व्यवस्था के मोहरे
व्यवस्था की आड़ में
व्यवस्था के सहारे
नित नई व्यवस्थित चाल
चल रहे हैं
और भेंट चढ़ जाते हैं
कितने ही व्यवस्थित
जीवन,
समझ कहाँ पाते
इस व्यवस्था को
जो सिर्फ झूठ के
फर्श पर खड़ी है
न जाने कितने छेद लिए हुए
वो भी बिना पैरों के
समझने से पहले ही
ये फर्श बन
जाती है,
और तब तुम सिर्फ
अपना सर ही पटक सकते हो......
मयंक की चित्रकारी....
व्यवस्था के सहारे
नित नई व्यवस्थित चाल
चल रहे हैं
और भेंट चढ़ जाते हैं
कितने ही व्यवस्थित
जीवन,
समझ कहाँ पाते
इस व्यवस्था को
जो सिर्फ झूठ के
फर्श पर खड़ी है
न जाने कितने छेद लिए हुए
वो भी बिना पैरों के
समझने से पहले ही
ये फर्श बन
जाती है,
और तब तुम सिर्फ
अपना सर ही पटक सकते हो......
मयंक की चित्रकारी....
बहुत गंभीर रचना
ReplyDeleteऔर
मयंक की चित्रकारी-क्या कहने!
और भेंट चढ़ जाते हैं
ReplyDeleteकितने ही अव्यवस्थित
जीवन,
और फिर व्यवस्थित जीवन भी तो इन चालों से अव्यवस्थित हो जाते हैं.
व्यवस्था के मोहरे
ReplyDeleteव्यवस्था की आड़ में
व्यवस्था के सहारे
नित नई व्यवस्थित चाल
चल रहे हैं
और भेंट चढ़ जाते हैं
कितने ही अव्यवस्थित
जीवन
सुन्दर संयोजन
स्वागत
भारत में रोज़ व्यवस्था के आगे सिर ही तो पटकना पड़ता है...शायद यही हमारी नियति है...
ReplyDeleteमयंक को दस में से दस...
जय हिंद...
बहुत ही सुन्दर प्रस्तुति ।
ReplyDeleteबहुत गंभीर रचना
ReplyDeleteगहरी अभिव्यक्ति .......मयंक कि चित्रकारी लाजवाब .
ReplyDeleteअदा जी!
ReplyDeleteअकविता लिखने में भी आपका जवाब नही है!
व्यवस्था पर आपकी कविता बहुत अच्छी बन पड़ी है!
प्रियवर मयंक के उज्जवल भविष्य की कामना करता हूँ!
सबसे पहले तो मयंक से कहिये..कि हमारी टोपी हमसे पूछे बिना इस्तेमाल ना करे...
ReplyDelete:)
और दूसरा...
व्यवस्था ....
समझ कहाँ पाते
इस व्यवस्था
और कहना कि जब वो इस व्यवस्था को समझ ले...जान ले...
तो बिना अपने फायदे की सोचे....इसे तोडना शुरू कर दे....
पर ध्यान से...
इस व्यवस्था तोड़ने का फायदा बहुत से असामाजिक तत्व भी उठाते हैं..
ठीक वैसे ही...
जैसे ग़ज़ल के कायदे तोड़ने का फायदा वो लोग भी उठा जाते हैं जो शायर नहीं होते....
आर्ट के कायदे तोड़ने का फायदा वो लोग जो...
एनीवे....
"अपना सर ही पटक सकते हो......"
ReplyDeleteसकते हो?
सिर ही तो पटक रहे हैं।
बहुत सुंदर और ’व्यवस्थित’रचना
ReplyDeleteव्यवस्था के मोहरे
व्यवस्था की आड़ में
व्यवस्था के सहारे
नित नई व्यवस्थित चाल
चल रहे हैं
और भेंट चढ़ जाते हैं
कितने ही व्यवस्थित
जीवन,
वाह!अव्य्वस्था का कच्चा चिट्ठा खोल कर रख दिया है आप ने
सच यही है।
ReplyDeleteउम्दा रचना।
बहुत यथार्थपरक रचना. मयंक की ब्रश मे एक मंजा हुआ चित्रकार दिखाई देरहा है मुझे तो. शुभकामनाएं.
ReplyDeleteरामराम.
यथार्थ लेखन।
ReplyDeleteव्यबस्था...दाल ही काला है...और सारा गुड़ गोबर.....
ReplyDelete...........
विश्व गौरैया दिवस-- गौरैया...तुम मत आना....
http://laddoospeaks.blogspot.com
बहुत गंभीर भाव लिये है आप की यह कविता
ReplyDeletelajawab kavita aur spiderman dono.. :)
ReplyDeleteव्यवस्था से फ़ैली अव्यवस्था के जिम्मेदार कौन ....
ReplyDeleteसमंदर के किनारे बैठ कर गहराई की बात नहीं किया करते ...
व्यवस्था को मात व्यवस्था का अंग बन कर ही दी जा सकती है ...
स्पाईडर मैंन अच्छा लग रहा है ...!!
सत्य है ।
ReplyDeleteवाणी जी,
ReplyDeleteव्यवस्था में तो आप भी हैं...ठीक कीजिये न :)
कई व्यवस्थित चाल तो हमें भी अव्यवस्थित कर जाती हैं ।
ReplyDeleteबढ़िया प्रस्तुति और मयंक की चित्रकारी के तो क्या कहने ।
सब व्यवस्था के ही मारे है..और सब ही अव्यवस्थित ... इसकी भी हमे आदत लग जाती है..
ReplyDeleteव्यवस्था के प्रति विद्रोह की बिलकुल सही मानसिकता इस कविता मे दृष्टिगोचर होती है .. इसमें छेद ही सही लेकिन इसे भेदना ही होगा ।
ReplyDeleteबहुत बढ़िया
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