लोग सताए हुए हैं
मत उलझो इनसे
कुछ भी कर जायेंगे
प्यार की आदत नहीं इनको
इतना दोगे तो मर जायेंगे
खोल चढ़े हुए चेहरों में अमावस की रात है जिसको देखते ही
सच्चाई की नदी उतर जाती है
फिर चाहो कि न चाहो
नकाबों के हाथों एक बार फिर इंसानियत मर जाती है ....
मत उलझो इनसे
कुछ भी कर जायेंगे
प्यार की आदत नहीं इनको
इतना दोगे तो मर जायेंगे
खोल चढ़े हुए चेहरों में अमावस की रात है जिसको देखते ही
सच्चाई की नदी उतर जाती है
फिर चाहो कि न चाहो
नकाबों के हाथों एक बार फिर इंसानियत मर जाती है ....
नकाबों के हाथों
ReplyDeleteएक बार फिर
इंसानियत मर जाती है ....
बहुत ही संवेदनशील कविता!
लोगों का इतना कसूर है भी नहीं,
ReplyDeleteबहुत समय के भूखे को एकदम से भरपेट खाना देने पर अपच भी हो सकती है।
बहुत मार्मिक कविता है, और चित्र भी जैसे की सच्चाई की नदी के उतर जाने के बाद क्या कुछ रह जाता है, इस बात को बखूबी बयान करता है।
पर इन्सानियत मरेगी नहीं, मर सकती भी नहीं, इत्मीनान रखिये।
कहां से ले आती हैं आप इतना कुछ?
आभार
इतना दोगे तो मर जायेंगे'
ReplyDeleteजो कुछ छीना है उसी में से तो कुछ दे रहे हैं.
पर उनको तो देखिये वे कहाँ कुछ ले रहे हैं.
सताये हुए की व्यथा यही है
Bahut Badhiya abhivyakti didi.. gahra arth simete hue...
ReplyDeleteबहुत गहरी रचना!! बधाई.
ReplyDeleteनकाब के हाथों इंसानियत मर जाती है ...
ReplyDeleteबात तो ठीक ही है ...!!
प्यार की जिनको आदत नहीं ...
इतना दोगे तो मर जायेंगे ...
सही ...
nice
ReplyDeleteसताए हुए लोगों को तलाश किस चीज़ की है..रह-रह कर टीसते मन को जरूरत किसकी है.. प्यार की ही न !
ReplyDeleteप्यार बे-आदतन औचक ही आ कर छा जाने वाली खूबसूरत अनुभूति है ! और इतना-उतना तो कुछ भी नहीं उसमें ! सताए हुए लोगों को झलकाइये तो प्यार ! कुछ भी कर जाएंगे !
पोस्ट की संवेदना से छेड़छाड़ तो नहीं हो गई ? खैर.. आपकी दर पे हर हाल अच्छा है !
बहुत सुन्दर रचना ! वैसे भी आजकल इंसानियत रही कहाँ ? कबके मर चुकी है । आपने सच लिखा है, प्यार की अब आदत नहीं रही । ढोंग की आदत हो गयी है ।
ReplyDeleteप्यार की आदत नहीं इनको
ReplyDeleteइतना दोगे तो मर जायेंगे
हम तो बस इसी में डूबे हुए हैं ।
खोल चढ़े हुए चेहरों में
ReplyDeleteअमावस की रात है
जिसको देखते ही
सच्चाई की नदी उतर जाती है
...vaah!
--सताए हुए लोगों के साथ उलझना जितना खतरनाक है उतना ही संवेदना प्रकट करना।
प्यार करो मगर यह ज़ताने का प्रयास मत करो कि प्यार करते हैं।
...यह कविता संवेदना को झकझोर देने वाली अभिव्यक्ति है।
हमेशा की तरह उम्दा रचना..बधाई.
ReplyDeleteबहुत ही संवेदनशील कविता!
ReplyDeleteitni samvedna...waah...bilkul satya kaha..
ReplyDeletehttp://dilkikalam-dileep.blogspot.com/
संवेदनशील रचना...........
ReplyDeletehttp://rajdarbaar.blogspot.com
बहुत बढिया अभिव्यक्ति।
ReplyDeleteAah! Yah bhi kaisa saty kai!
ReplyDeleteअमावस की रात है जिसको देखते ही
ReplyDeleteसच्चाई की नदी उतर जाती है
फिर चाहो कि न चाहो
नकाबों के हाथों एक बार फिर इंसानियत मर जाती है ........दी सब कुछ नकली हैं कम्बख़त .........पर इश्क़ ज़िन्दा तो रहेगा नफ़रत के तमाम उफनते हुयी सैलाबों के बाद
Bahut hi sundar rachna ...
ReplyDeleteप्यार की आदत नही.............कुछ समय बाद तो शायद प्यार ही नही रहेगा.बहुत बढिया लिखा आपने सच को शब्दों में उतार दिया.
ReplyDeleteनकाबों के हाथों
ReplyDeleteएक बार फिर
इंसानियत मर जाती है ....
bahut khub....Ada Ji
बहुत सुंदर लिखा है आपने.
ReplyDeleteतस्वीर ने कविता का प्रभाव दुगना कर दिया ।
ReplyDeleteमार्मिक अदा जी ।
नकाबों के हाथों
ReplyDeleteएक बार फिर इंसानियत
मर जाती है ....
काली रात की हर बात है काली...
ReplyDeleteकुछ टंटों की वजह से नियमित कमेंट नहीं कर पा रहा...कारण अपनी कल की पोस्ट में स्पष्ट करने वाला हूं...
जय हिंद...
लाजबाब ।
ReplyDeleteप्यार नहीं, अधिकार की आदत है इन्हें ।
ReplyDeleteread many of your posts today.....you write so well ...it has been a pleasure to read your work.
ReplyDeletehnm...
ReplyDeletebahute nice...
aapne achchhaa likha hai ada ji..
ReplyDeleteआता गया क्रमशः पीछे की प्रविष्टियों पर और यहाँ ह-म-श टुनटुन
ReplyDeleteभी दिखने लगे .. कहने के बाद इतनी सफाई काहे देने लगते हैं ई बनारसी बाबू ! :)
........
हालात पत्थर बना देते हैं जिनको वे शायद इतने सरल नहीं रह जाते , उनमें सरलता
पनपाने वाला कोई शूरमा ही होता है , पर भीतर के भीतर के भीतर कहीं होता है वह सोता
जहां स्नेह की धार रहती है , कौन पहुँच सकता है वहाँ तक ? .. विरला कोई शूरमा ...
उस अमावास की रात के वैभव को ( सघन दुःख के सुख-बीज को ) जीने के लिए
वीरता ही चाहिए न !
आभार !