उसकी उम्र मात्र १५ वर्ष की थी, अपने पिता की अर्थी को काँधा देते वक्त वो बिलख-बिलख कर रो पड़ा, लोग अभी तक कह रहे थे क्या कलेजा पाया है बच्चा, एक बूँद आंसू नहीं टपकाया है, एकदम 'बज्जर कलेजा' है इसका, कोई और होता तो उतान हो गया होता, लेकिन वाह रे खेदना मान गए हैं तुमको, सब बहुत खुश थे कि लड़का दुःख झेल गया है, अब सयान हो गया है, कलेजा होवे तो खेदना जैसा होवे....
लेकिन उसका बिलखना देख सबको अपनी बात झूठ होती नज़र आ रही थी, और अब सब उसे समझाने में लगे थे 'अरे नहीं बाबू, तुमको रोना शोभा नहीं देता, मरल आत्मा को आउर काहे मार रहे हो, सम्हारो अपना को, अभी तो ई सुरुआत है, अभिये से जी छोट करोगे तो आगे का होवेगा ???
मृत्युभोज के लिए खाने पर बैठी पंगत के आगे खेदना को खड़ा किया गया, चारों तरफ से सबकी निगाहें उसकी देह बींधती जा रही थीं , लग रहा था जैसे कोई मेमना फँस गया हो भेड़ियों के गिरोह में,
पंडित जी कह रहे थे.... 'अरे खेदना, एक ठो खाट, रजाई, गद्दा, चद्दर, धोती, साड़ी, जाकिट, ५ ठो बर्तन, चाउर-दाल, कुछ दछिना और बाछी दान में नहीं देते तो तुम्हारा बाप, यहीं भटकते रह जाता...उसका मुक्ति ज़रूरी था ना...ई मिरतुभोज भी बहुते जरूरी है... पुरखा लोग को भी तारना होता है भाई ...चलो अच्छा हुआ सूद में पैसा उठा लिए हो....अब कल से महाजन के हियाँ काम पर लग जाओ....बेटा का ईहे तो फरज है, येही वास्ते न लोग-बाग़ बाल बच्चा करता है, अरे तुम्हरा बाप का तकदीर नीमन था जो एगो बेटा जना...नहीं तो मुक्ति कहाँ मिलना था उसको....हमलोग बहुते खुस हुए हैं तुमसे....अब एक काम करो, तुम एतना बड़ा तो अब होइए गए हो, अब तुम जरा अपना बाप का जूता पहन लेवो तो ...!!
खेदना ने कातर नज़रों से पंडित जी को देखा ...लेकिन इनकार की कोई गुंजाइश नहीं थी...
पंडित जी हुलस कर बोले 'अरे पहिनो न...सुनाई नहीं पड़ रहा है का,...पहिनों...बुड़बक कहीं का !!!''
चमरौंध जूता में पाँव डाल कर खेदना फुसफुसाया 'ई तो बहुते ढीला है '
अरे तो का हुआ...हो जाएगा ठीक ...दो-चार साल में...हाँ और अब बोलो सबके सामने, हम अपना बाप का जूता पहिन लिए हैं....बोलो.....अरे बोलो न भकचोंधर कहीं के ...बोल !!
खेदना आंसू भरी नज़रों से सबको देखता रहा...शब्द स्फुटित नहीं हुए....
पंगत में बैठे सभी लोगों ने समवेत स्वर में कहा .... 'अरे खेदना एतना का फुटानी मार रहा है ...बोलता काहे नहीं है, बोलो ...अब हम अपना बाप का जूता पहिन लिए हैं '
इतनी सारी आवाजें शीशे की तरह कानों में जमने लगीं थी खेदना के..कहीं कान ही न बंद हो जाए...घबराया हुआ खेदना जोर-जोर से बोलने लगा 'हम अपना बाप का जूता पहिर लिए हैं ....हम अपना बाप का जूता पहिर लिए हैं.....हम अपना बाप का जूता पहिर लिए हैं '
न जाने कितनी बार वो बोलता ही चला गया ...
अब सभी लोग आश्वस्त होकर पत्तलों में पिल पड़े ..
पंडित जी ख़ुश थे ये सोचकर कि चलो, कल से खेदना महाजन के घर में सुबह से शाम ड्यूटी बजाएगा...नहीं तो महाजन को का जवाब देते भला...यही बात पर तो सूद पर नोट दिलवाए थे खेदना को, उसकी बची-खुची ज़मीन पर, अब खेदना तब तक महाजन के घर काम करेगा, जब तक कि इसका औलाद इसका जूता पहनने लायक न हो जाए..
चलो एक मुर्दा का तो उद्धार हो गया न...बाकी लोग कम से कम जिंदा तो हैं....!!
और मैं सोच रही हूँ क्या खेदना अब सचमुच जिंदा है ???
मयंक की चित्रकारी :
क्या कहें...?
ReplyDeleteपण्डे अपने ढंग से खाते हैं...और चांडाल अपने ढंग से...
जाने वाले का क्या...
पर जो ज़िंदा है...उसकी फ़िक्र जरूरी है...
अपना स्वार्थ सिद्ध हो,किसी के जान जाने से किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता ...शायद यही कुछ मतलबी और धूर्त लोगों कि पहचान है
ReplyDeleteविकास पाण्डेय
www.vicharokadarpan.blogspot.com
अदा जी...
ReplyDeleteहमने देखा है खूब आये दिन....गरीब मजदूरों को ... लाशों पर ओढ़ाए कपड़ों पर छीना झपट्टी करते हुए..
और लोग बाग़ हमसे कहते हैं...आप इन्हें मना नहीं कर सकते क्या...??
नहीं कर सकते मना....
क्यूंकि जानते हैं..जाड़ा मुर्दे को नहीं...जिंदे को लगता है...
उस नशेड़ी ड्राइवर को भी जानते हैं...जो एक दिन अर्थी के साथ ( शायद मृतक की अंतिम इच्छा पूरी करने के लिए ) लायी गयी...
और क्रिया कर्म के बाद वहीँ शमशान में छोड़ दी गयी शराब को कितने उतावले पन से पी गया था.....
बाद में हम से कहा गया उसके खिलाफ एक्शन लेने को...
मगर हम से नहीं लिया गया.....
हाँ,
हमें लगा के अगर बाद में मृतक को इसमें से कुछ मिलना होता होगा...
तो ऐसे मिल गया होगा....
जब आँखों में पानी खतम हो जाए तो ऐसा ही होता है.............
ReplyDelete..........
विश्व जल दिवस..........नंगा नहायेगा क्या...और निचोड़ेगा क्या ?...
लड्डू बोलता है ....इंजीनियर के दिल से..
http://laddoospeaks.blogspot.com/2010/03/blog-post_22.html
बहुत दर्द नाक इन सब मै हम इंसान को कहां ढूडे??यह दुनिया चांडालो ओर धुर्तो से भरई पडी है
ReplyDeletelaazwaab kahani main bhi patna ki hoon aur aaj chhoti bahan aai rahi use bhi padhaya ,bahut pasand aai kahani ,apni bhasha sun kar use achchha laga ,aese dakosale samaj ka kya kahna ?jise dukh me aanand lene ki sujhti hai ,kam karne ki bajaye badhane ke raaste talashte hai .aur kahte hai is samaj me milkar rahna chahiye .kya yahi dhang hai .kahani me sandesh hai .
ReplyDeleteयही तो अंतर है एक गरीब और अमीर में .. अमीर उत्तराधिकारियां पगडी पहनते हैं .. और गरीबों को जूत्ते ही मिलते हैं .. सही चित्रण !!
ReplyDeletePadhate,padhate man udas ho gaya!
ReplyDeletewaah bahut baddiya ji !!!
ReplyDeleteमृत्युभोज के लिए खाने पर बैठी पंगत के आगे खेदना को खड़ा किया गया, चारों तरफ से सबकी निगाहें उसकी देह बींधती जा रही थीं , लग रहा था जैसे कोई मेमना फँस गया हो भेड़ियों के गिरोह में,
ReplyDeleteअत्यंत मार्मिक विषय पर कलम उकेरी है
बहुत ख़ूब
यह कहानी खेदना की ही नहीं है वरन मृत्युभोज की उस मानसिकता की है जहाँ मृत्यु (किसकी??) एक उत्सव का कारण बनती है. जो मरा सो मरा पर जो उस मृत्यु के कारण मरा (खेदना) उसका क्या?
ReplyDeleteJEETE JI MAR DIYA USE SAMAJ NE . OHI!!!!!!!!!!!
ReplyDeleteऐसे खेदना पुश्त दर पुश्त खेदना बने जीते रहते हैं..
ReplyDeleteकितने खेदना हैं इस दुनिया में जो बस मरे जिये चले जा रहे हैं.
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हिन्दी में विशिष्ट लेखन का आपका योगदान सराहनीय है. आपको साधुवाद!!
लेखन के साथ साथ प्रतिभा प्रोत्साहन हेतु टिप्पणी करना आपका कर्तव्य है एवं भाषा के प्रचार प्रसार हेतु अपने कर्तव्यों का निर्वहन करें. यह एक निवेदन मात्र है.
अनेक शुभकामनाएँ.
nice
ReplyDeleteअंतरात्मा को छु गयी ये कहानी .......कैसे होते है वो लोग जिन्हें दूसरों का दर्द दिखाई नहीं देता ...
ReplyDeleteउदयपुर के आसपास जनजातीय क्षेत्र है। वहाँ मृत्युभोज पर सभी अपना आटा दाल लाते हैं और मिलकर भोजन बनाते हैं तथा साथ में खाते हैं। ऐसी परम्परा जो आपने लिखी है यदि आज भी कहीं जीवित है तो बड़ा खेद का विषय है।
ReplyDeleteअफ़सोस तो यही है कि यंहा मरे हुये के उद्धार के लिये ज़िंदा को जीते-जी मार डाला जाता है।बहुत ही कडुवा सच सामने रख दिया है आपने।
ReplyDeleteप्रेमचंदजी का " गोदान " याद आ गया ...
ReplyDeleteअच्छा लिखा ....
बधाई ...
वैसे महात्मा गांधी राष्ट्रीय रोज़गार गारंटी योजना शुरू होने के बाद देश में हालात बदल रहे हैं...लेकिन अब भी भ्रष्टाचार के चलते कई गांवों में गरीबों तक इसका सही तरीके से लाभ नहीं पहुंच पा रहा है...वहां अब भी महाजन, साहूकार पिस्सू की तरह गरीबों का खून चूसते रहते हैं...
ReplyDeleteआपकी ये कथा पढ़कर मदर इंडिया और दो बीघा ज़मीन फिल्मों की याद आ गई...
जय हिंद...
आप ने इसे पूरा कैसे किया!आँख ना भर आयीं होंगी आपकी!
ReplyDeleteशायद पहले आँख भरी होगी फिर ये लिखा गया होगा!
कुंवर जी,
sab apni apni jholi bhrte hai kisi ke dukh ki koi prvah nahi hai .kuritiyo ke nam jitna loot sakte hai luttete hai .vidmbna hai ki inrivajo ko koi todna nahi chahta .
ReplyDeleteअदा जी आज आपने दुखती राग पर हाथ रख दिया है...मुझे एक कुरीति का नाश करने का अधिकार दिया जाये तो भारत में मृत्यु पश्चात् के सारे रिवाज़ ही बंद करूंगी सबसे पहले..वहां लोग दुःख बाँटने नहीं बल्कि बाकी बचे जिन्दों को भी मरने आते हैं
ReplyDeletekuriti band krne ke liye svym ko phal karni pdti hai koi kisi ko adhikar nahi deta .
ReplyDeleteकल से मै इस बारे ही सोच रहा हुं, केसे ही यह दुनिया??? क्या सब मिल कर उस परिवार की मदद नही कर सकते? या यह जान बूझ कर किया जा रहा है, हे राम.... वेसे अभी जमाना तो बदल रहा है लेकिन वो भी खाते पीते घरो मे जिन्हे पेसो की परवाह नही,क्यो ना हम मंदिर मस्जिद मै चढावे के बदले किसी ऎसे परिवार की मदद मै आगे बढे....
ReplyDeleteभगवान ऎसे दुख ओर हालात किसी दुशमन को भी ना दिखाये
हमें अंग्रेजों से आज़ादी मिले तो ६२ साल हो गए लेकिन अपनी कुरीतियों से जाने कब आज़ाद होंगे।
ReplyDeleteअब इसे विश्वास कहें या अंध विश्वास या फिर धर्म भीरुता ?
इसी का फायदा उठा रहे हैं कुछ ढोंगी पंडित , बाबा और धर्म गुरु।
वैसे अदा जी , मयंक के लिए लड़की ढूंढ रहे है क्या ? :)
rula diya di.. aur ahsaas bhi dila diya ki samaj me hone walee aisi ghatnaon ke samne ham kitne bebas hain..
ReplyDeleteOh! bahut marmik .....aapane aaj premchandji ka satya aur dil ko chulene wala lekhan yaad dilaya...Aabhar!
ReplyDeleteलग रहा था जैसे कोई मेमना फँस गया हो भेड़ियों के गिरोह में...
ReplyDeleteaur tabhi khedna mar gaya tha....
यथार्थ !
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