ठोकर खाकर मैं गिरती जब तक,
थामने को उठे कई हाथ,
निकल रहा था मेरा दम,
कि हवाओं ने दिया झूम के साथ
कितना घना अँधेरा था,
जब वजूद बना एक बिसरी बात
तब तारे झुक झुक आये मुझे तक
स्याह रात बनी उजली रात
तन्हाई के आगोश में अब तो
महफूज़ हैं मेरे हर जज़्बात
तेरा क्यूँ मैं सोग मनाऊँ,
जब उम्मीद खड़ी है थामे हाथ...
थामने को उठे कई हाथ,
निकल रहा था मेरा दम,
कि हवाओं ने दिया झूम के साथ
कितना घना अँधेरा था,
जब वजूद बना एक बिसरी बात
तब तारे झुक झुक आये मुझे तक
स्याह रात बनी उजली रात
तन्हाई के आगोश में अब तो
महफूज़ हैं मेरे हर जज़्बात
तेरा क्यूँ मैं सोग मनाऊँ,
जब उम्मीद खड़ी है थामे हाथ...
मयंकी की चित्रकारी और
ReplyDeleteहम तो चित्र पर भी बलिहारी।
एक आशावादी रचना ।
bahut khoob vaisebhi ummid ka kabhi KABHI BHI NAHI chhodna chahiye. uyhi to saare jivan ki jammmma puunji hai.
ReplyDeletepoonam
nice
ReplyDeleteठोकर खाकर मैं गिरती जब तक,
ReplyDeleteथामने को उठे कई हाथ,
waah...!!!
तू ठोकर खाके गिर जाए...
ऐसा हो नहीं सकता...
फ़ीनिक्स का भारतीय संस्करण......!
ReplyDeleteमयंक की चित्रकारी - बहुत बढ़िया...!
आल इज़ वैल, बाबा आल इज़ वैल।
बाई द वे,मेरी टिप्पणी वापिस मिल जायेगी न, अगर वापिस मांगूं तो....।
सुन्दर रचना और फिर मयंक की चित्रकारी वाह
ReplyDelete"निकल रहा था मेरा दम,
ReplyDeleteकि हवाओं ने दिया झूम के साथ"
लहरों से डर कर नौका पार नहीं होती,
कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती।
सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”
तेरा मैं क्यों सोग मनाउ ...जब उम्मीद कड़ी है थामे हाथ
ReplyDeleteउम्मीद पर दुनिया कायम है ...क्या हुआ जो ख्वाब रूठा ...??
अच्छा लगा देखकर...:)
ReplyDeleteकविता और चित्रकारी दोनों पसंद आई.
बहुत बढ़िया लगी रचना । मयंक की चित्रकारी एक बार फीर लाजवाब लगी
ReplyDeleteवाह वही पुराना रंग और वही पुरानी अदा ..बस एक जगह पर शायद
ReplyDeleteतारे मुझे तक है .....शायद तारे मुझ तक हो तो ज्यादा ठीक है ..शायद ..अब पक्का पक्का तो आप ही देखिए ...जू..SSSSSSSSS ..उडती जाईये
अजय कुमार झा
Kavita adhoori si lagi jane kyon Di... lekin Mayank ki kalakari ne aake use dhai bana diya.. :)
ReplyDeleteइस नज़्म मे आपका आशावाद बहुत मुखर है ..सलाम ।
ReplyDeleteबहुत अच्छी आशावादी रचना !!
ReplyDeleteअब तो बस ये वाला गाना सुना दीजिए...
ReplyDeleteआज कल पांव ज़मीं पर पड़ते नहीं मेरे,
बोलो कभी तुमने देखा है मुझे उड़ते हुए...
जय हिंद...
आशाओं पर ही जीवन हैं ।
ReplyDeleteमयंक की अभिव्यक्ति अब और निखर रही है ।
शुभकामनाएं..!
आभार.।
उम्मीद को उम्मीद भरी टिप्पणी।
ReplyDeleteगिरने पर उठाने को कई हाथ हों लेकिन उम्मीद के न हों तो कोई महफूज़ कैसे रहे !
इसका यह अर्थ लगाऊँ ? अस्पष्ट सी है नज़्म।
... नकार का एक ही मूल्य होता है विकार । .. जिस समय यह लिख रहा हूँ आबिदा परवीन का सूफी कलाम बज रहा है - मेरा सोंणा सजन घर आया रे ss ... आमीन ।
आज फिर लाजवाब। आपा आप तो आप हैं। आप छा गयी हैं। मैं तो आज बहुत दिनों के बाद एक लम्बे प्रोजेक्ट पर काम करने के बाद थोड़ा फुर्सत में आया हूं। इसलिए माफी मांग कर अपनी दाद दे रहा हूं।
ReplyDeleteबहुत बढ़िया रचना .......चित्र भी लाजवाब
ReplyDeleteवाह क्या बात है ? क्या अदा है !!
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