तुम्हारी चोट से
मेरा दरकना लाज़मी तो नहीं,
मगर
कुछ बातें मेरे इख्तियार में भी नहीं
मुझे बार-बार तोड़ना,
फिर जोड़ना,
प्रिय शगल है तुम्हारा,
स्वामित्व का बोध कराता है
तुम सिर्फ मेरी हो !
पुख्ता
अहसास दिलाता है
मैं तुम्हें खुश होने देती हूँ,
इसलिए नहीं, कि मैं निर्बल हूँ
अपितु इसलिए कि,
मैं गर न टूटूं
तो तुम बिखर जाओगे
ख़ुद को अपने चारों ओर पाओगे
समेट सकती हूँ मैं तुम्हें,
लेकिन
तुम्हारे हर टुकड़े में
दंभ चस्पा है
जिसमें गोंद भी तो नहीं होती.....
और अब मयंक की चित्रकारी ....बताइयेगा ज़रा कैसी लगी...मेरा राजा बेटा है ना..उसकी तारीफ सुनना मुझे अच्छा लगता है....:):)
मयंक का तो कहना ही क्या हैं ? एक कुशाग्र माँ का कुशाग्र बेटा -बहुत सुन्दर और सशक्त अभिव्यक्ति !!
ReplyDeleteमगर यी धडाधड कवितायें कुछ लोगों में बहुतै कन्फ्यूजन पैदा कर रही हैं -
कोई आपको सिखा रहा था न कि आप भी अब चेहरों की असलियत जान गयी हैं और यह अच्छा हुआ
वे चेहरे कौन या कौन कौन है अदा जी ? मैं तो कभी मुख्य ह्रदय पथपर रहा ही नहीं किसी के ...
फरिया नहीं देगीं तो सचमुच कई लोगों का हर्ष विषाद बना रहेगा !
वूड यू प्लीज ?
मयंक की चित्रकारी प्रभावी है.
ReplyDeleteसमेट सकती हूँ मैं तुम्हें
लेकिन
तुम्हारे हर टुकड़े में
दंभ चस्पा है
जिसमें गोंद भी तो नहीं होती.....
-क्या बात है..बहुत बढ़िया.
कमाल की रचना और रेखा चित्र वाकई बहुत खूबसूरत हैं .
ReplyDeleteवाकई बहुत खूबसूरत हैं .
ReplyDeleteमैं गर ना टूटू तो तुम बिखर जाओगे ...तुम्हारे हर टुकड़े में दंभ चस्पा है ....जिसमे गोंद भी नहीं होती ...
ReplyDeleteमैं इसलिए ही तुम्हे टूटने नहीं देती ....
चोट खाकर भी खुद के दर्द से ज्यादा चोट पहुचने वाले को टूट कर ना बिखरने से बचने की यह ख्वाहिश .....हद है ......
मयंक के चित्र का तो कहना ही क्या ...??
sundar abhivyakti,
ReplyDeletemanyank ka rekhankan badhiya hai.
shubhkamnayen
बहुत अच्छी कविता।
ReplyDeleteबहुत अच्छी चित्रकारी।
मुझे बार-बार तोड़ना,
ReplyDeleteफिर जोड़ना,
प्रिय शगल है तुम्हारा...
और दो प्रिय के हाथ में फेवीकोल का डिब्बा...
मयंक, छोटे जहांपनाह...तुसी ग्रेट हो...
जय हिंद...
ह्रदय को छूती हुई बहुत ही भावपूर्ण प्रस्तुति !सामने वाले के दंभ कायम रखने के लिए स्वयं का टूटना भी जिसे मंज़ूर हो वह नारी ही हो सकती है ! सुन्दर रचना के लियर बधाई !
ReplyDeleteसुन्दर अभिव्यक्ति !
ReplyDeleteमयंक जी को शुभाशीष!
रेखाचित्र बढ़िया हैं!
चित्रकारी की विशेष समझ नहीं है अपने पास किन्तु चित्र अच्छे लगे!
ReplyDeleteBahut sundar chitrakari ...Mayankji ko Shubhkamanae!
ReplyDeleteRachana ka to kya kahun post hone ke pahale hi isane mujhe kayal bana liya tha :)
बहुत ही अच्छी रचना, और राजाबेटे की कला बहुत ही अच्छी।
ReplyDeleteनिवेश पर अधिकतम रिटर्न की गारंटी, पर फ़िर भी अच्छे रिटर्न नहीं दे पातीं बीमा कंपनियाँ क्यों...? (Return guaranteed highest NAV, but why Insurance Companies not gives best returns.. )
रचना और रेखांकन दोनो लाजवाब।आप का तो जवाब है ही नही और मयंक भी लाजवाब है।सच्ची तारीफ़ है एकदम सच्ची।
ReplyDeleteअकेले मंयक की तारीफ लिख दें तो चलेगा? कविता की तारीफ बिल्कुल ना करें? अरे भाई दोनों ही माँ-बेटे श्रेष्ठ हैं। लेकिन अब बैल के बहाने भड़कना तो बन्द करो। अदाजी आपका फोन लगाया था लेकिन लगा नहीं, कहीं कुछ नम्बर में शायद गलती हो गयी है और आपका समय भी बताएं। क्योंकि जब यहाँ दिन तो वहाँ रात। हम कैसे अंदाजा लगाएं कि आप कब सोती हैं और कब जागती हैं। वैसे तो आप हमेशा ही जागती हैं, और अपनी लेखनी से हमेशा ही सबको जगाती हैं। अरे इस बार आपने मेरी पोस्ट नहीं पढ़ी, पढिए आपको बहुत आनन्द आएगा।
ReplyDeleteांअज कहे देती हूँ मंयक बहुत होनहार बच्चा है। कमाल है इसकी चित्रकारी उसे बहुत बहुत आशीर्वाद।
ReplyDeleteअपितु इस लिए कि,
मैं गर न टूटूं
तो तुम बिखर जाओगे
ख़ुद को अपने चारों ओर पाओगे
समेट सकती हूँ मैं तुम्हें,
लेकिन
तुम्हारे हर टुकड़े में
दंभ चस्पा है
जिसमें गोंद भी तो नहीं होती.....
अदा जी कितनी सटीक रचना है। दिल को छू गयी। ये नारी मन भी क्या चीज़ है। शुभकामनायें
mayank ki chitrakaari ke sath aapki rachna bhi behad khoobsurat hai.
ReplyDeletepurush ke dambh par karara vaar........gazab ki prastuti.
ReplyDeleteaaj maine bhi kuch aisa hi lagaya hai is link par ---http://redrose-vandana.blogspot.com
mayank ki chitrkari to mom ki rachna se bhi badhiya hai.
"मैं तुम्हें खुश होने देती हूँ,
ReplyDeleteइस लिए नहीं, कि मैं निर्बल हूँ
अपितु इस लिए कि,
मैं गर न टूटूं
तो तुम बिखर जाओगे"
नारी होने का चरमोत्कर्ष..।
हां ! रेखाओं की गतियां बता रही हैं
अभिव्यक्ति की मासूमियत को ।
चित्रांकन के लिये मयंक को हार्दिक बधाई ।
आभार..।
मयंक की उम्र क्या है ?
ReplyDelete-
-
आप न भी कहतीं तो भी मैं जरूर कहता
बहुत अच्छी चित्रकारी है
राजा बेटा में बहुत संभावनाएं हैं
बहुत अच्छा हाथ है
पढाई के बोझ तले उसकी क्रियेटिविटी को
ओझल न होने दीजियेगा
-
-
ढेर सारा आशीष
समेट सकती हूँ मैं तुम्हें
ReplyDeleteलेकिन
तुम्हारे हर टुकड़े में
दंभ चस्पा है
जिसमें गोंद भी तो नहीं होती.
bahut sundar ada ji!
or mayamk ke to kahne hi kya bahut pratibhavaan hai..
वाह ! आज की रचना और रचना का शिल्प दोनों प्रभावित करता है ... बहुत खूब
ReplyDeleteमयंक का चित्र बतला रहा है की वो मुक्त हस्तकला में निपुण है
ReplyDeleteमयंक ने सच में बहुत अच्छा चित्र बनाया है,आप उनसे कहिये की इसी तरह से बनाते रहेगे तो एक दिन निपुणता आ जायेगी लेकिन निसंदेह अच्छी चित्रकारी.और आपकी कविता तो लाज़बाब.
ReplyDeleteविकास पाण्डेय
www.विचारो का दर्पण.blogspot.com
बहुत ही सुन्दर रचना और चित्र के तो कहने ही क्या । उम्दा । आभार दीदी
ReplyDeleteमैं गर न टूटूं
ReplyDeleteतो तुम बिखर जाओगे
ख़ुद को अपने चारों ओर पाओगे
संग रहने में अपना कुछ न कुछ तो खोना पड़ता है, कुछ अहम, कुछ वहम, कुछ तृष्णा ।
मेरी इस कविता को बहुत से लोगों ने ग़लत समझा है....लेकिन महिलाएं बिलकुल सही समझ गई हैं....यह कविता स्त्री-पुरुष के सम्बन्ध पर है...(अरविन्द जी आपका या किसी का भी इस कविता से कोई लेना-देना नहीं है ...बस महिला दिवस के अवसर पर एक महिला के विचार थे )
ReplyDeleteकुछ पुरुष सचमुच दिमाग से पैदल हैं....हाँ नहीं तो...
कितना अच्छा लगेगा अगर मयंक को आप कविता समझायें और उस पर वह चित्र बनाये ?
ReplyDeleteवैसे देखा जाये तो ये चित्र भी यहां फिट बैठ रहा है। कविता-रेखाचित्र दोनों ही सुंदर।
ReplyDeleteतारीफ करूँ क्या उसकी , जिसने इन्हें बनाया --
ReplyDeleteऔर जिसने इसे बनाया :)
बहुत ही भावपूर्ण प्रस्तुति...चित्रकारी प्रभावी है.
ReplyDeleteये आजमाईशें क्या जरूरी हैं जीने के लिये? शायद हां......। दो में से एक का तो ऐसा होना अवश्यंभावी है ही। और एक पक्ष यदि इस प्रश्नकर्ता सा हो जाये तो भी गनीमत है।
ReplyDeleteआपको खुश करने के लिये मयंक की झूठी वाहवाही (आज)नहीं कर पायेंगे क्योंकि आज अपना कम्प्यूटर विज़्युल्स स्पष्ट नहीं दिखा पा रहा है। आपकी रचना भी बहुत मेहनत करके पढ़ पाये हैं। वैसे मयंक के बनाये कृष्ण जी के चित्र पहले देख कर तारीफ़ कर चुके हैं, मयंक की, मयख की रचना की और आपकी रचना(मयंक) की।
सुन्दर कविता...
ReplyDeleteमयंक की रेखाएं...दिन ब दिन सशक्त हो रही हैं.....कभी किसी को नहीं बनाया पर शायद एक दिन उसे ही उस्ताद बना लें हम...
अब क्यूंकि वक़्त कम है समझने के लिए आजकल...
सामने कविता भी है और स्केच भी.... और दिमाग खाली हो चुका है अपना....
सो हाथ जोड़कर विनती है के मयंक बेटे से पता करवा दीजिये के नीचे वाली तस्वीर में अगला दांयाँ पाँव क्या सोच के बनाया है...!
है एकदाम सही....मगर क्या सोच कर है..बस ये जानना चाहते हैं...
क्यूंकि एक बिन्दु भी कोई डाले तो कोई भी दूसरा उस पर सिर्फ कयास लगा सकता है....कन्फर्म नहीं कर सकता....
हम गलत कह रहे हों तो आपके ही ब्लॉग पर साइड में लगी मोनालिसा से पूछ लीजिये..
sunader rachana or khoobsurat chitrakari.
ReplyDeletesunader rachana or khoobsurat chitrakari.
ReplyDeleteHello,
ReplyDeleteNice composition and like always brilliantly written.
And wonderful drawing by your son!!
Hats off to you and him!!
Regards,
Dimple
बढ़िया भाव निहित बढ़िया रचना....मयंक जी तो बड़े अच्छे कलाकार निकले...अच्छी पेंटिंग्स...मयंक जी को बहुत बहुत शुभकामनाएँ
ReplyDeleteचोट देकर
ReplyDeleteउन्हे खुश होने तो दो
अपने प्रिय खिलोने
अहम से
उन्हे खेलने तो दो..!
इस एहसास में
जब डूब जायें वो
निर्बल समझ
ठूठ से जब
अकड जायें वो..
तब जरा गरज के
दिखाना सखी,
थोडा लरज के
सिमट जाना सखी !
जब दंभ उनका
बीखरणे लगे
तब गोद अपनी
फैला के जताना उन्हे
कि कितने कमजोर है
खिलोने ये उनके
अहम, दंभ, स्वामित्व ...
के एहसास
खुद के लिए ही
कितने खोखले और
खुद से ही दूर है उनसे..!
कितने कमजोर है वो..
बस खामा-खा के ही सिरमौर है वो..
इससे पहले कमेंट में मयंक की जगह मयख लिखा गया, सॉरी।
ReplyDeleteफ़ारसी में एक वाक्य है, "यक न शुद, दो शुद" यानि एक ही कम न था तो दो कहां कम होंगे"-
हम तो आप की रचनात्मकता देखकर ही बेहोश हो जाया करते हैं, आप के राजा बेटा की तूलिका का प्रवाह देखकर बहुत अच्छा लगा।
आप सभी को शुभकामनायें,
और हां (वाह-वाह) * २
Poem is subtle,ponderous and at the same time, revealing the plundered truth.
ReplyDeleteतुम्हारे हर टुकड़े में
ReplyDeleteदंभ चस्पा है
जिसमें गोंद भी तो नहीं होती.....
चंद सतरें जो खास पसंद आयी
मेरी इस कविता को बहुत से लोगों ने ग़लत समझा है....लेकिन महिलाएं बिलकुल सही समझ गई हैं....यह कविता स्त्री-पुरुष के सम्बन्ध पर है...(अरविन्द जी आपका या किसी का भी इस कविता से कोई लेना-देना नहीं है ...बस महिला दिवस के अवसर पर एक महिला के विचार थे )
ReplyDeleteकुछ पुरुष सचमुच दिमाग से पैदल हैं....हाँ नहीं तो...
March 9, 2010 7:40 PM
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हा! हा! मैं बच गया इसी लिये comment नही कर रहा था!!!!
मैं यहाँ आया था समीर जी के गीत को आप और संतोष जी द्वारा सुर-स्वर देने से प्रभावित होकर, और जा रहा हूँ मयंक का 'फ़ैन' हो कर, फिर आने के लिए।
ReplyDeleteमयंक की प्रतिभा अद्भुत है, उसे ढेरों आशीष। हो सके तो उसकी कृतियों को सहेज कर एक ब्लॉग पर, चाहे पोस्टरस पर ही, प्रस्तुत करें तो अच्छा होगा। यह भेद भी थोड़ी देर टहलने घूमने पर खुल ही गया कि आप को मयंक की माँ होने का गौरव प्राप्त है, अत: पुन: आपको भी बधाई।
संतोष जी की जितनी प्रशंसा की जाए कम है, मगर प्रज्ञा_पापा वाला गीत भी अच्छा बन पड़ा है। देखिए मैं बहुत क़रीने से जीने वाला व्यक्ति नहीं हूँ सो बातें भी बेतरतीब ही करता हूँ। क्या संतोष जी से और मयंक से सीधे बात नहीं हो सकती?
खैर, बहुत अच्छा लगा, आज जाल पर टहलना सफल हो गया। बहुत दिनों बाद अच्छे कलात्मक कृतित्व से भेंटने का अवसर मिला। साहित्य तो मिल ही रहा है, रोज़ाना छह-छह घण्टे के अंतर पर तीन-तीन कैप्सूल।
विदा…
"मैं तुम्हें खुश होने देती हूँ,
ReplyDeleteइसलिए नहीं, कि मैं निर्बल हूँ
अपितु इसलिए कि,
मैं गर न टूटूं
तो तुम बिखर जाओगे"
बहुत खूब ! ये सिर्फ एक नारी की ही सोच हो सकती है