्ते अजित गुप्ता जी उम्दा विचारों के लिए सम्मानित की गयी हैं /
ReplyDeleteजंगल जंगल बात चली है, पता चला है,
ReplyDeleteअरे,बेशर्मी के बुरके पहनकर,
ब्लॉगिंग के Fool खिले हैं,Fool खिले हैं...
काहे का जंगल, काहे का समाज और काहे के क़ानून...
जय हिंद...
behtar hai
ReplyDeleteबिल्कुल सही ......जंगल का अपना भी कानून होता है ......बेहतरीन रचना
ReplyDeleteबहुत ही सधे लहजे में सटीक बात कही गई है. बहुत शुभकामनाएं.
ReplyDeleteरामराम.
दुखी होऊगे, सरल हिय, बसहुँ त्रिभंगी लाल ।
ReplyDeleteसीधी सच्ची बातें,
ReplyDeleteजंगल जैसे लोग
झेल नहीं पाते,
घबराते हैं
कहीं चीड़ों के झुरमुट में
चाँदनी न बिखर जाए,
और वो साँप सी रेंगती
झूठी ईमानदारी की पटरियाँ,
जिनपर
काहिली के मंसूबे
सफ़र करते हैं,
बहुत सुन्दर रचना!
टिके रहने के लिए...
ReplyDeleteअब, वर्चस्व तो बचाना है न !
आपने एकदम सही लिखा है ... वैसे सच तो यह है कि हर तरफ केवल वर्चस्व बचाने की जंग चल रही है !
जंगल का भी अपना, क़ानून तो होता ही है....!!
ReplyDeleteबहुत सुन्दर रचना! शुभकामनाएं!
ReplyDeleteअब तो चलता ही जंगल का कानून है,(??मै)इंसानो का कानून कहा बचा है.
ReplyDeleteबहुत सुंदर लिखा धन्यवाद
सबकी नज़रें बचाकर
ReplyDeleteलीपते हैं दंभ से,
ज्ञान की ज़मीन
क्या बात है अदा जी. बहुत सुन्दर.
और तब ग़ुलाम
ReplyDeleteहुई कुंठाएं,
चेहरे बदल-बदल कर
मोहने की कोशिश में
लग जातीं हैं,
बहुत गहरी बात कह दी है आज की रचना में....बधाई
अपने मकसद और मुक़ाम पर
ReplyDeleteपहुँचने से पहले
पकड़े न जाएँ,
इसलिए,
सबकी नज़रें बचाकर
लीपते हैं दंभ से,
ज्ञान की ज़मीन
और लगाते हैं चाटुकारिता
के रंग-ओ-रोगन
क्या बात है!!
सुन्दर रचना !
ReplyDelete@ टिके रहने के लिए...
ReplyDeleteअब, वर्चस्व तो बचाना है न !
--------- यह तो वह खूब जानते हैं और इसीलिये अच्छे-अच्छे शब्दों पर
करते हैं हमला ! अपनी कुंठा को ढंकने के लिए ! 'वर्चस्व' को सकुंठ बनाए
रखने के लिए ! पूरे माहौल को अशांत बनाने के बाद 'शान्ति' का छद्म-जाप
कमो-बेश ऐसी ही कुचेष्टा की अभिव्यक्ति है ! 'शान्ति' शब्द को भी लज्जा आ
रही होगी , अयोग्य प्रयोक्ता के हांथों प्रयुक्त होकर !
@ घबराते हैं
कहीं चीड़ों के झुरमुट में
चाँदनी न बिखर जाए,
और वो साँप सी रेंगती
झूठी ईमानदारी की पटरियाँ,
जिनपर
काहिली के मंसूबे
सफ़र करते हैं,
अपने मकसद और मुक़ाम पर
पहुँचने से पहले
पकड़े न जाएँ,
----------- भाव स्थिति ने अद्भुत शब्द-संघति अख्तियार की है ! और
'' वो साँप सी रेंगती / झूठी ईमानदारी की पटरियाँ '' - क्या खूबसूरत चयन
है ! तन्मय-प्रवाह में ही ऐसी पंक्तियाँ निकलती हैं ! आपके द्वारा लिखी गयी
बेहतरीन कविताओं में रखता हूँ इस कविता को !
................ आभार !
junjal ka kanoon..aacha laga
ReplyDeleteसच्चाई जाहिर होकर ही रहती है।
ReplyDeleteमिलावट इस क़दर शामिल हुई है जिंदगानी में,
ReplyDeleteकि खालिस दूध से पेचिश है, घी से बाँस आती है,
हमें भी गर्क कर देनी पड़ीं, सच्चाइयां अपनी
कहाँ अब अहले-दुनिया को खुलूसी रास आती है
मिलावट इस क़दर शामिल हुई है जिंदगानी में,
ReplyDeleteकि खालिस दूध से पेचिश है, घी से बाँस आती है,
हमें भी गर्क कर देनी पड़ीं, सच्चाइयां अपनी
कहाँ अब अहले-दुनिया को खुलूसी रास आती है