ये दीया बुझ जायेगा
फिर भी, जाने क्यूँ
मैंने...
इसे जलाया
मैंने...
इसे जलाया
अँधेरे में
तुम्हारे चेहरे
तुम्हारे चेहरे
के भाव
रुख की सलवटों
में छुप गए थे
जो दीये की रौशनी
देख झांकने लगे
तुमने बड़ी मुस्तैदी से
भावों को भगा दिया
और मौका देख
वो दीया बुझा दिया....
वो दीया बुझा दिया....
बुझने दे ये दिए जो अँधेरे ही फैला रहे थे ...
ReplyDeleteजलने दो आशाओं के दीपक ....
कभी नहीं बुझेंगे ....!!
और मौका देख
ReplyDeleteवो दीया बुझा दिया....
दीया जलेगा तो शायद सच्चाई उजागर हो जायेगी. सच्चाई एक जंग है पर इस जंग के खिलाफ भी तो जंग जारी है
सुन्दर रचना
अदा जी,
ReplyDeleteतो क्या अंधेरा फ़िर जीत जायेगा?
क्या लिख दिया जी आपने?
शायद वसीम बरेलवी साहब ने कहा था,
"आंधियों के इरादे तो अच्छे न थे,
ये दिया कैसे जलता हुआ रह गया"
आपका गीत था,
"मैं ठोकर खाकर गिर जाऊं,
ऐसा हो नहीं सकता"
क्या आज की पोस्ट रिप्लेस हो सकती है?
वाह...वाह...!
ReplyDeleteअदा जी!
सुबह उठते ही एच्छी रचना से रूबरू हुए!
.. ..
बल्ली सिंह चीमा ने लिखा है-
"अब अंधेरा जीत लेंगे लोग मेरे गाँव के!"
आप भी न बस, पता नहीं क्या क्या लिख देती हैं, कभी-कभी।
ReplyDeleteअब हम वाणी जी से सहमत हैं और आपको सलाह ये दी जाती है कि जिन्हें अंधेरे पसंद हैं उन्हें रोशनी दिखाने की कोई जरूरत नहीं है। शायद अंधेरा उनकी नियति है, वो तो सूरज को भी ढंकना चाहेंगे।
’सकल पदारथ है जग माहीं, करमहीन नर पावत नाहीं’
फ़िर से जलने दो आशाओं के दीपक....
कभी नहीं बुझेंगे......!!
सच्चाई खुद ब खुद सामने आ ही जाती है ।
ReplyDeleteआखिर कब तक कोई अपनों से बहाने बनाता रहेगा । बहुत ही बेहतर ।
आभार..!
ओह आज बहुत दिनों बाद फ़िर ये कहने का मन है कि
ReplyDeleteकलम उनकी कातिल है ,
हम रोज़ मरते हैं ,
वो रोज़ लिखती हैं ,
हम रोज़ पढते हैं ।
जाने उजियारे-अंधियारे में,
वो कितने भाव गढते हैं,
चरागों के भरोसे हम कहां,
आंखों से नहीं,रूह से पढते हैं
अजय कुमार झा
अंग्रेजी में एक कहावत है " Ignorance is bliss " . शायद कभी कभी अँधेरा ही सही है !
ReplyDeleteबहुत बढ़िया रचना ....
ReplyDeleteसच्चाई उजागर करने के लिए थोड़ी सी रोशनी ही काफी है....अच्छी नज़्म...
ReplyDeleteइसीलिए कहता हूं, माचिस या लाइटर हमेशा साथ रखना चाहिए,
ReplyDeleteदीया बुझा नहीं कि झट से फिर जला दिया...
जय हिंद...
अंधेरा हमारे भावों को छूपाता है, तो रोशनी का दीया उन्हें उघाड़ता है...इस तरह एक आदत सी हो गई है अंधेरे में रहने की ...शायद इसी लिए अब तो चिराग से भी डर लगने लगा है ...कि कहीं मैं पढ़ न लिया जाऊँ... इसी लिए तो बुझा दीया ही मुझे प्रिय होता जा रहा है...बहुत सुंदर !!!!
ReplyDeleteअदा जी..
ReplyDeleteअभी तक हम समीर जी के किचन से बाहर नहीं निकले हैं...
ओके...
आज कुछ पोस्ट करना ही था तो कुछ खाने पीने का पोस्ट डाला होता......
ये अन्धेरा शंधेरा लिख कर......
रोटी, चावल, आलू गोभी की सब्जी, बंद गोभी की सूखी सब्जी, लोबिया की दाल, चिकेन, रायता, अचार, सलाद इत्यादि-इत्यादि .......................................
का सारा मजा गायब कर दिया आपने...
सादर वन्दे!
ReplyDeleteरात कुछ इस तरह आँचल बिछाती है अपना
कि सब भूलकर उसकी आगोश में सोते है
क्यों शिकायत करें हम उन अंधेरों की
कि यही तो हैं जो हमें शुकून देतें हैं.
रत्नेश त्रिपाठी
वाह...नारी के विश्वास का ,पुरुष की हताशा भरी बेशर्म प्रतिक्रिया का बढ़िया चित्रण
ReplyDeleteमौका देख वो दिया बुझा दिया ,,,,,,,
ReplyDeleteसुदर रचना
विकास पाण्डेय
www.vicharokadarpan.blogspot.com
और मौका देख
ReplyDeleteवो दीया बुझा दिया....
bahut sundar
wow !!!!!!!!!!
shekhar kumawat
http://kavyawani.blogspot.com/
hum shikwa karte reh gaye haaye tumne yeh kya kiya
ReplyDeletewo the jo kehte rahre ek diya hi to tha jo bujha diya
-Shruti
waah......aur koi shabd nahi
ReplyDeleteachchi lagi...
ReplyDeleteसुन्दर रचना,अदा जी!
ReplyDeleteसच्चाई
ReplyDeleteकिसी भी अँधेरे से बढ़ कर ही होती है
और भाव .....
सिमट कर आँखों में उतर आएँगे ...
खैर
रचना अच्छी है
सोचने पर मजबूर करती है
शानदार रचना..बहुत पसंद आई.
ReplyDeleteबहुत नायाब रचना.
ReplyDeleteरामराम.
बहुत सुन्दर व उम्दा रचना है।बधाई।
ReplyDeleteman k bhavo ko acchhe shabdo se sajaya he.
ReplyDeleteवाह ! कमाल कि रचना! ऐसी रचनाए कभी कभी ही पढने को मिलती है, आप कि मैंने अब तक जितनी भी रचनाएँ पढ़ी है सब से अच्छी ये लगी! मेरे पास तारीफ के शब्द नहीं है, सचमुच!
ReplyDeleteदीये बुझने की कीमत पर किसने रोके रखा है दीये को जलाना !
ReplyDeleteदीये जलते हैं..
साफ-साफ दिखते ही हैं संसार की तह में छिपे कुछ चिह्न, चेहरे, आकृतियाँ !
दीया फिर बाहर की चीज न रहकर हमारे भीतर की सम्पदा हो जाता है !
दीया हमारी आँखे बन जाता है, ज्योतित आँखे !