आज फिर
तुम मुझसे लड़े हो
कितना अल्ल-बल्ल बोलते हो
बस बोलते ही जाते हो
और मैं सुनती रहती हूँ
बाकी नहीं रखते तुम
अपने कमान का
कोई भी तीर
हर तीर ज़हर बुझा
और निशाना सही होता है
मैं ही कहाँ उपक्रम करती हूँ
बचने का
तीर, सारे निशाने
पर ले लेती हूँ
आह ..!
दर्द के वलवले
उबलती सी आँखें
और वो उड़ते हुए
दिल के परखच्चे,
तुमने कहा था ,
मुझे रुलाना
तुम्हें अच्छा लगता है
तुम्हें अच्छा लगता है
तभी तो मेरा रोम-रोम
ज़ार-ज़ार रोता है
पर
जाने क्यूँ
लड़ते-लड़ते
मोहब्बत सब कुछ
समेट लेती है
और मेरा पूरा वजूद
आकंठ प्यार में
डूब जाता है
अपने आँसू मैं तुम्हारी
आस्तीन में पोंछ
तुम्हारे सीने में छुप
जाती हूँ
तुम भी मुस्कुरा कर
अपनी उंगलियाँ मेरे बालों
में उलझा देते हो
और हम दोनों भूल जाते हैं
कि आज क्या हुआ था !!
जाने क्यूँ
लड़ते-लड़ते
मोहब्बत सब कुछ
समेट लेती है
और मेरा पूरा वजूद
आकंठ प्यार में
डूब जाता है
अपने आँसू मैं तुम्हारी
आस्तीन में पोंछ
तुम्हारे सीने में छुप
जाती हूँ
तुम भी मुस्कुरा कर
अपनी उंगलियाँ मेरे बालों
में उलझा देते हो
और हम दोनों भूल जाते हैं
कि आज क्या हुआ था !!
और हम दोनों भूल जाते हैं
ReplyDeleteकि आज क्या हुआ था !!
कमाल की अभिव्यक्ति है. शायद इसीलिये इतने झगडे के बावजूद जिंदगी हंसती मुस्कराती रहती है. बहुत शुभकामनाएं.
रामराम.
वाह...और हम दोनों भूल जाते हैं
ReplyDeleteकि आज क्या हुआ था !!
स्त्री की क्षमाशीलता ही दाम्पत्य जीवन की सार्थकता है
बहुत ही खूबसूरत भावप्रधान रचना है, मानवीय संबंधों को बयां करती ! बधाई !
ReplyDeletevijay ji ne mere liye likhne ko kuchh chhoda hi nahi,
ReplyDeletelaajawaab ji,
kunwar ji.
आपकी टिप्पणियाँ वापस मिली या नहीं?
ReplyDeleteऔर हम दोनों भूल जाते हैं
ReplyDeleteकि आज क्या हुआ था !!
शायद रूमानियत का यह भी रूप होता है.
आकंठ डूबने के लिये भी तो कुछ पल उतराना ही होता है.
शानदार रचना, गहन अनुभूतियों के साथ
वर्मा जी,
ReplyDeleteपूछने के लिए बहुत बहुत धन्यवाद...
मेरी टिप्पणियाँ वापस नहीं मिली हैं....अभी तक...
बस इंतज़ारकर रही हूँ मैं....
सितम ढाये भी वहीं जाते हैं, जहां कोई उनको झेल सकता है। इस शह मात के खेल में रोज हारने वाला ही अंतत: जीतता है, और रोज जीतने वाला अंत में शायद खुद को ठगा सा महसूस करता है।
ReplyDeleteबहुत खूबसूरत रचना(दर्द खूबसूरत भी होता है!)
आभार
कभी न खत्म होती थी जिनकी मीठी बातें
ReplyDeleteअब बात बात पर करते हैं लड़ाई।
यही तो फर्क पड़ता है , उम्र चढने पर।
लेकिन
जीवन के सब उपवन जब मुरझा जाते हैं
तब पति पत्नी ही एक दुसरे का साथ निभाते हैं।
बहुत सुन्दर लिखा आपने ।
तुम भी मुस्कुरा कर
ReplyDeleteअपनी उंगलियाँ मेरे बालों
में उलझा देते हो
और हम दोनों भूल जाते हैं
कि आज क्या हुआ था !!
-अंत इतना सुन्दर...बेहतरीन भावों में भिगा गई यह रचना.
और हम दोनों भूल जाते हैं
ReplyDeleteकि आज क्या हुआ था !!
इसी का नाम तो प्यार है!
दर्द के वलवले
ReplyDeleteउबलती सी आँखें
और वो उड़ते हुए
दिल के परखच्चे,
hnm...
ReplyDeleteaap hi kaahe ladti hain ada ji...?
और हम दोनों भूल जाते हैं
ReplyDeleteकि आज क्या हुआ था !!
भूलने में ही भलाई जो है !!
वाह...वाह... एक सम्पूर्ण रचना। स्त्री की भावनाओं को बेहद खूबसूरती से शब्दों में समेटा गया है। बहुत खूब... हार्दिक बधाई।
ReplyDeleteआज़ तेवर तीखे है मादाम के
ReplyDeleteअल्ल-बल्ल शब्द का प्रयोग गज़ब
ReplyDeleteशिकायत किससे..जीजा से या वक्त से।
ReplyDeleteआओ शिकायत पत्र लिखें रक्त से।
जज्बात से लबालब है
काव्य रचना।
कमाल है।
ReplyDeleteबस यही एक भूलना ही नही सीख पाये हम।
are waah...........pyar ka ye andaaz to andar tak bhigo gaya..........gazab ki prastuti.
ReplyDeleteवाह अदा जी!
ReplyDeleteकितना कोमल भाव चटपटे अंदाज़ मे पेश किया है,कमाल।
अपना एक विचार share करने से अपने आप को रोक नहीं पा रहा हूं:
"ताअरुफ़-ओ- तकरार करने से है,
वो किया कीजिये ये न किया कीजिये।"
wah di..roz-marra ki pati-patni ki chakh-makh ko kitni saadgi se likh diya aapne...bhavo ka sunuyojit prayog....aur ant me patni ji me aisi hi feelings kyu aa jati hai..ye baat aaj tak samajh nahi aayi???lekin yahi hota hai....kitni dusht hai na muhobbat?????sab kuchh samait leti hai...! bahut damdar prastuti..badhayi.
ReplyDeleteआपकी रचनायों दिल की बात कहती हैं हमारी आप से विनती है कि गद्दारो द्वरा दिए गय जख्मों से लहुलुहान भारत मां पर भी एक रचना लिख डालो वो भी यथाशीघ्र
ReplyDeleteऔर हम दोनों भूल जाते हैं
ReplyDeleteकि आज क्या हुआ था !!
प्यार का सागर गहरा हो तो झगड़े की बलखाती नदियाँ निर्विकार उसमें समाहित हो जाती हैं । इस तथ्य का अद्भुत प्रस्तुतीकरण ।
निश्चय ही आप बहुत सुन्दर और सटीक लिखती हैं ... कमाल की रचना (हमेशा की तरह)
ReplyDeleteबेहतर ! शायद यही सच्चा उपसंहार होता है ऐसी लड़ाई का, प्यार की लड़ाई का !
ReplyDeleteऔर यदि अंत ऐसा हो तो लड़ना रोज ही जरूरी है..उसमें ही तो छुपे हैं प्यार के सौरभ-कण !