Saturday, March 27, 2010

तन्हाई, रात, बिस्तर, चादर और कुछ चेहरे....

तन्हाई, रात, 
बिस्तर, चादर
और कुछ चेहरे,
खींच कर चादर
अपनी आँखों पर
ख़ुद को बुला लेती हूँ
ख़्वाबों से कुट्टी है मेरी 
और ख्यालों से 
दोस्ती 
जिनके हाथ थामते ही 
तैर जाते हैं
कागज़ी पैरहन में 
भीगे हुए से, कुछ रिश्ते
रंग उनके
बिलकुल साफ़ नज़र 
आते हैं,
तब मैं औंधे मुँह 
तकिये पर न जाने कितने 
हर्फ़ उकेर देती हूँ
जो सुबह की 
रौशनी में
धब्बे से बन जाते हैं....



29 comments:

  1. औंधे मुँह
    तकिये पर जाने कितने
    हर्फ़ उकेर देती हूँ
    जो सुबह की
    रौशनी में
    धब्बे से बन जाते हैं....

    फिर एकबार और बार-बार बढ़िया कविता का सृजन.. दी..

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  2. तन्हाई की एक और शाम ,
    दर्द का गुबार ,.
    ख्यालों का बिछौना
    एहसासों की चादर
    और ...
    तकिये के धब्बे
    बन जाते हैं हर्फ़ ...
    अधमुंदी पलकों में इतने आंसू जो होते हैं ...
    अल्फाज़ जो उकेरे है कविता के रूप में , नमी इनकी अंतस तक भिगो रही है ....

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  3. तकिये पर न जाने कितने
    हर्फ़ उकेर देती हूँ
    जो सुबह की
    रौशनी में
    धब्बे से बन जाते हैं....
    एहसास की सुन्दर रचना
    बहुत सुन्दर

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  4. चित्रकारी किधर है जी आज मयंक की!

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  5. जुनूने-गिरिया का ऐसा असर भी दिल पे होता है
    कि जब तकिया नहीं मिलता तो दिल कागज़ पे रोता है..

    लाजवाब कविता ...

    निशब्द...

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  6. वाह! एक ख्याल याद आता है,इस रचना पर

    नीद को बद्दुआ न दे जाना,
    मुझे जीने की सज़ा न दे जाना!

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  7. अनूप जी,
    आज मयंक की चित्रकारी नहीं डाली क्योंकि सबने कहा अब उसका अलग ब्लॉग होना चाहिए....
    देखती हूँ जब समय मिलेगा तो बनाना भी पड़ेगा...उसके पास तो फुर्सत है ही नहीं....फिर भी कहूँगी कुछ कर ले...
    पूछने के लिए आपका बहुत शुक्रिया....

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  8. कई रंगों को समेटे एक खूबसूरत भाव दर्शाती बढ़िया कविता...बधाई

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  9. रौशनी में
    धब्बे से बन जाते हैं....

    फिर एकबार और बार-बार बढ़िया कविता का सृजन.. दी..

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  10. Sorry for comment in English - I hate writing Hindi in Roman.

    पैरहन- शरीर पर धारण किए जाने वाले वस्त्र
    Am I right? ... little confused!

    Any way I arranged it like prose (my experimentism :))

    तन्हाई, रात, बिस्तर, चादर और कुछ चेहरे,खींच कर चादर अपनी आँखों पर ख़ुद को बुला लेती हूँ ख़्वाबों से कुट्टी है मेरी और ख्यालों से दोस्ती जिनके हाथ थामते ही तैर जाते हैं कागज़ी पैरहन में भीगे हुए से, कुछ रिश्ते रंग उनके बिलकुल साफ़ नज़र आते हैं, तब मैं औंधे मुँह तकिये पर न जाने कितने हर्फ़ उकेर देती हूँ जो सुबह की रौशनी में धब्बे से बन जाते हैं....
    and then I read, really enjoyed the flow and new meanings coming out. Gradually I am believing that free verse poetry should be presented like prose lines. It gives a different texture and effect to poetry.
    Is " रौशनी " correct?

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  11. बहुत खूबसूरत रचना .....

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  12. या गर्मियों की रात जो पुरवाइयां चलें,
    ठंडी सफ़ेद चादरों पे जागे देर तक,
    तारों को देखते रहें छत पर पड़े हुए,
    दिल ढूंढता है, फिर वही फुर्सत के रात दिन...

    जय हिंद...

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  13. नायाब अभिव्यक्ति.

    रामराम.

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  14. बहुत खूब ,,,अच्छी रचना ,,,,कई बार पढ़ने के लिए प्रेरित किया .....
    विकास पाण्डेय
    www.vichrokadarpan.blogspot.com

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  15. ख़्वाबों से कुट्टी है मेरी और ख्यालों से दोस्ती,
    kaash is raat ki subah na ho

    ek achhi kavita

    dhanyvad
    http://sanjaykuamr.blogspot.com/

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  16. ख़्वाबों से कुट्टी है मेरी और ख्यालों से दोस्ती
    kaash is raat ki subah na ho

    ek achhi kavita

    dhanyavad
    http://sanjaykuamr.blogspot.com/

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  17. कविता में तो आपने दिल उलेड़कर रख दिया है....

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  18. Mai dang rah jati hun,ki, aapko aisee kalpnayen soojhtee kaise hain?Aur itne khoobsoorat alfaaz, jinme wo piroyi jati hain?

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  19. काबिले तारीफ़ !

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  20. ये सारे के सारे सपनों के हमराही भी हैं ।

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  21. बहुत बढ़िया पेशकश।

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  22. अब मै क्या कहूं!
    देवदास फिल्म में एक शेर सुना था-
    "दिल के छालो गर कोई शायरी कहे परवाह नहीं,
    तकलीफ तो तब होती है जब लोग वह-वह करते है!"
    बस यही सोच कर मै चुप हूँ!

    कुंवर जी

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  23. sab kuchh to samait liya hai is rachna me. ...lekin kuwar ji k rev.ka khayaal aata he to wah wah kaise karu???

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  24. ये सब चीजें तो हमारे पास भी हैं पर ऐसा सृजन नहीं कर सकते कभी भी, शायद एक संवेदनशील हृदय की भी जरूरत होती है, बस वही नहीं है।
    इन चंद लाईनों ने मथ कर रख दिया है जी हमें तो।
    आभार।

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  25. "तब मैं औंधे मुँह
    तकिये पर न जाने
    कितने हर्फ़ उकेर देती हूँ
    जो सुबह की रौशनी में
    धब्बे से बन जाते हैं...."

    इस वक्त सिर्फ़ सोच रहा हू...

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  26. पता है, मैंने पहले भी कहा था कि आपके ब्लॉग पर आती हूँ और बिना टिप्पणी किये चली जाती हूँ. आज भी मन नहीं कर रहा था टिप्पणी करने का, पर सोचा कि कर ही दूँ. वैसे कुछ कहने को होता नहीं खासकर आपकी कविताओं को पढ़ने के बाद, बस उसे महसूस करने का जी होता है.

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  27. ख़्वाबों से कुट्टी है मेरी
    और ख्यालों से
    दोस्ती
    जिनके हाथ थामते ही
    तैर जाते हैं

    अदा जी!
    आपने इस रचना में
    भावो के उतार-चढ़ाव का
    सुन्दर समन्वय किया है!

    बहुत-बहुत बधाई!

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  28. तब मैं औंधे मुँह
    तकिये पर न जाने कितने
    हर्फ़ उकेर देती हूँ
    bahut achcha laga.

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