ख़यालों का आना-जाना था, किसी से किसी का सिला नहीं
ख़ुद पर ही कभी रंज हुए और कभी किसी से गिला नहीं
पत्तों का जब आग़ोश मिला, शबनमी नूर बस दमक उठा
बदली में चाँद वो छुपा रहा, रौशन अब कोई काफ़िला नहीं
तस्सवुर में उनका आना भी क्या, आना है अब तुम ही कहो ?
पशे हिज़ाब है माहताब और नज़रों में वो गुल खिला नहीं
दिल चीर के हमने ग़ज़ल कही जज़्बात उफ़न कर चौंक गए
टटोल के देखा था अन्दर कोई ज़िगर कोई गुर्दा हिला नहीं
दिल बन जाए निग़ाह मेरा और निग़ाह बने है दिल की जुबाँ
दोनों ही लिपट कर बैठ गए, दोनों का कोई मुकाबिला नहीं
ग़ज़ल का आख़िरी शेर तो पूरी ग़ज़ल पर ही भारी पड़ रहा है.बहुत सुंदर.
ReplyDeleteयहाँ आकर तो यही निकलता है ..
ReplyDeleteवाह वाह !!!
जुदा अन्दाज़ और बयान का सलीका
ReplyDeleteदिल बन जाए निग़ाह मेरा और निग़ाह बने है दिल की जुबाँ
ReplyDeleteदोनों ही लिपट कर बैठ गए, दोनों का कोई मुकाबिला नहीं.
क्या बात है , वाह , वाह
अच्छी रचना अच्छा चित्र
अदा जी , एक लम्बी चौड़ी ग़ज़ल बनाईये....
हमें किसी की तारीफ करना भी सिखाइए....
आजकल हम हर रोज ऐसी रचनाएँ पढ़ रहे है...
की तारीफ में शब्दकोष के शब्द पुराने लग रहे हैं
वाह!
ReplyDeleteदिल चीर के हमने ग़ज़ल कही जज़्बात उफ़न कर चौंक गए
टटोल के देखा था अन्दर कोई ज़िगर कोई गुर्दा हिला नहीं
बहुत खूब..आनन्द आया.
सुन्दर गजल।
ReplyDelete१०.०३.१९८५
ReplyDeleteगाईड की वी सी पी लेकर आया हूँ. जब पहली बार देखी थी तब भी अंत ने बहुत प्रभावित किया. इतनी रूमानी सी मूवी का इतना दार्शनिक अन्त? रोज़ी (वहीदा) की सेक्सुअल डिजायर को बिना मूवी को अश्लील बनाये दिखाने में विजय आनंद पूर्णतया सफल रहे हैं. बेशक इसका उपन्यास नहीं पढ़ पाया आज तक, पर मेरी 'टू डू' लिस्ट में हमेशा से ही है. मि. मल्होत्रा कहते है,
"यू मस्ट रीड इट. इट'स अ जेनुइन इंडियन क्लासिक. मूवी में वो बात कहाँ?".
दिल चीर के हमने ग़ज़ल कही जज़्बात उफ़न कर चौंक गए
ReplyDeleteटटोल के देखा था अन्दर कोई ज़िगर कोई गुर्दा हिला नहीं...
आजकल जो गज़ब आप लिख रही हैं ...दिल से आगे बढ़ता ही नहीं होगा ...इसलिए जिगर गुर्दा हिला नहीं ...
पत्तों का जब आग़ोश मिला, शबनम का नूर बस दमक उठा
बदली में चाँद वो छुपा रहा, रौशन अब कोई काफ़िला नहीं
तस्सवुर में उनका आना भी क्या, आना है अब तुम ही कहो ?
पशे हिज़ाब है माहताब औ नज़रों में कोई गुल खिला नहीं...
हम तो अटके पड़े हैं इन पंक्तियों ...हमर दिल जिगर तो वैसे भी किसी काम का रहा नहीं है ...:):)
दिल चीर के हमने ग़ज़ल कही जज़्बात उफ़न कर चौंक गए
ReplyDeleteटटोल के देखा था अन्दर कोई ज़िगर कोई गुर्दा हिला नहीं
....वाह!
अदा जी , अपना तो जिगर भी हिल गया और गुर्दा भी । आजकल ग़ज़ल लिखना सीख रहे हैं । लेकिन सच मानिये , इतना मुश्किल तो मेडिसिन सीखना भी नहीं लगा । फ़ायलुन , फायलातुन , मफाईलुन इत्यादि ।
ReplyDeleteवाह वाह !!!
ReplyDeleteदिल चीर के हमने ग़ज़ल कही जज़्बात उफ़न कर चौंक गए
ReplyDeleteटटोल के देखा था अन्दर कोई ज़िगर कोई गुर्दा हिला नहीं
दिल बन जाए निग़ाह मेरा और निग़ाह बने है दिल की जुबाँ
दोनों ही लिपट कर बैठ गए, दोनों का कोई मुकाबिला नहीं..
बहुत खूबसूरती से बयां कर दिया ....खूबसूरत ग़ज़ल...या यूँ कहें की गज़ब है ...
दिल बन जाए निग़ाह मेरा और निग़ाह बने है दिल की जुबाँ
ReplyDeleteदोनों ही लिपट कर बैठ गए, दोनों का कोई मुकाबिला नहीं.
क्या बात कही.....वाह....यह शेर तो मारक है....
बहुत ही सुन्दर रचना...
दिल चीर के हमने ग़ज़ल कही जज़्बात उफ़न कर चौंक गए
ReplyDeleteटटोल के देखा था अन्दर कोई ज़िगर कोई गुर्दा हिला नहीं
आकिर यह दिल था किस का?.. फ़िर उस दिओल को सीला की नही, इस सुंदर ओर खुनी गजल के लिये आप का धन्यवाद
दिल चीर के हमने ग़ज़ल कही जज़्बात उफ़न कर चौंक गए
ReplyDeleteटटोल के देखा था अन्दर कोई ज़िगर कोई गुर्दा हिला नहीं
kitni bakhubi se aur payri see baat kahi hai...aapne Ada jee!!
aap jaiso ko padh kar bahut kuchh seekhne ko mila hai...!!
सच कहें तो गज़ल की बारीकियाँ नहीं जानते लेकिन जो चीज अच्छी होती है वो अच्छी लग ही जाती है, जैसे आज की अपकी यह गज़ल।
ReplyDeleteसारे शेर एक से बढ़कर एक, चौथे शेर की दूसरी पंक्ति में क्या कहना चाहा है आपने, मुझे स्पष्ट नहीं हो पाया। आपकी आलोचना नहीं है, अपनी अक्षमता बताई है। अन्यथा न लीजियेगा।
प्रति शेर एक वाह-वाह के हिसाब से साढ़े चार वाह-वाह।
सदैव आभारी।
मन की पेचीदियों को सलीके से कह जाने में आपका भी मुकाबिला नहीं ।
ReplyDeleteलाजवाब गज़ल .......बहुत खूब
ReplyDelete"पशे हिज़ाब है माहताब और नज़रों में वो गुल खिला नहीं" यह पंक्ति सर के ऊपर से निकल गई। बाकी तो गज़ब की ग़ज़ल है। शब्दों के ख़जाना अभी भरा नही। (अपने लिये लिखा हूं)।
ReplyDeleteसूर्यकांत जी,
ReplyDeleteपशे हिज़ाब है माहताब..........हिज़ाब का अर्थ घूंघट या नकाब., पशे =पीछे , माहताब=चाँद
इस पंक्ति अर्थ हुआ...
प्रेमी की शिकायत है कि ख़यालों में भी जब प्रेमिका आती है तो परदे में होती है...
घूंघट के पीछे चाँद सा चेहरा छुपा हुआ है....और मेरी आँखों में फूल सा चेहरा नज़र नहीं आता...
आशा है कुछ बात समझ में आयी होगी.....
मेरी जितनी समझ है उतना ही लिख पाती हूँ....आपलोग पढ़ते हैं वही बहुत बड़ी बात है....
सचमुच शुक्रगुजार हूँ....
'अदा'
बहुत अच्छी प्रस्तुति।
ReplyDeleteइसे 27.06.10 की चर्चा मंच (सुबह 06 बजे) में शामिल किया गया है।
http://charchamanch.blogspot.com/
मनु जी,
ReplyDeleteआपका ये बिना सिर-पैर का कमेन्ट न मुझे समझ में आया न ही मेरे पाठकों को आया होगा...
इस कमेन्ट का मेरी कविता से कोई लेना-देना नहीं है...थोडा सोच समझ कर कमेन्ट किया कीजिये..
Kahun to bhi kya...?
ReplyDeleteदिल चीर के हमने ग़ज़ल कही जज़्बात उफ़न कर चौंक गए
टटोल के देखा था अन्दर कोई ज़िगर कोई गुर्दा हिला नहीं
mujhe gazal ka kuchh bhi gyaan nahi, par aa jata hun padhne bhatakta hua.
Aur aaj dil, jigar, gurda, hath pair, dimaag, nasein...sab hil gaye
behad khubsurat hai har sher..
Likhti rahein...