ये दुनिया की किताब भी क्या किताब है हर चेहरा एक नकाब है चेहरे दर चेहरे ओढ़े मुखौटे सिर्फ हंसी के नहीं अपनापन के भी ... सरलता और सहजता तो हंसी की पात्र रही है ....तो क्यों ना ओढें लोग मुखौटे ...कौन मूर्ख बने रहना चाहता है हमारे सिवा.... :):)
wow ! अदाजी ! आप तो छा गयी हैं ! बहुत ही बढ़िया व्यंग कविता लिखी है आप ! सच है की आज इन्सान अपने असली भाव भी दिखाने से डरता है ... और कई हैं जो दिखाना चाहते भी नहीं हैं !
अदा जी !! मुखौटे तो मुखौटे ही हैं ...चाहे हँसी के हों या रोने के ...मुख्य मुद्दा तो मरती हुई मानवीय सम्वेदनाओं को बचाने का है ...जो मात्र मुखोटे हटा कर वास्तविक चेहरों को देखने के साहस से ही जिंदा रह सकती है ।
आभार
अब आप तो हमें पढ़ती नहीं हैं ...खैर हम तो जब समय मिलता है चले आते हैं आपकी सम्वेदनाओं का संस्पर्श पाने ...
झूठी हंसी ओढे हैं वो और सखी बात करती हैं झूठे अपने पन की.. कोई किसी को दगा देता नही.. कुछ वक़्त की चोटे हैं.. कुछ हालात की गर्दिश.. समझ लो इक-दूजे को अपना.. मन के मैल हटा सब को बना लो अपना.
अदा जी, इन्नी चगीं comment लिखी सी त्वाडी पिछली Post दे उत्ते!फ़ेर भी तुस्सी नहीं आये मेरे ब्लोग पे.माना Blog नहीं ब्लोगडा है, फ़िर भी एक भिजिट per post तो बनता है नूं! rgds!
पलायन से हट
ReplyDeleteसामना का सामर्थ्य
जब आ सकेगा
बदल जायगा
सब कुछ..!
आभार..!
ये दुनिया की किताब भी क्या किताब है
ReplyDeleteहर चेहरा एक नकाब है
चेहरे दर चेहरे ओढ़े मुखौटे
सिर्फ हंसी के नहीं
अपनापन के भी ...
सरलता और सहजता तो हंसी की पात्र रही है ....तो क्यों ना ओढें लोग मुखौटे ...कौन मूर्ख बने रहना चाहता है हमारे सिवा.... :):)
"हंसो आज इतना कि इस शोर में,
ReplyDeleteसदा इन दिलों की सुनाई न दे"
आभार
अदा जी!
ReplyDeleteइस व्यंग्य की धार बहुत पैनी है!
बेहतरीन धारदार रचना
ReplyDeleteएक मुखौटा मुझे भी चाहिये
कहाँ मिलता है !!!
wow ! अदाजी ! आप तो छा गयी हैं ! बहुत ही बढ़िया व्यंग कविता लिखी है आप ! सच है की आज इन्सान अपने असली भाव भी दिखाने से डरता है ... और कई हैं जो दिखाना चाहते भी नहीं हैं !
ReplyDeleteमुखोटों के शहर में...
ReplyDeleteगुम सा जाता हूँ मैं...
खुद को खुद से...
अजनबी पाता हूँ मैं...
शायद इससे ही हँसने की आदत पड़ आए, और एक दिन मुखौटे पहनने भी छोड़ दें।
ReplyDeleteअद्भुत।
अदा जी !! मुखौटे तो मुखौटे ही हैं ...चाहे हँसी के हों या रोने के ...मुख्य मुद्दा तो मरती हुई मानवीय सम्वेदनाओं को बचाने का है ...जो मात्र मुखोटे हटा कर वास्तविक चेहरों को देखने के साहस से ही जिंदा रह सकती है ।
ReplyDeleteआभार
अब आप तो हमें पढ़ती नहीं हैं ...खैर हम तो जब समय मिलता है चले आते हैं आपकी सम्वेदनाओं का संस्पर्श पाने ...
हँसी के मुखौटे
ReplyDeleteबिकते - आप की इंगित सहस्रधारा सी है।
हँसी स्वाभाविक नहीं, खरीदी बेंची जाती है - वह भी मुखौटों के रूप में।
शहरयार की ग़जल याद आ गई:
'सीने में जलन आँखों में तूफान सा क्यों है
इस शहर में हर शख्स परेशान सा क्यों है'
मुखौटों के कारण ही आईना हमें देख कर हैरान होता रहा है।
बहुत पैना कटाक्ष है.
ReplyDeleteरामराम.
कोई हाथ भी न मिलाएगा जो गले मिलोगे तपाक से,
ReplyDeleteये अजीब मिज़ाज का शहर है ज़रा फ़ासले से मिला करो...
बशीर बद्र साहब अब इन मुखौटों को देख कर क्या कहना चाहेंगे...
जय हिंद...
ऐसे ही मुखौटे तो रोज देखते हैं, सुबह से शाम तक पर इनके पीछे मंतव्य कुछ और ही छिपा होता है।
ReplyDeleteलाजवाब प्रस्तुती .....
ReplyDeletemere wardrob me
ReplyDeletekapdon ki jagaz
tange hain chehre...
jinhen har pahar badal leta hoon
बेहतरीन व्यंग्य।
ReplyDeleteझूठी हंसी ओढे हैं वो
ReplyDeleteऔर सखी बात करती हैं
झूठे अपने पन की..
कोई किसी को दगा देता नही..
कुछ वक़्त की चोटे हैं..
कुछ हालात की गर्दिश..
समझ लो इक-दूजे को अपना..
मन के मैल हटा
सब को बना लो अपना.
अदा जी,
ReplyDeleteइन्नी चगीं comment लिखी सी त्वाडी पिछली Post दे उत्ते!फ़ेर भी तुस्सी नहीं आये मेरे ब्लोग पे.माना Blog नहीं ब्लोगडा है, फ़िर भी एक भिजिट per post तो बनता है नूं!
rgds!
सच,अब हंसी भी निश्छल नहीं रही।
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