Friday, June 25, 2010

झूठ का इक सूर्य बन कर ढल रहा है आदमी ....


ज़मीर का एक सलीब ढोए चल रहा है आदमी
ताबूत में हैवानियत के पल रहा है आदमी  

मौत से पीछा छुड़ाना कब कभी मुमकिन हुआ 
सीने से उसको लगाये बस जल रहा है आदमी

हुस्न से यारी कभी, और कभी दौलत पर फ़िदा  
और कभी ठोकर में इनकी, पल रहा है आदमी

क्या रखा ग़ैरत में बोलो क्या बचा उसूल में
हर घड़ी परमात्मा को छल रहा है आदमी  

ख्वाहिशों ख़्वाबों का साग़र इक छलावा बन गया 
झूठ का इक सूर्य बन कर ढल रहा है आदमी