आज कल मन कई बातों की विवेचना में लगा हुआ है, जब मैं लोगों को अपने जीवन में कुछ 'वस्तुओं' या 'क्रियाओं' को ज़िन्दगी से भी ज्यादा अहमियत देते हुए देखती हूँ तो सोचने को विवश हो जाती हूँ, आखिर ऐसा क्यूँ है...?
चीजों को तर्क, काल, उपयोगिता और परिवेश के हिसाब से देख रही हूँ...तो पाती हूँ कि भौगोलिक परिस्थितियाँ हीं आवश्यकताओं को जन्म देतीं है, जो आविष्कार करने के लिए प्रेरित करती हैं, उसी तरह वस्तुओं की उपलब्धि भी उसकी उपयोगिता निर्धारित करती है, और तब हम उन 'वस्तुओं' या 'क्रियाओं' को अनुशासित करने के लिए 'धर्म' से जोड़ कर रीति-रिवाज़ या संस्कार का जामा पहना कर जनमानस के जीवन का अभिन्न अंग बना देते हैं....जैसे 'बुर्का, इसपर मैंने एक आलेख लिखा था आप यहाँ पढ़ सकते हैं...
कुछ दिनों पहले हमारे शहर के मशहूर उर्दू के शायर के घर में एक मुशायरा था , मुझे भी आमंत्रण था, उनके घर अक्सर जाती हूँ, वो बहुत ही प्यारी शख्सियत के मालिक हैं..और एक नामचीन शायर हैं, देश विदेश में बहुत नाम है, वो मेरे लिए पिता-तुल्य हैं, उनका बहुत ही आलीशान घर है, एवं बहुत ही प्रभावित करता हुआ माहौल ...लेकिन जब भी मैं उनके बाथरूम में जाती हूँ उनके हर बाथरूम में रखे हुए 'बदने' को देख सोच में पड़ जाती हूँ...
'बदना' जो एक टोंटी लगा हुआ बर्तन है....सोचती हूँ, जिसने भी इस बर्तन का आविष्कार किया है कितना दूरदर्शी होगा.., गौर से देखिये इसे, तो पायेंगे यह बर्तन सही मायने में पानी बचाने और उसकी अधिकतम उपयोगिता में सहायक है,
साउदी अरब में पानी की किल्लत हमेशा से रही है, पानी सोने से ज्यादा कीमती है ...हालांकि अब की बात और है..अब वहाँ की हरियाली देखने लायक है..लेकिन पानी को बच्चा-बच्चा इज्ज़त देता है...और क्यूँ न हो जो वस्तु बहुत मेहनत से मिलती है वो कीमती होती ही है 'बदने' को एक धार्मिक ज़रुरत बना कर लोगों तक पहुंचाया गया, पानी के महत्त्व की बात बताई गई और पानी की किफायत करने का हर तरीका अपनाया गया, 'बदने' के उपयोग से पानी की बचत अपने-आप होने लगी जो बहुत अच्छी बात हुई , यह उस परिवेश के लिए बहुत बड़ी देन बना, इस्लाम में पानी को बहुत महत्त्व दिया गया है, गौर से देखा जाए तो 'वाटर मैनेजमेंट' जैसी बात नज़र आती है...जो बहुत ही प्रशंसनीय है...
लेकिन 'बदने' का रूप ही बदल गया जब यह दूसरे देशों में पहुँचा, ज़माने के साथ, धर्म के साथ जुड़े होने के कारण पानी की उपयोगिता या जल संरक्षण जैसी बात कोई सोचता ही नहीं है..बस इसे इसलिए अपनाया जाता है क्यूंकि इसे अपनाने के लिए कहा गया है, अब 'बदना' एक उपयोगी बर्तन नहीं सिर्फ़ 'इस्लामिक चिन्ह' बन कर रह गया है ...इस बर्तन के साथ एक धर्म ख़ुद-ब-ख़ुद जुड़ गया, परिणाम यह हुआ कि दूसरे धर्म के लोग इसके उपयोग से कतराने लगे ...और इसकी किस्मत देखिये, मुसलमानों के लिए अजीज़ है ये और दूसरे धर्मों के लिए हिकारत...और इस फ़ालतू के झगड़े में एक बहुत ही उपयोगी बर्तन ने अपना लक्ष्य खो दिया...
पानी की सही तरीके से उपयोग करने की एक क्रिया और है जिसे 'वज़ू' करना कहते हैं ....आपने देखा होगा ..वज़ू करने के लिए चुल्लू में पानी लिया जाता है और हाथ ऊपर करके पानी नीचे की तरफ छोड़ा जाता है, जिससे पानी हथेली से होता हुआ पूरे हाथ में कोहनी तक जाता है, और इस तरह की प्रक्रिया को 'वजू' करना कहा जाता है, इसका भी कारण है पानी की बचत....maximum utility of water ...जो बहुत ही अच्छी बात है..पानी की बचत होनी ही चाहिए...और अगर ये बात धर्म के साथ जोड़ दिया जाए तो सब इसे मानते भी हैं....लेकिन कितने लोग इसे उस नज़र से देखते हैं...शायद कोई नहीं....यह भी 'इस्लामिक क्रिया' बन कर रह गया है जबकि इसका इस्लाम से कोई लेना देना नहीं है....यह मात्र परिवेश जन्य क्रिया है...
हमारे पड़ोस में इरफ़ान चाचा रहते थे...हर सुबह वो दतवन करते और उस दतवन को जहाँ तक इस्तेमाल कर चुके होते थे उसे तोड़ कर बाकी रख दिया करते थे ...जबकि बाकी लोग दांत साफ़ करने के बाद, दतवन को बीच से चीर कर जीभ साफ़ किया करते थे...इरफ़ान चाचा का कहना था कि ऐसा वो नहीं कर सकते क्योंकि उनके धर्म में मनाही है...तब मैं बहुत छोटी थी, नहीं समझ पाई...आज बैठ कर सोचती हूँ...तो जो बात मुझे समझ आई वो ये हो सकती है ..कि साउदी अरब में सिर्फ बबूल की झाड़ियाँ मिलतीं थी वो भी बहुत कम...उस ज़माने में ब्रुश का आविष्कार नहीं हुआ था, और दाँत साफ़ करना ही था, ज़ाहिर सी बात है दतवन भी कीमती था, उसे बचा कर ही रखना था...और निःसंदेह यह वनों को बचाने में सहायक रही होगी...
जल संरक्षण, वन संरक्षण जैसी बातें समाज के लिए उपयोगी ही नहीं बहुत ज़रूरी हैं, लोगों तक इस सन्देश को पहुंचाना अपने आप में बहुत ही तारीफ की बात है, धर्म का उपयोग करके इसे मनवाना भी बहुत ही अच्छी बात है....लेकिन अनुशासन और कट्टरता में फर्क है, अगर कोई समुद्र के बीच में बैठ कर 'वजू' दूसरे तरीके से कर ले तो उसे ग़लत नहीं समझना चाहिए...या फिर जंगल में पूरे दतवन का इस्तेमाल कर ले तो वो भी ग़लत नहीं होना चाहिए.....ये 'क्रियाएं'' और 'आविष्कार' अनुपम हैं और उनकी सही उपयोगिता को न समझते हुए मात्र 'चिन्ह' या 'रिवाज़' बना देना उन विद्वानों की सोच और दूरदृष्टि की तौहीन करना है...जिन्होंने भविष्य को देखते हुए इतने अच्छे नियमों को बनाया था...
ये 'क्रियाएं'' और 'आविष्कार' अनुपम हैं और उनकी सही उपयोगिता को न समझते हुए मात्र 'चिन्ह' या 'रिवाज़' बना देना उन विद्वानों की सोच और दूरदृष्टि की तौहीन करना है...
ReplyDeleteइस तरह के रिवाज और क्रियाएँ हर धर्म में उपलब्ध हैं. हम उनमें समय की मांग के अनुसार रूढि बना देते है.
हिन्दू धर्म में सूर्य को जल देने की भी परम्परा सिर्फ सूर्योदय के समय ही आंखों के लिये लाभकारी है साथ ही जल में ही खडे होकर पर आज स्वरूप कुछ और ही है.
धर्म का वास्ता देकर बहुत सी इस तरह की उपयोगी प्रथायें डाली गई थी कि इसी नाम से लोग उनका उपयोग करें. अब भले ही उनकी तार्किकता खत्म हो गई हों मगर वो चलती ही जाती है.
ReplyDeleteबहुत अच्छा आलेख.
nice
ReplyDeleteआवश्यकता आविष्कार की जननी है जो कालांतर में धार्मिक कट्टरताओं से जुड़ जाती है ...
ReplyDeleteधार्मिक रीतिरिवाज को व्यावहारिकता की कसौटी पर परखती एक उल्लेखनीय प्रविष्टि ...
बहुत बढ़िया ...
जनसत्ता में आपके लेख के प्रकाशन पर बहुत बधाई ...!!
बहुत अच्छा और ज्ञानपूर्ण लेख है ... दुःख है की हर कोई आप जैसा नहीं सोचता ... अगर ऐसा होता तो समाज में सुधर आ सकता था ... अजीब बात तो ये है की जब कोई इस तरह की बात करता है, चाहे ही वो मानव जाती की भलाई की बात क्यूँ न कर रहा हो ... इसपर चर्चा या अमल होने की वजाय कुतर्क या बवाल खड़ा हो जाता है ... धार्मिक उन्माद बनाया जाता है ... और लोग अपने दिमाग का इस्तमाल करना छोड़ पागलपन करने लग जाते हैं ! इस शोधपूर्ण लेख के लिए अभिनन्दन !
ReplyDeleteबदना के बारे में पहली बार इतनी महत्वपूर्ण जानकारी देने के लिए अदा जी आपका आभार...
ReplyDeleteवाकई पानी को बचाना आज सबसे बड़ी ज़रूरत है...ऐसे ही नहीं कहा जा रहा कि अगला विश्व युद्ध पानी को लेकर ही होगा...
जय हिंद...
आप ने 'स्वाद' अच्छा बदल दिया। ठीक बात है।
ReplyDeleteआपके आलेख से अक्षरश: सहमत।
ReplyDeleteवर्मा साहब और समीर साहब ने बिल्कुल ठीक कहा कि साधारण जनमानस को इन बातों का सामाजिक व वैज्ञानिक लाभ समझ आये न आये, ये जीवनशैली का हिस्सा बनें, इसी उद्देश्य से धर्म का आवरण चढ़ाकर लगभग हर धर्म के विद्वानों ने अपनी भौगौलिक परिस्थितियों के अनुरूप अनेक नियम बनाये थे जो कालक्रम में महज औपचारिकता बन कर रह गये।
सामाजिक विषयों पर आपको पढ़ना भी वैसा ही सुखकर है, जैसे अन्य विषयों पर।
आभार स्वीकार करें।
अच्छा वैज्ञानिक विश्लेषण
ReplyDeleteबहुत ही सुन्दर व्याख्या की है आपने! धर्म, चाहे जो भी हो, तो मानवता के हित के लिये बनाये गये हैं किन्तु स्वार्थी लोग इसका रूप बदल कर मानवता के हित के स्थान पर अपने हित का साधन बना लेते हैं।
ReplyDeleteबहुत ज्ञानवर्धक आलेख ! हर लोकोपयोगी एवम् समाजोपयोगी दृष्टिकोण को जब तक धर्म के आवरण में ना लपेटा जाये सर्वसाधारण उनका पालन नहीं करना चाहता ! लेकिन कालांतर में प्रगति के साथ जब ये नियम अपना औचित्य और तार्किकता खो देते हैं तब रूढ़ियों के रूप में इनका सख्ती से पालन करना यही परम्परा बन गयी है जो दुर्भाग्यपूर्ण है ! तर्कपूर्ण एवम सार्थक आलेख के लिये बधाई एवम् आभार !
ReplyDeletegood concept and good examples
ReplyDelete-Shruti
एक सम्यक विश्लेषण.
ReplyDeleteतार्किक आलेख....जल और वन संरक्षण के महत्त्व को बताता हुआ....धर्म के नाम पर लोग हर बात आसानी से मान जाते हैं...आपने इसमें तर्क ढूँढा ..अच्छा लगा...
ReplyDeleteआपने बहुत विचारणीय मुद्दा उठाया है अदा जी । पहले के ज़माने में बहुत से ऐसे जुगाड़ होते थे जो समय और हालात की मांग को देखते हुए उपयोगी सिद्ध होते थे । लेकिन धीरे धीरे इनका धर्म से सम्बन्ध जुड़ गया । और यहीं गड़बड़ हो गई।
ReplyDeleteअब बदना जैसा उपयोगी बर्तन अगर सारे कामों में इस्तेमाल किया जाने लगे तो क्या होगा ।
दूसरी तरफ यदि वजू स्नान का स्थान लेले तो !
मैंने लोगों को ज़मीन पर गिर गए दूध को पशुओं की तरह मूंह लगाकर पीते हुए देखा है। क्योंकि बूँद बूँद कीमती होता था ।
क्या आज ये सब कोई मायने रखता है । समय के साथ बदलना भी ज़रूरी है।
मुझे तो इस बदने मे
ReplyDeleteगंगाजलि का रूप ही नजर आता है!
bahut kub
ReplyDeletehttp://kavyawani.blogspot.com/
shekhar kumawat
बहुत अच्छा और ज्ञानपूर्ण लेख है।
ReplyDeleteपरम्परायें यदि अच्छी हैं तो वे किसी भी रूप में स्वीकार हैं लेकिन समय के साथ परिवर्तन भी जायज़ है ।
ReplyDeleteआपनें क्या सटीक बात कही है.हर प्रथाओं के पीछे दूरदृष्टी और उपयोगिता होती थी.
ReplyDeleteआज भले ही परिप्र्येक्ष बदल गयें हों, उन बातों में दम अभी भी है.
बदना, वजू और दतवन से आपने जल-संरक्षण और प्रकृति के संरक्षण की बहुत सुंदर बात कही । धर्म में आई बातों के वैज्ञानिक आधार बताने के लिए शुक्रिया । उम्मीद करता हूँ आपकी सोच अधिक से अधिक लोगों तक पहुँचे और धर्म के वैज्ञानिक आधारों पर आपकी लेखनी यूं ही बदस्तूर चलती रहे ।
ReplyDeletevery nice.....
ReplyDeleteROCHAK...
ReplyDeletePRERAK....
GYAAN VRADDHAK.....