मैं बहुत सेलेक्टिव हूँ
अपने पिता को अपनी माँ
से ज्यादा प्यार करती हूँ
लेकिन मैं माँ पर भी मरती हूँ
मुझे सफ़ेद साड़ी ज्यादा पसंद है
क्योंकि वो मुझपर फब्ती है
फिर भी कोई-कोई काली साड़ी
भी मुझ पर जंचती है
मुझे मीठा पसंद है
मैं खट्टा नहीं खाती हूँ
लेकिन आम का अचार
चट कर जाती हूँ
मुझे लता से ज्यादा आशा
भाती है
जबकि मैं जानती हूँ
लता कितना अच्छा गाती है
मैं बात सबसे करती हूँ
पर दिल में एक को बसाती हूँ
शायद ये कमियाँ हैं मुझमें
लेकिन मुझे इनपर नाज़ है
ये दुर्गुण ही सही मेरे मनुष्य
होने का प्रमाण तो देते हैं
यहाँ अवतारों की बड़ी भीड़ है
ये मुझे अलग खड़ा कर देते हैं
मैं यहाँ कुछ और
वहाँ कुछ कह जाती हूँ
कभी कभी तो मौन ही रह जाती हूँ
क्योंकि मैं उत्तम बनने का कोई
उपक्रम नहीं करती हूँ
मैं जो हूँ वही दिखती हूँ
स्वीकारना है स्वीकारो मुझे
माना तुम अवतार हो
पर मुझे प्रमाण पत्र
देने की हैसियत
अभी तुम्हारे पास नहीं
माना तुम अवतार हो
पर मुझे प्रमाण पत्र
देने की हैसियत
अभी तुम्हारे पास नहीं
आज सुन लो तुम्हें बताती हूँ
मैं देवी बनने से कतराती हूँ.....
आज सुन लो तुम्हें बताती हूँ
ReplyDeleteमैं देवी बनने से कतराती हूँ....
निशब्द हुआ मैं तो
...अबहुत खूब !!!
ReplyDeleteमैं यहाँ कुछ और
ReplyDeleteवहाँ कुछ कह जाती हूँ
कभी कभी तो मौन ही रह जाती हूँ
मौन रहना भी तो अभिव्यक्ति का एक सशक्त साधन है शायद
बहुत सुन्दर रचना
देवी बनने की चाहत ही मुखौटे चढ़ाती है। वास्तविकताओं पर पर्दे डालती है और रिश्ते तो क्या दोस्ती भी झूठ और फरेब की भेंट चढ़ जाती है। बहुत ही अच्छी कविता, बधाई।
ReplyDeleteबहुत अच्छी कविता.
ReplyDelete...बधाई.
बहुत अच्छा सोच है। देवी बनने की कहां दरकार है।स्त्री तो जन्म से ही देवी है। कुछ भी बनने की कौशिश ही घातक है। न बनो,न बनाओ ! सब स्वभाविक चलने दो!
ReplyDeleteबहुत खूब !!!
ReplyDelete:)
ReplyDeleteमनुष्य होने के सारे अवगुण तो हममे भी है ...
ReplyDeleteसिर्फ एक के सिवा ...
ki कहीं कुछ कही कुछ बोल जाती हूँ मैं ..
मुझे लगता नहीं कि आज के इस युग में कोई देवी या ईश्वर बनना चाहता होगा ...थोड़ी कमियां थोड़ी खूबियों के साथ सभी इंसान ही बने रहना चाहते हैं ... रावण , कंस और शूर्पनखा बनने की चाहत रखने से बेहतर इंसान बनना ही ठीक है
ओह! सो सेलेक्टिव!!
ReplyDeleteअच्छा रहा यह जानना!! :)
ङम तो अदा जी को आदा देवी जी ही कहेंगे!
ReplyDeleteइंसान ही बने रहे ...यही ठीक ...!!
ReplyDeleteअच्छी कविता ..
wow !!!!!!!
ReplyDeletebahut khub
...अबहुत खूब !!!
वाणी जी ने कहा :
ReplyDeleteमनुष्य होने के सारे अवगुण तो हममे भी है ...
सिर्फ एक के सिवा ...
ki कहीं कुछ कही कुछ बोल जाती हूँ मैं ..
मुझे लगता नहीं कि आज के इस युग में कोई देवी या ईश्वर बनना चाहता होगा ...थोड़ी कमियां थोड़ी खूबियों के साथ सभी इंसान ही बने रहना चाहते हैं ... रावण , कंस और शूर्पनखा बनने की चाहत रखने से बेहतर इंसान बनना ही ठीक है
वाणी जी,
लगता है आप मेरी कविताओं को समझ नहीं पाई हैं....
मेरी किसी भी कविता में मैंने ऐसी कोई इच्छा जाहिर नहीं की ...बस इन चरित्रों को थोडा सा मौका दिया है अपनी अच्छाइयों को उजागर करने का वर्ना....इन चरित्रों को कालिख के सिवा कुछ नहीं मिला है...और हम सभी जानते हैं कोई भी व्यक्तित्व ....absolute black या absolute white नहीं होता ...भगवान् भी नहीं...
आपने कई बार मुझे उलाहना दिया है...मेरे एक कमेन्ट के बारे में...लेकिन एक कमेन्ट की तुलना में सैकड़ों कॉमेंट्स को बिलकुल दरकिनार करना कहाँ तक उचित है...आप ख़ुद सोचिये....
कहीं की भड़ास कही निकालना उचित नहीं है ...
ReplyDeleteमैं कहाँ कुछ समझ पाती हूँ ...तुझसे बेहतर कौन जानता है ...
तेरे कमेन्ट पर उलाहन कब दिया ...मुझे कुछ याद नहीं आ रहा है ...:)
मैंने कमेन्ट पर उलाहना नहीं दिया था ...ये कहा था कि एक जैसी पोस्ट पर दो अलग तरह की प्रतिक्रिया मुझे परेशान करती है यदि वो किसी खास अपने की हो ...
फिर भी टोकना और उलाहना तो तुझे देती रहूंगी ...मैं अपना अधिकार समझती हूँ तुझ पर ...
मन की भड़ास निकलती रहनी चाहिए ... तुझे भुनभुनाते हुए देखना भी अच्छा ही लग रहा है ....:):)
थोडी बहुत कमी तो यहा हर किसी मे है
ReplyDeleteदरिया भी खूबियो का मगर आदमी मे है
उसके गुनाह की सजा औरो को क्यू मिले
कि चन्द्रमा का दाग कही चान्दनी मे है
(डा. कुवर बेचैन)
you are awesome ! आप जब भी लिखती हैं निरुत्तर कर देती हैं. अलग-अलग बातों में सेलेक्टिव होना ही लोगों को अलग व्यक्तित्व देता है. इसलिए इससे घबराना नहीं चाहिए. प्रसंग क्या है, नहीं मालूम पर आपकी कविता हमेशा की तरह लाजवाब है.
ReplyDeleteyou are awesome ! आप जब भी लिखती हैं निरुत्तर कर देती हैं. अलग-अलग बातों में सेलेक्टिव होना ही लोगों को अलग व्यक्तित्व देता है. इसलिए इससे घबराना नहीं चाहिए. प्रसंग क्या है, नहीं मालूम पर आपकी कविता हमेशा की तरह लाजवाब है.
ReplyDelete
ReplyDeleteमास्तु, इदम अधिकं भवति
bhut aasan hai apne ko ughadte jana pr jhan tk ughd chuke ho vhan tk hi shi kuchh to sesh bcha rh jaye
ReplyDeleteek koshish hi mnushyta ki phli sidhi hai aur yhi to devtv ka rasta hai jo bhut kthin hai
dr. ved vyathit
देखा..... देखा.... ही ही ही ही ..... मैं ना कहता था कि रोमन हिंदी की चीथड़े - चीथड़े उड़ेंगे.... ही ही ही .... नाम बड़े दर्शन छोटे.... एक्ज़ाम्पल तो देख ही लिया है.... ही ही ही ही ...
ReplyDelete:)
ReplyDeleteपसंदों, नापसंदों में जीवन को बाँध देना तो मूढ़ता हुयी । जिस समय जो अच्छा लगे, वही जिया जाये । आप किसी खाँचे में क्यों बैठें । नभ का, पवन का कोई खाँचा है ?
ReplyDeleteselection पर एक शेर याद आ गया है, हाज़िर है:-
ReplyDeleteतंग दामन, वक़्त कम, गुल बेहिसाब,
इंतेखाब, ए दस्ते गुलचीं, इंतेखाब.
--
आज सुन लो तुम्हें बताती हूँ
ReplyDeleteमैं देवी बनने से कतराती हूँ....
hmm, hmm ..hmm..sahi hi hai na :)