कल से एक एक कहावत है या मुहावरा मेरे दिमाग में उमड़ घुमड़ रहा है....'टाँग अड़ाना' ..सुनने में कितना आसान लगता है...सोचो तो एक दृश्य सामने आता है ...किसी ने अपनी टाँग आड़ी कर के लगा दी...अब ऐसा है कि किसी की टाँग अगर हमारे सामने आ जाए तो ज़ाहिर सी बात है ..हमारी गति रुक जायेगी.....अब आप कल्पना करके देखिये ज़रा ...आपने अपनी टाँग किसी के सामने कर तो उसकी तो ऐसी की तैसी हो जायेगी ना....!!
ज़रा एक बार फिर इसे सोचें ...आपके दिमाग में एक शारीरिक भंगिमा उभर आएगी...एक बिम्ब बनेगा.....इसे सोचने से दृश्य सामने आया कि आपने अपनी टाँग किसी के सामने कर दी...लेकिन क्या सचमुच ऐसा है...दृश्य और अर्थ में काफी फर्क है...कोई तालमेल नहीं....यह सिर्फ सुनने में ही आसान लगेगा लेकिन इसका अर्थ बहुत गहन है...इसी से मिलता जुलता एक और दृश्य अभी अभी दृष्टिगत हुआ है...लंगी मारना....इसकी अगर विवेचना करें तो जो दृश्य सामने आता है...उसमें एक ने दूसरे की टाँग में अपनी टाँग फ़सां दी और दूसरा व्यक्ति चारों खाने चित्त...अब ज़रा दोनों कहावतों पर गौर करें तो पायेंगे कि...टाँग अड़ाना एक स्थिर प्रक्रिया है जबकि लंगी मारना एक गतिमान प्रक्रिया...
अब इस महाशास्त्र की विवेचना को जरा आगे लिए चलते हैं और सोचते हैं कि आखिर इस 'टाँग अड़ाने' का सही अर्थ क्या है...तो इसका सार्वजनिक अर्थ है... अनावश्यक हस्तक्षेप करना...आप चाहे न चाहें और ज़रुरत हो कि न हो....आपने अपनी टाँग अड़ा दी.....यह प्रक्रिया व्यक्ति विशेष की पसंद-नापसंद पर भी निर्भर है...अब कोई ज़रूरी नहीं कि आप जिस विषय को 'टाँग अडाऊ' सोच रहे हैं ..मैं भी उसे वैसा ही सोचूं...यह पूरी तरह टाँग अड़ाने वाले की इच्छा, सुविधा और ज़रुरत पर निर्भर करता है....
कोई ज़रूरी नहीं है कि... यह एक ज़रुरत हो, यह एक शौक़ भी हो सकता है...या फिर आदत या फिर बिमारी...हाँ शौक़ जब हद से बढ़ जाए तो यह एक बीमारी का रूप ले लेता है...और तब बिना टाँग अड़ाए... उस व्यक्ति को आराम ही नहीं मिल पाता है....
ज़रा एक बार फिर इसे सोचें ...आपके दिमाग में एक शारीरिक भंगिमा उभर आएगी...एक बिम्ब बनेगा.....इसे सोचने से दृश्य सामने आया कि आपने अपनी टाँग किसी के सामने कर दी...लेकिन क्या सचमुच ऐसा है...दृश्य और अर्थ में काफी फर्क है...कोई तालमेल नहीं....यह सिर्फ सुनने में ही आसान लगेगा लेकिन इसका अर्थ बहुत गहन है...इसी से मिलता जुलता एक और दृश्य अभी अभी दृष्टिगत हुआ है...लंगी मारना....इसकी अगर विवेचना करें तो जो दृश्य सामने आता है...उसमें एक ने दूसरे की टाँग में अपनी टाँग फ़सां दी और दूसरा व्यक्ति चारों खाने चित्त...अब ज़रा दोनों कहावतों पर गौर करें तो पायेंगे कि...टाँग अड़ाना एक स्थिर प्रक्रिया है जबकि लंगी मारना एक गतिमान प्रक्रिया...
अब इस महाशास्त्र की विवेचना को जरा आगे लिए चलते हैं और सोचते हैं कि आखिर इस 'टाँग अड़ाने' का सही अर्थ क्या है...तो इसका सार्वजनिक अर्थ है... अनावश्यक हस्तक्षेप करना...आप चाहे न चाहें और ज़रुरत हो कि न हो....आपने अपनी टाँग अड़ा दी.....यह प्रक्रिया व्यक्ति विशेष की पसंद-नापसंद पर भी निर्भर है...अब कोई ज़रूरी नहीं कि आप जिस विषय को 'टाँग अडाऊ' सोच रहे हैं ..मैं भी उसे वैसा ही सोचूं...यह पूरी तरह टाँग अड़ाने वाले की इच्छा, सुविधा और ज़रुरत पर निर्भर करता है....
कोई ज़रूरी नहीं है कि... यह एक ज़रुरत हो, यह एक शौक़ भी हो सकता है...या फिर आदत या फिर बिमारी...हाँ शौक़ जब हद से बढ़ जाए तो यह एक बीमारी का रूप ले लेता है...और तब बिना टाँग अड़ाए... उस व्यक्ति को आराम ही नहीं मिल पाता है....
कुछ लोग तो टाँग अड़ाना अपनी राष्ट्रीय, या सामाजिक जिम्मेवारी भी समझते हैं...बल्कि इस काम के लिए वो अपना काम-धाम छोड़ कर पूरी तन्मयता के साथ 'टाँग अड़ाने' की नैतिक जिम्मेवारी निभाते हैं...
टाँग अड़ाने की भी अपनी एक शैली है...कुछ तो सीधा अपनी टाँग अड़ा देते हैं और फिर उनकी ख़ुद की टाँग अथवा शरीर के अन्य अंगों पर भी मुसीबत आ जाती है....इसलिए इस प्रक्रिया में सावधानी की बहुत आवश्यकता होती है....
कुछ लंगी मारने में विश्वास करते हैं...लंगी मारना ज्यादा दिमागी प्रक्रिया है ...इसकी सफलता के चांस भी बहुत ज्यादा होते हैं....लंगी मारना एक स्वार्थ परक प्रक्रिया है....और बहुत कम लोग लंगी मारने में पारंगत होते हैं....लेकिन टाँग अड़ाना एक कलात्मक प्रक्रिया है...और इसमें अधिक कलाबाजी देखने को मिलती है...
टाँग अड़ाना विशुद्ध मानवीय वृति है ...और जैसा मैंने बताया ...यह एक कला है....और अधिकांश इस कला के कलाबाज़....जब यह अपनी सीमा पार कर जाए तो लोग यही कहते हैं ...'इसे तो टाँग अड़ाने की बीमारी है' ...अब ज़रा सोचिये.... आप क्या है ??? कलाबाज़ या बीमार ????
टांग अड़ जाये तो अड़ा मानिये
ReplyDeleteन अड़े तो चिकना घड़ा मानिये
बहुत खूब
टांग फँसाने के बारे में आप की क्या राय है?
ReplyDeleteऔऱ टांग अ़ड़ाने वालों की फाँस ली जाए तो?
nice
ReplyDeleteअच्छा लेख है ! वैसे ये मनोवृत्ति भारतीयों में ज्यादा देखने को मिलती है ! खासकर गावों की तरफ ... आप कुछ भी करिये ... कुछ लोग होते हैं जो बस हमेशा तंग अड़ाते रहते हैं !
ReplyDeleteइसे बांचकर तो हमको अपनी ये पोस्ट याद आ गयी:
ReplyDeleteमुश्किलों में मुस्कराना सीखिये,
हर फ़टे में टांग अड़ाना सीखिये।
काम की बात तो सब करते हैं,
आप बेसिर-पैर की उड़ाना सीखिये।
पुरानी पोस्ट बड़े मौके से फिर से लाई गई है.
ReplyDeleteइस आभासी जगत मे भी कुछ लोग टांग अडाने और फ़ंसाने के अलावा अडवाने और फ़ंसवाने मे बहुते माहिर हैं यानि बिल्कुल मेराडोना के चच्चा हैं...अब नाम तो सब लोग जानते ही हैं.
ReplyDeleteरामराम.
टांग अड़ाने की ’अदा’
ReplyDeleteया फ़िर यूं कहें कि
टांग अड़ाने वाली ’अदा’
है तो कुछ पुरानी लेकिन समसामयिक है।
सर्फ़ के विज्ञापन ’दाग अच्छे हैं’ की तरह ये ’टांग अड़ाने की अदा’ अच्छी है।
आभार
ये टांग अड़ाने वाली अदा भी खूब है ...:):)
ReplyDeleteataang adane kaa andaaz or hnsihnsi men apni baat kehnaa khubsoort andaaz he. akhtar khan akela kota rajasthan
ReplyDeleteकोई टाँग अड़ाये तो कूद कर निकल लीजिये क्योंकि बहुतों के लिये यह मनोविनोद होता है ।
ReplyDeleteटांग लड़ गई रे, ब्लॉग्वा में कसक होई बे करी,
ReplyDeleteधर्म का छुटवत पटाखा, धमक होई न करी...
जय हिंद...
bahut khoob Ada ji aapki lekhni ka to jawaab nahi...
ReplyDeleteअदा जी , टांग अडाने के कई शारीरिक फायदे है, मसलन
ReplyDeleteमानसिक संतुष्ठी मिलती है,
रक्तचाप सही रहता है,
अपने को बड़ा तीस मारखा समझता है इंसान
और फलस्वरूप शरीर में खून बढ़ता है !
मन के अन्दर से हीन भावना दूर होती है !
इंसान की उम्र बढ़ती है !
टांग अडाते वक्त अगर सामने वाला गिर पड़े और उसके जेब से पर्स छिटककर दूर जा गिरे तो आर्थिक लाभ की भे संभावना रहती है
:):)
बढिया सामयिक पोस्ट :-)
ReplyDeleteab main bhi tang adauga DEE
ReplyDeleteबहुत खूब !
ReplyDeleteवाह!
ReplyDeleteमुझे भी एक पुराना ख्याल याद आया मेरा नहीं है.
"टांग वो टांग के जिस टांग ने दिल टांग दिया,
और मांग वो मांग के जिस मांग ने दिल मांग लिया"
nice to know the multiple uses of 'taang' by Mr. P C Godiyal.
ReplyDeleteआपका
ReplyDelete"टांग अड़ाने की अदा" नामक व्यंग्य पढ़ा।
रोचक एवं प्रभावकारी प्रस्तुति। साधुवाद!
टांगों पर अपनी एक गजल का एक शेर
मुझे याद आ गया.......
////////////////////////////////
जिंदगी में कुछ नहीं करिए महज ऐंठे रहिए।
टांग पे टांग रख आराम से बैठे रहिए ॥
जो भी आया यहाँ घुसपैठिया बनके आया-
पैठ जब हो गई तो ठाठ से पैठे रहिए॥
सद्भावी-डॉ० डंडा लखनवी
///////////////////////////////////
आपका
ReplyDelete"टांग अड़ाने की अदा" नामक व्यंग्य पढ़ा।
रोचक एवं प्रभावकारी प्रस्तुति। साधुवाद!
टांगों पर अपनी एक गजल का एक शेर
मुझे याद आ गया.......
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जिंदगी में कुछ नहीं करिए महज ऐंठे रहिए।
टांग पे टांग रख आराम से बैठे रहिए ॥
जो भी आया यहाँ घुसपैठिया बनके आया-
पैठ जब हो गई तो ठाठ से पैठे रहिए॥
सद्भावी-डॉ० डंडा लखनवी
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ये टांग अड़ाने वाली अदा भी खूब है
ReplyDeleteबहुत खूब, लाजबाब !
ReplyDeletebahut achchha. kabhi samay mile to hamari kavitao par bhi comment kariyega at http://1minuteplease.blogspot.com aap jaise kavio ka comment hamare liye mardarshan ka kaam karega.
ReplyDeleteगाजर के चित्र और उम्दा पोस्ट ने मुहावरे में जान फूँक दी है!
ReplyDeleteअरे अत्रे गिरा दिया ना टांग अडा कर, क्या अदा है?
ReplyDeletedobara padh kar bhi maza aaya di.
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