Monday, June 7, 2010

इस तरह के affairs मान्य नहीं होते हुए भी जीवन में कितने रंग भर देते हैं...


आज कल पूर्णिमा में बहुत बदलाव देख रही हूँ...
पूर्णिमा एक खूबसूरत सी लड़की जो मेरी कलीग है, आज तक उसे अपने काम से काम रखते हुए, चुपचाप काम करते हुए और सच पूछा जाए तो कुछ उदास सा ही देखा था....उसके पति  हैं और उसके दो बेटे हैं...

हमारे ऑफिस में कई हिन्दुस्तानी हैं...सबको आदत थी, अंग्रेजी में ही गिटिर-पिटिर करने की, मैंने एक दिन सबको एक जगह इकठ्ठा किया और साफ़-साफ़ कह दिया ...कि देखो भईया कितना भी अंग्रेजी माहौल है ...आपस में हम हिंदी में ही बात करेंगे...वो दिन और आज का दिन हम हिंदी में ही बात करते हैं....हाँ यहाँ के अंग्रेजों को 'विश्वनाथ' (ये भी कलिग है) का मुझे 'सर' कहना ज़रूर अटपटा लगता है, कई लोगों ने टोक भी दिया...'Why you call her sir ?' और वो हंस कर कह देता है 'Because she is my sar'..मैं भी मुस्कुरा कर रह जाती हूँ...लेकिन विश्वनाथ का मुझे 'सर' कहना मुझे भी अच्छा ही लगता है, विश्वनाथ लम्बे कद का खूबसूरत सा लड़का है, साउथ इंडियन है, अकसर हम साथ बैठ कर लंच करते हैं, और हर दिन वो अपनी रेसिपी बताता है कि आज उसने कैसे लंच बनाया ...अक्सर वो ख़ुद ही लंच बना कर लाता है , वो भी माइक्रोवेव में...उसकी भी शादी हो चुकी है, उसकी पत्नी से मिली हूँ, बहुत ही मोडर्न और स्ट्रोंग हेडेड लड़की है ...लंच के समय हमलोग आपस में खाना शेयर कर लेते हैं...और हमेशा देखती हूँ पूर्णिमा ज्यादा खाना लाती है....विश्वनाथ को पहले ऑफर करती है, विश्वनाथ अपना खाना किनारे रख देता है और पूर्णीमा का ही खाना खा लेता है...पहले वो झिझकता था लेकिन अब नहीं...
जबसे हमलोगों ने इकट्ठे लंच करना शुरू किया है....पूर्णिमा और विश्वनाथ में काफी बदलाव देख रही हूँ...

पूर्णिमा के चेहरे पर अजीब सी ख़ुशी दिखती है...उसके बनाव सिंगार से ही लगता है कि उसे ऑफिस आना अच्छा लगता है...अब वो टाइम से ऑफिस में होती है...चेहरे पर रौनक है और होठों पर मुस्कुराहट...विश्वनाथ में भी एक तरह का बदलाव देखा है...हंसमुख तो है ही वो,  अब ज्यादा चंचल हो गया है...आँखों में अजीब से लाल डोरे नज़र आने लगे हैं..और एक रहस्यमयी मुस्कराहट भी...
अक्सर देखती हूँ..पूर्णिमा और विश्वनाथ को एक दूसरे की आँखों में झांकते हुए....कहते हैं न 'इश्क और मुश्क छुपाये नहीं छुपते'...ऐसा ही कुछ यहाँ भी हो रहा है....
ये सबकुछ देख कर मन में एक ख़याल आया कि....इस तरह के affairs मान्य नहीं होते हुए भी जीवन में कितने रंग भर देते हैं...इन्सान फिर जीना चाहता है,  ख़ुद से एक बार फिर प्यार करने लगता है....नवजवान महसूस करने लगता है....
पूर्णिमा अब आईना देखने लगी है...वो जीने लगी है..वो पूर्णिमा जो कभी मुस्कुराती नहीं थी अब मुस्कुराने लगी है, ख़ुश है.....मैं पूर्णिमा को ख़ुश देख कर बहुत ख़ुश हूँ....परन्तु जीवन की विडंबना पर हैरान हूँ ...पूर्णिमा बहुत ख़ुश तो है, 
लेकिन कब तक ! मन में कहीं एक भय है ...क्या यह सबकुछ सही है ?
आप से पूछती हूँ, क्या इस रिश्ते को ग़लत माना जाएगा ......??
अगर माना जाएगा तो क्यों माना जाएगा ??????
कोई जवाब दीजिये प्लीज ....


52 comments:

  1. प्रिय(आपका नाम भूल रहा हूं हां याद आया) मंजूषा जी क्या लिखा है आपने गौर करें मैं मानता हूं इंसान के जीवन में प्यार होना या बार बार होना अंधानुकरण के इस दौर कोई नयी बात नहीं रही लेकिन मैं एक बात आपसे से पूछता हूं क्या आप अगर पूर्णिमा की जगह होती तो प्यार कर बैठती मैं ये भी नहीं कहता कि किसी शादीशुदा पुरूष या महिला से प्यार नहीं हो सकता लेकिन सवाल उठता है कि सही क्या है सही तब जब इमरोज या फिर अमृता हो नहीं पत्रकारिता के 6 साल का अनुभव यही कहता है कि नीयती के इस बेहद रोमांचकारी और भावनात्मक रिश्ते का आखिरी पड़ाव बेहद दर्दनाक हैं

    acharya1225@gmail.com

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  2. आपका संस्मरण बहुत ही बढ़िया रहा!
    --
    मातृभाषा के प्रति आपका लगाव देखकर
    मैं श्रद्धा से नतमस्तक हूँ!

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  3. कुछ न कहेंगे

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  4. सही गलत कुछ नहीं अपना अपना नजरिया है बस ..हाँ इस तरह के रिश्ते ज्यादातर दर्द पर ही खतम होते हैं .

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  5. जो गदहे का बच्चा साधुओं का शिष्टमंडल लेकर प्रधानमंत्री को ज्ञापन सौंपने जा रहा है उसे सौंपने दो... अपन न तो साधु है और न ही भभूत पोतकर पहाड़ पर योगा करने की जरूरत महसूस करते हैं।
    जीवन कई चीजों से मिलकर बनता है। हमारे आसपास का खूबसूरत वातावरण भी उसे बेहतर बनाता है। कुछ प्यार सम्मान का भी होता है।
    जैसे मैं बहुत से लोगों का सम्मान करता हूं। उनमें लड़कियां भी शामिल है..
    आपने एक जगह लिखा है इस तरह के अफेयर्स गलत होते हुए भी कई रंग भर देते हैं..
    क्या गलत है यही अपनी समझ में नहीं आया। मैं छदम में जीने वाला नहीं हूं।
    जिन लोगों ने कभी-कभी फिल्म नहीं देखी है उन्हे जरूर देखनी चाहिए... यह तय है कि अभिताभ ने फिल्म में बेहतर रोल किया था लेकिन मुझे तो शशिकपूर का रोल भी पसन्द है.. शशिकपूर का इसलिए कि उसकी उदारता देखते ही बनती है।
    हर वो रिश्ता पवित्र होता है जो जोर जबरदस्ती से नहीं बनता।
    आपकी इस पोस्ट पर अच्छी प्रतिक्रिया आने वाली है... हो सकता कि परम्पराओं के खूंटे मे बंधे कुछ लोगों को मेरी बातें बुरी लगे। इन महानुभावों का आखिरी डायलाग यही होगा कि यदि आप उनकी जगह होती तो क्या करते... या फिर क्या आप अपनी बीबी को ऐसा करने देंगे।
    जीवन को कुएं का मेढ़क बनकर नहीं जीया जा सकता। जो जी सकते हैं वे जिएं
    हम तो मोहब्बत करेगा... दुनिया से नहीं डरेगा
    मोहब्बत जिन्दाबाद।

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  6. सब लोग अपने अपने जीवन में रंग भरते रहें .. तो यह दुनिया नहीं चलने वाली .. इसलिए तो समाज में सबों के लिए कुछ सीमाएं हैं, कुछ बंधन हैं .. ताकि दूसरों के जीवन का रंग समाप्‍त न हो जाए .. इच्‍छाओं की सीमा नहीं होती .. मन को भटकने से तो रोकना ही चाहिए !!

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  7. sab kuchh insan ke najariye pa nirbhar karta hai

    http://sanjaykuamr.blogspot.com/

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  8. अदा जी राज कुमार जी के तेवर से तो नही लेकिन मूल विचार से सहमत हू. खुश रहना हर इन्सान की चाहत है. सुख हमारे हाथ मे नही है पर खुश रहना हमारे हाथ मे है. दो सहकर्मी अगर एक दूसरे के साथ थोडी सी खुशिया बाटकर खुश रहते है तो मै उनके लिये खुश हू. आपने इस तरह के रिश्ते को शीर्षक मे गलत कहा है और बाद मे इसकी हिमायत की है. किसी भी रिश्ते को रन्ग भरना भी कमारे हाथ मे है और उसे गरिमा प्रदान करना भी.

    प्यार, विवाह, मिलन, खुशिया ये सब कम्बो पैक मै मिलते नही है इसलिये प्यार की मन्जिल भी शादी ही हो जरूरी नही. शादी और मिलन असल जिन्दगी मे साथ साथ मिल्ते है पर इनके मिलने से सुख भले मिल जाये खुशिया मिले ही कोई जरूरी नही है.

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  9. हरि जी,
    मैंने रिश्ते की हिमायत नहीं की है...मैंने सिर्फ ये कहा है कि 'पूर्णिमा को खुश देख कर मैं खुश हूँ' ...क्यूंकि मैंने उसे कभी भी बहुत खुश नहीं देखा था...
    और जहाँ तक शीर्षक का सवाल है ...ऐसे रिश्तों को मान्यता नहीं है...यह कर देती हूँ...शायद आप सही कहते हैं ..'गलत' शब्द का चयन यहाँ गलत हो गया है...
    आपका धन्यवाद ...

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  10. गलत/सही का निर्धारण पूरा इस बात पर निर्भर करता है कि किस दृष्टिकोण से देखा जा रहा है बात को.

    सामाजिक मान्यतायें/मर्यादायें भी बहुत तार्किक आधार पर ही बनी हैं, कोई सिर्फ किसी के बोल बस नहीं हैं. उनका आधार है/ उनमें तर्क हैं/ उनमें अनुशासन के भाव है/ उनमें सृजन है/उनमें निर्माण की भावना है.

    व्यक्तिगत तौर पर यही नज़रिया बदल जाता है, वो भी जरुरी है. मान्यतायें और अवधारणायें, काल/स्थान/परिवेश के हिसाब से बदलती भी रहती हैं.

    यही बात मुझे सही लग सकती है, हो सकता है मैं कहूँ कि इसमें क्या बुरा है/ वहीं कोई दूसरा कह सकता है कि यह सरासर गलत है/ तीसरा कि वैसे तो कोई हर्ज नहीं मगर अंत बुरा होता है आदि आदि..सभी अपने नजरिये से सही हैं और एक दूसरे के नजरिये से गलत.

    ऐसी बातें/ ऐसे संबंध हमेशा से होते आये हैं/होते रहेंगे. पूर्णिमा की जिन्दगी में रंग भर गये मगर ठीक उसी घटना से विश्वनाथ की पत्नी की जिन्दगी बेरंग होने को तैयार है. विश्वनाथ का तो खैर जो होना है वो होगा ही. तब पूर्णिमा के यह घटना अच्छी रही/ विश्वनाथ के लिए कोई हर्ज नहीं है वाली/ और उसकी पत्नी के लिए भयानक!! घटना तो एक ही हुई मगर तीन परिणाम!!

    इसीलिए शायद नेत्रदान मृत्यु के बाद होता है. किसी की दुनिया में किसी के नेत्र से नये रंग आयें तो कम से कम किसी की दुनिया अंधेरी न हो जाये.

    खैर, सब इसे अपनी तरह से सोचेंगे. वैसे जस्ट फॉर द सेक ऑफ हैविंग ईट...में भी क्या बुराई है, कम से कम रंग तो सबके बरकरार रह जाते हैं, बस, कहीं एडीशनल रंगीनियाँ और जाती हैं. ऐसी सोच भी जबरदस्त प्रचलन में है.. हा हा!! :)

    यह सामूहिक चिन्तन के लिए तो नहीं मगर व्यक्तिगत चिन्तन के लिए इन्टेरेस्टिंग टॉपिक है.

    बढ़िया पोस्ट!!

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  11. मान लें की यह रिश्ता आगे बढ़ता है और विश्वनाथ पूर्णिमा के साथ रहने लग जाता है. हनीमून बीतते बीतते पूर्णिमा इस असुरक्षा से घिर जाएगी की कहीं किसी और के लिए यह मुझे भी न छोड़ दे, फिर तनाव, शक, बैचेनी, नैगिंग. फिर नरक.

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  12. इस तरह के रिश्ते अच्छे हैं यह बुरे - यह निर्भर करता है कि आप उसे कैसे देखते हैं। यदि आप इसमें आप सेक्स या रोमांस देखते हैं तब यह गलत है और शिखा जी ठीक कहती हैं कि यह दर्द ही देगें।

    लेकिन इसे स्वस्थ नज़रिये से देखिये। यह हमेशा जीवन में रंग लाते हैं, प्रसन्नता भरते हैं - दुख दर्द नहीं।

    मैं हमेशा महिला सहयोगियों से, समाजिक जगहों पर मित्रों, सहयोगियों की पत्नियों से, मुस्कुरा कर बात करता हूं। यदि वे सुन्दर साड़ी या सुन्दर हार पहने हों या अपनी हेयर स्टाइल बदल कर आती हैं तब अवश्य उनकी तारीफ करता हूं। यह न केवल उनकी शाम को सुखमय बनाते हैं पर उस समाजिक महौल में नया पन और उत्साह भरते हैं।

    यदि मुझे कमेंट करने में देर हो जाय, तब वे अक्सर कहती हैं कितने देर से आपके कमेंट का इंतजार था। कभी कभी मुझे यह भी सुनना पड़ता वह खास साड़ी मेरे किसी कमेंट के लिये पहनी गयी।

    मैं ऐसा व्यवहार अनजान लोगों साथ भी करता हूं। जैसा कि मैं अपने यात्रा विवरण में लिखता हूं - देखिये यहां यहां। इन जगहों पर भी मुझे उनके चेहरे प्रसन्नता ही दिखी। शायद वे किसी का यह कहने के लिये इंतजार ही कर रही थीं।

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  13. बडा मुश्किल है इस पोस्ट पर टिप्पणी देना,

    मेरे हिसाब से जो कुछ हो रहा है वो शुरू में रूमानी और हार्मलेस भले ही लगे लेकिन आगे स्थिति बिगडने की सम्भावना अधिक है।

    इसी विष्य पर एक बार अपनी मित्र मंडली में बात हुयी थी और एक लडकी ने कहा था कि वैवाहिक सम्बन्धों के दायरे में एमोशनल चीटिंग/इनफ़िडेलिटी फ़िजिकल चीटिंग से ज्यादा खतरनाक है ।

    मेरा भी यही मानना है, और बाकी समीरजी की टिप्पणी सब कुछ कह जाती है।

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  14. .
    .
    .
    मेरे विचार में हमें इस को 'उन्मुक्त जी' की तरह स्वस्थ नजरिये से ही देखना चाहिये।

    "मैं हमेशा महिला सहयोगियों से, समाजिक जगहों पर मित्रों, सहयोगियों की पत्नियों से, मुस्कुरा कर बात करता हूं। यदि वे सुन्दर साड़ी या सुन्दर हार पहने हों या अपनी हेयर स्टाइल बदल कर आती हैं तब अवश्य उनकी तारीफ करता हूं। यह न केवल उनकी शाम को सुखमय बनाते हैं पर उस समाजिक महौल में नया पन और उत्साह भरते हैं।
    यदि मुझे कमेंट करने में देर हो जाय, तब वे अक्सर कहती हैं कितने देर से आपके कमेंट का इंतजार था। कभी कभी मुझे यह भी सुनना पड़ता वह खास साड़ी मेरे किसी कमेंट के लिये पहनी गयी।
    मैं ऐसा व्यवहार अनजान लोगों साथ भी करता हूं।"


    मैं भी ऐसा ही अकसर करता हूँ...और ऐसा करना या ऐसे संबंध हमेशा जीवन में रंग लाते हैं, प्रसन्नता भरते हैं - दुख दर्द नहीं।... आखिर कहीं न कहीं दिल के भीतरी किसी कोने में हम सब यही चाहते हैं... किसी विपरीतलिंगी द्वारा नि:स्वार्थ प्रशंसा...आपके काम की कुछ पहचान...थोड़ा बढ़ावा...थोड़ी समझ...थोड़ी चुहल... (Some appreciation, some recognition, little encouragement, little understanding, some flirting too!)... इस सब से इस बेरंग दुनिया में थोड़े रंग बढ़ते हैं... कर के देखिये..कल ही से !

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  15. प्रेम यदि प्रेम तक ही सीमित रहे तो आनन्‍द शाश्‍वत रहता है लेकिन यह मन की मर्यादाओं से निकलकर शारीरिक आवश्‍यकता बन जाए तब वर्तमान सामाजिक ढांचे में प्रदुषित हो जाएगा। क्‍योंकि मनुष्‍य सामाजिक प्राणी है और एक नहीं कई रिश्‍तों से एकसाथ बंधा है। जैसे किसी देश में रहने के लिए हमें उसके संविधान को मानना होता है वैसे ही मुनष्‍यों को समाज के संविधान का भी मानना ही पड़ता है फिर गृहस्‍थी के नियम केवल समाज की मर्यादाएं ही नहीं हैं वे तो कानून भी है इसलिए कानून से परे कोई भी कार्य जुर्म की श्रेणी में आता है। यहाँ हम व्‍यक्ति की स्‍वतंत्रता से इस विषय को नहीं जोड़ सकते। कि कोई कह दे कि मैं वहीं करूंगा जो मेरे मन में आए।

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  16. उचित और सुख को एक करने पर ही सच्चा सुख सामने आता है ...
    वर्ना सुख की मृगतृष्णा में जीवन यूँ ही व्यर्थ चला जाता है ...

    या

    उस ख़ुशी मत खेलो ........ जिसके पीछे हो गम की दीवारें

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  17. ये बात दुनियावी या समाजी एहतराम की ही नही है.

    जिस्मानी बेवफ़ाई से जज़्बाती बेवफ़ाई ज्यादा बुरी है किसी और की ओर निस्बत सिर्फ़ आशनाई के दर्जे से ज्यादा बढ गई, इस हक़ीकत को अपने शरीक-ए-हयात से छुपाना भी उससे बेवफ़ाई ही तो है.

    जिंदगी में रंग भरे जाएं जरूर लेकिन वो किसी और के हिस्से से चुराए हुए तो ना हों.

    फ़िर ये भी तो ना भूला जाए की दूसरे की अमानत में खयानत हराम है!

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  18. जो आपने लिखा, उससे तो आकर्षण सिद्ध नहीं होता है ।

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  19. @ प्रवीण पाण्डेय....
    :):):)

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  20. हमारा मन बहुत हरामी है । हम एक नहीं हैं...हम बहुत से हैं क्योंकि हमारे मन बहुत से हैं । इस बहुचित्त मानसिकता से प्रेम नहीं हो सकता । यह मन तो सबसे बड़ा धोखेबाज है । बकौल मेरे मित्र चैतन्य आलोक मन बड़ा हरामी है । यह दूसरों को ही नहीं स्वयं को भी धोखा देता है । कबीर ने कहा है कि प्रेम गली अति सांकरी, तां में दो न समायै । आपने पूर्णिमा और विश्वनाथ के प्रसंग के माध्यम से जो स्थिति प्रस्तुत की है ...संभवत: हो सकता है वह प्रेम हो... लेकिन यदि ऐसा है तो उनके पूर्व जीवन में प्रेम नहीं रहा होगा ? आपने कहा है कि दोनों के परिवार हैं...तो जो परिवार पहले से बसे हैं वे प्रेम की नींव पर नहीं खड़े होंगे,वर्ना तो दोनों के जीवन पहले से ही प्रेम की खुश्बू से महकने चाहिए थे । अक्सर हम जिसे प्रेम समझ लेते हैं वह महज़ एक आकर्षण ही हुआ करता है ... जो यथार्थ की भूमि पर आते-आते धराशायी हो जाता है । लेकिन जिंदगी का हर अनुभव व्यक्ति में कुछ जोड़ जाता है...जिससे उसकी समझ बढ़ती है और जीवन को समझने की दृष्टि और स्वयं की सोच का विकास होता है । कबीर जिस प्रेम की बात करते हैं वहाँ तक पहुँचते-पहुँचते तो व्यक्ति अपने प्रियतम में ही सबके दर्शन कर लेता है । व्यक्ति का प्रेम इतना गहन होता है कि उसमें कुछ और समाता ही नहीं । प्रेम अंधा नहीं बल्कि वह चक्षु बन जाता है,जिसके माध्यम से व्यक्ति न केवल स्वयं को देखता,समझता है बल्कि हर इंसान में उसी प्रियतम का अंश पाता है । ऐसे प्रेम में तो मन मर जाता है...वह निशब्द हो जाता है ...कबीर के ही शब्दों में गूंगे केरी शर्करा... जिसे कहा नहीं जा सकता । प्रेम अनुभव की चीज़ है...यह कोई बौद्धिक विलास नहीं...न ही शारीरिक सुख । यह तो वह अनुभूति है जो सर्वत्र व्याप्त है...यदि पूर्णिमा और विश्वनाथ में ऐसा प्रेम है...तो उनके परिवारों में भी आनंद बढ़ना चाहिए ...लेकिन समाज़ ऐसे प्रेम को कब समझ पाता है । हमारा समाज तो शक और जिस्मानी संबंधों में ही प्रेम की इति समझता है...जो सिवाय कलह के कुछ नहीं देता ।

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  21. इस संस्मरनात्मक विवरण के कई पहलु हैं। उस सामाजिक व्य्वस्था का भी । समीर जी का विवेचन अच्छा लगा।

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  22. प्रिय मञ्जूषा जी ,
    पूर्णिमा और विश्वनाथन अगर इस रिश्ते को एक सच्चे मित्र की तरह निभाते रहे सिर्फ एक दुसरे के भावो की सुकून देने के लिए जिसमे रिश्तो की कोई मर्यादा ना टूटे तो ही इसे समाज में व्यवहारिक कहा जायेगा और मेरे इस संक्षिप्त सुझाव में ये लगा लीजिये जीवन का एक सच्चा अनुभव शामिल हैं . वैसे मैं अविवाहित हूँ पर खुद एक दोस्त बहुत पसंद थी . उसे भी ईश्वर का वरदान समझा और सच्चे प्यार को जीया . लेकिन कभी रिश्तो की कोई मर्यादा नहीं टूटने दी . कभी भी हमने एक दुसरे की privacy को भी प्राथमिकता नहीं दी मतलब जबरदस्ती चेप सा होना की भी कोई कोशिश नहीं हुई .
    प्यार हमेशा ईश्वर से ही सच्चा होता हैं लेकिन कई बार ईश्वर एक माध्यम देता हैं और अगर सच में आपकी चाहत में स्वार्थ और वासना की जगह त्याग और प्रेम हो तो वो ईश्वर का दिया हुआ मानिये . जब अकेले बैठे हो और अपने प्यार के लिए आंसू आये की वो कैसा होगा , उसे कोई दिक्कत तो नहीं हो रही , तो ये सच्चा प्यार हैं .
    लोग हमेशा तर्क लगा लगा कर चीजों को मुश्किल बना देते हैं .
    आप का धन्यवाद , आप इसे महज संयोग ही मानिये की मैंने विश्वनाथन को कभी जीया था सच में , संयोग हैं की मेरी पूर्णिमा आज तक मेरी सच्ची दोस्त हैं पर शारीरिक कुछ भी नहीं . मैं कभी कविता नहीं लिखता था . उसके लिए कम से कम बीस लिख पाया . दस पंद्रह तो ब्लॉग पर भी डाली हैं . आप के पास समय हो तो ब्लॉग पर तेरह में से कम से कम ये दो तो चैक करें
    आठवा भाग
    http://saralkumar.blogspot.com/2010/05/blog-post_11.html
    तीसरा भाग
    http://saralkumar.blogspot.com/2010/04/blog-post_06.html

    --
    !! श्री हरि : !!
    बापूजी की कृपा आप पर सदा बनी रहे

    Email:virender.zte@gmail.com
    Blog:saralkumar.blogspot.com

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  23. और हाँ एक बात मनुज्षा जी ,
    मेरा व्यक्तिगत निष्कर्ष हैं कि यहाँ जवाब वही सर्वोपरि हैं जो अपने अनुभव पर हो क्योंकि प्यार आप कभी कर नहीं सकते . इसके लिए तो ईश्वर खुद आपको चुनता हैं और आप तब महसूस करते हो क्या सच्चा प्यार का होता हैं . मुझे तो जिससे प्यार था उसके साथ एक कप चाय भी नहीं पी और छू तक भी नहीं पाया .

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  24. अदा जी,
    1977 में आई फिल्म दूसरा आदमी की याद दिला दी...

    राखी और ऋषि कपूर पर एक गाना फिल्माया गया था...

    क्या मौसम है, दीवाने दिल...अरे चल कहीं दूर निकल जाएं...

    कोई हमदम है चाहत के काबिल, किस लिए हम फिर संभल जाएं...

    लेकिन राखी गाने के आख़िर में कहती हैं...अच्छा है, संभल जाएं...

    और संभल कर चलने में ही समझदारी है...

    जय हिंद...

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  25. प्यार मोहब्बत वालों के लिए एक शे'र पेशे-ख़िदमत है…
    गुलाबों-से मुअत्तर हों, हो जिनकी आब गौहर-सी
    कहां से लफ़्ज़ वो लाऊं… तुम्हारी दास्तां लिखदूं

    पूरी ग़ज़ल पढ़ने-सुनने के लिए लिंक http://shabdswarrang.blogspot.com के माध्यम से शस्वरं पर तशरीफ़ लाएं ।

    मंजूषा जी
    एक अच्छा वैचारिक आदान-प्रदान का अवसर उपलब्ध कराने के लिए आभार !
    अच्छा है , आपकी सुरीली ग़ज़लों में डूब कर हम शांत समंदर हो जाएं तो ऐसी ही एक कंकरिया फेंक कर कुछ चैतन्य तरंगें भी आप ही पैदा करें ।
    - राजेन्द्र स्वर्णकार
    शस्वरं

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  26. प्यार मोहब्बत वालों के लिए एक शे'र पेशे-ख़िदमत है…
    गुलाबों-से मुअत्तर हों, हो जिनकी आब गौहर-सी
    कहां से लफ़्ज़ वो लाऊं… तुम्हारी दास्तां लिखदूं

    पूरी ग़ज़ल पढ़ने-सुनने के लिए लिंक http://shabdswarrang.blogspot.com के माध्यम से शस्वरं पर तशरीफ़ लाएं ।

    मंजूषा जी
    एक अच्छा वैचारिक आदान-प्रदान का अवसर उपलब्ध कराने के लिए आभार !
    अच्छा है , आपकी सुरीली ग़ज़लों में डूब कर हम शांत समंदर हो जाएं तो ऐसी ही एक कंकरिया फेंक कर कुछ चैतन्य तरंगें भी आप ही पैदा करें ।
    - राजेन्द्र स्वर्णकार
    शस्वरं

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  27. पोस्ट पढ़ना तभी सार्थक होता है जब टिप्पणियों को भी उतनी रुचि लेकर पढ़ा जाए..सबने अपने अपने नज़रिए से अपने विचार रखे....
    मेरे विचार में मनोज भारती की टिप्पणी का अंत बहुत हद तक समाज का सच है --
    "प्रेम अनुभव की चीज़ है...यह कोई बौद्धिक विलास नहीं...न ही शारीरिक सुख । यह तो वह अनुभूति है जो सर्वत्र व्याप्त है...यदि पूर्णिमा और विश्वनाथ में ऐसा प्रेम है...तो उनके परिवारों में भी आनंद बढ़ना चाहिए ...लेकिन समाज़ ऐसे प्रेम को कब समझ पाता है ।"
    समाज ऐसे रिश्तों को मान्यता नहीं देता चाहे दो परिवारों में आनन्द ही क्यों न हो...

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  28. @प्रेम यदि प्रेम तक ही सीमित रहे तो आनन्‍द शाश्‍वत रहता है लेकिन यह मन की मर्यादाओं से निकलकर शारीरिक आवश्‍यकता बन जाए तब वर्तमान सामाजिक ढांचे में प्रदुषित हो जाएगा...

    @प्रेम अनुभव की चीज़ है...यह कोई बौद्धिक विलास नहीं...न ही शारीरिक सुख । यह तो वह अनुभूति है जो सर्वत्र व्याप्त है...यदि पूर्णिमा और विश्वनाथ में ऐसा प्रेम है...तो उनके परिवारों में भी आनंद बढ़ना चाहिए ...लेकिन समाज़ ऐसे प्रेम को कब समझ पाता है ।
    @प्यार आप कभी कर नहीं सकते . इसके लिए तो ईश्वर खुद आपको चुनता हैं और आप तब महसूस करते हो क्या सच्चा प्यार का होता हैं....
    इन सब से सहमत ...

    @ संयोग हैं की मेरी पूर्णिमा आज तक मेरी सच्ची दोस्त हैं पर शारीरिक कुछ भी नहीं . मैं कभी कविता नहीं लिखता था . उसके लिए कम से कम बीस लिख पाया ....
    जितनी आसानी से इन्होने लिखा है यदि उनकी पत्नी के लिए किसी ने लिखी हो तब भी हज़म कर पायेंगे ...???

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  29. आज का गीत क्या हुआ अदा जी?

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  30. जो आपने लिखा, उससे तो आकर्षण सिद्ध होता है, प्रेम नहीं ।

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  31. आँखों में अजीब से लाल डोरे नज़र आने लगे हैं..और एक रहस्यमयी मुस्कराहट भी...

    ...कुछ बात तय होने तक लाल डोरे हटा दीजिये। मुस्कराहट रहन दीजिये।

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  32. @ प्रवीण पाण्डेय जी ..
    अब ये आकर्षण है या प्रेम ये तो वही लोग जाने बाबा....हम तो सामने बैठे होते हैं दोनों को देखते हैं और उस समय ...आकर्षण और प्रेम का difference हमको समझ में नहीं आता है...
    हाँ नहीं तो...

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  33. @ अनूप जी,
    हमरा पिरोब्लेम होता तो जाला हटाने वाला ले जाते और हटा देते ...
    लेकिन ई बेगानी शादी है....और खाम-खाह अब्दुल्ली दीवानी...
    हाँ नहीं तो...!!

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  34. सही और गलत की कोई परिभाषा नहीं है, जो चीज किसी एक के लिये सही होती है वही किसी दूसरे के लिये गलत। समाज ने सही और गलत के लिये जो भी नियम बनाये हैं वह समाज से जुड़े लोगों की भलाई के लिये ही है किन्तु उन नियमों का पालन करना या ना करना व्यक्ति पर ही निर्भर करता है।

    प्रायः लोग "आकर्षण" को "प्रेम" समझ लेने की भूल कर जाते हैं। आकर्षण से अस्थाई खुशी तो मिल सकती है किन्तु शाश्वत सुख प्रेम में ही मिलता है। इन्द्र और अहल्या की कथा जगविदित है। उन दोनों के सम्बन्ध से उन्हें कितनी खुशी मिली और कितनी सजा भी भोगनी पड़ी यह सभी जानते हैं।

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  35. प्रेम गली अति सांकरी जा मे दो ना समाय.

    दामाखेड़ा वाले बाबा फिर ऐसा क्‍यूं कहते हैं.

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  36. अदा जी,
    इस रिश्ते में "फ़िलहाल" तो सब कुछ मधुर-मधुर, स्वीट-स्वीट, प्यारा-प्यारा, रोमाण्टिक वगैरा-वगैरा लग रहा है…। "फ़िलहाल" इसलिये लिखा, कि क्या पूर्णिमा और विश्वनाथ का रिश्ता आजीवन इसी लेवल पर बना रहेगा? क्योंकि इस लेवल से आगे बढ़ने पर यह रिश्ता सभी को दुख ही देगा, चाहे वह कितने भी "प्रगतिशील"(?) समाज में रहता हो…।

    बेहतर यही है कि आप (यदि बॉस हैं) तो उनमें से किसी एक का ट्रांसफ़र "साइबेरिया" में कर दीजिये (यदि वहाँ ब्रांच हो तो)… फ़िर देखें कि ये लाल डोरे-वोरे कब तक बरकरार रहते हैं… :) :) :)

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  37. @ Suresh ji,
    Saiberia bhejna thoda jyadati nahi ho jaayega...maane ekdam hi Saiberia....:):)

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  38. "हाँ" - नहीं।
    तो?
    हाँ नहीं तो!

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  39. ओके, साईबेरिया न सही… "फ़िजी" ही ट्रांसफ़र कर दीजिये… :) :)

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  40. अदा जी शुक्र है आपने दोनों असली पात्रों के नाम बदल दिए हैं इस पोस्ट में.
    -
    मेरे समझ से ये रंग सामान्य हैं. हानिकारक नहीं होना चाहिए यदि सभी समझदार हैं तो.
    -
    एक जिम्मेदार बॉस के नाते उनके सहज ट्रांसफ़र का विकल्प खुला रखिये.

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  41. मुझे यहाँ उन्मुक्त जी की बात सही लग रही है...इसे स्वस्थ नजरिये से देखा जाना चाहिए.
    और मुझे लगता है ये आकर्षण ही है...अगर प्रेम है तो निश्चित ही उनके जीवन में पहले प्रेम नहीं रहा होगा. अगर प्रेम नहीं है तो ऐसी प्यारी सी इमोशनल दोस्ती भी चल सकती है...बशर्ते एक सीमा से आगे न बढे.

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  42. @ सुलभ जी,
    दोनों नाम पूरी तरह से असली हैं...

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  43. मानव शब्द बना है मन से , अर्थात हम सभी में मन की प्रधानता होती है ( खासतौर पर स्त्रियों में जिनकी प्रतिष्ठा इस ढोंगी समाज के कारण कुछ ज्यादा ही संवेदनशील हो जाती है )
    भटकने की कोई उम्र नहीं होती और ना ही भटकने वाले को पता चल पता है की वो कहाँ जा चुका है जब तक की उसे चोट नहीं लगती या उसे गहरा अँधेरा नहीं घेर लेता , और वैसे भी जब अंत दुःख भरा ही होना है तो ऐसी बेवजह की मृगतृष्णा में जाने का फायदा क्या है ??
    हम "ह्यूमन्स" अपने आपको "हारमोंस" को कण्ट्रोल करने की पुरानी भारतीय शिक्षा को भूलते तो नहीं जा रहे?? , जहां पर बताया गया है की किस तरह क्षणिक सुख की तलाश में मानव इतिहास में बदनाम हो जाता है ऊपर से सुख तो हम पर हँस कर भाग जाता है और किस तरह अर्जुन जैसा व्यक्ति प्राप्त सुखों का त्याग कर इतिहास में सम्मान पाता है

    याद रखिये हम "हयूमन" है "हारमोन" नहीं

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  44. @ गौरव...
    तुम्हारे विचार बहुत अच्छे हैं...इतनी कम उम्र में ऐसे ख़याल कम ही देखने को मिलते हैं...ख़ुशी होती है जब यंग लोग अपने संस्कारों और अपनी सीमा को जानते हैं........

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  45. @ अजित जी,
    कल आपसे बात हुई बहुत ही अच्छा लगा....
    और हाँ कोई कान्फुसियन मत पालिए .....
    ये बोल्ड में लिखती हूँ
    ये मेरी कहानी नहीं है....
    हा हा हा हा...

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  46. @अदा जी
    आपने कहा "दोनों नाम पूरी तरह से असली हैं..."

    क्या ऐसे पोस्ट में असली नाम के साथ प्रसंग बताना जरुरी था? चूँकि यहाँ मामला किसी परिस्थिति में जन्मे व्यक्तिगत सम्बन्ध का है और आपका ब्लॉग पोस्ट बनाना सिर्फ उचित विमर्श और पाठकों के राय जानने
    के लिए है. हो सकता है आपने अनजाने में पूर्णिमा और विश्वनाथ को सार्वजनिक कर उनकी निजता का उलंघन किया है.

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  47. Sulabh,
    maine nijta ka ulanghan nahi kiya hai ...yahan ke kanoon ke anusaar...
    jab tak main unke 'last name' nahi likhti hun...ye galat nahi hoga...
    kanoonan in naamon ko kahani ka hi patr maane jaayenge...

    vaise unhein iski jaankaari hai ...

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  48. आपके पोस्ट के संदर्भ में उड़न तश्तरी जी की बातों से सहमत हैं।

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  49. @अदा जी
    विचारों के सम्मान के लिए बहुत बहुत धन्यवाद.. ये भी किसी पुरस्कार से कम नहीं है
    वैसे इस थीम पर एक सात्विक सी पोस्ट लिखने का विचार बन रहा है, अगर विचार संडे तक मस्तिष्क में रुका तो पोस्ट लिखूंगा जरूर
    अभी तो कोई और ही थीम दिमाग में धम ..धम ..धम.. धम कर रहा है

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  50. इश्क पर ज़ोर नही
    फ़िर भी ज़िन्दगी के बाक़ी कमिटमेंट्स का ध्यान रखना ज़रूरी है

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