वो जश्न वो रतजगे वो रंगीनियाँ कहाँ
आये निकल वतन से हम भी यहाँ कहाँ
महबूब मेरा चाँद मेरा हमनवां कहाँ
इस बेहुनर शहर में कोई कद्रदां कहाँ
कोई बुतखाना,परीखाना कोई मैक़दा नहीं
ढूँढें इन्हें कहाँ और अब जाएँ कहाँ कहाँ
बस रहे खेमों में हम जैसे हैं जो लोग
फिर सोचेंगे जाएगा ये कारवाँ कहाँ
जाना था तुमको भी उस दूसरी गली
ज़बरन चले आये तुम भी यहाँ कहाँ !
बस रहे खेमों में हम जैसे हैं जो
ReplyDeleteलोग फिर सोचेंगे जाएगा ये कारवाँ कहाँ
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बहुत सुन्दर रचना!
जाना था तुमको भी उस दूसरी गली
ReplyDeleteज़बरन चले आये तुम भी यहाँ कहाँ !
कोई बात तो रही होगी वरना
अब कोई रास्ता नहीं भूलता
महबूब मेरा चाँद मेरा हमनवां कहाँ
ReplyDeleteइस बेहुनर शहर में कोई कद्रदां कहाँ
वाह! क्या बात है!!
जाना था तुमको भी उस दूसरी गली
ReplyDeleteज़बरन चले आये तुम भी यहाँ कहाँ !
सुन्दर रचना , सुन्दर चित्र ( हमेशा की तरह )
सुन्दर रचना...
ReplyDeleteबुतखाना, परीखाना, मयखाना...जहां ये हो..वो शे'र यूं भी हमें अपने से लगते हैं...
पेंटिंग में लड़की पर ब्रश बड़ा बिंदास चला रखा है...तल्लीनता देखने काबिल है..
आखिरी शे'र पर बार बार हमारा ध्यान जाता है...
एक शे'र याद आ रहा है...................
उनकी गली को निकली हर इक रहगुजर मेरी...
जो खुद तलक पहुंचता, कोई रास्ता न था...
उम्मीद है कि अब ओट्टावा का जन-जीवन सामान्य हो गया होगा कुछ...
बढ़िया प्रस्तुति,बहुत सुन्दर रचना!
ReplyDeleteसाथिया आज की रात हमें नींद नहीं आएगी,
ReplyDeleteसुना है उनकी महफ़िल में रतजगा है...
जय हिंद...
बहुत खूबसूरत जज़्बात पेश किये हैं आपने इस रचना के माध्यम से।
ReplyDeleteतस्वीर भी मन की उधेड़्बुन को बखूबी बयान करती है।
और कल की पोस्ट का एक वाह बाकी था, वो भी स्वीकार कर लीजिये। कुछ अच्छा ही लिखा होगा, मुझे समझ नहीं आया तो इसमें आपकी कोई गलती नहीं है।
बहुत बहुत आभारी।
महबूब मेरा चाँद मेरा हमनवां कहाँ
ReplyDeleteइस बेहुनर शहर में कोई कद्रदां कहाँ
बहुत खूब अजी हम हैं ना आपके कद्रदां जरा इधर देख तो नज़र उठा कर मगर नही आपकी नज़र तो आस्मां की तरफ है,बडिया ।हा हा हा शुभकामनायें
अति उत्तम रचना .....लाजवाब प्रस्तुति
ReplyDeleteवो जश्न वो रतजगे वो रंगीनियाँ कहाँ
ReplyDeleteआये निकल वतन से हम भी यहाँ कहाँ
अजी इस गजल मै तो हम सब प्रदेशियो का दर्द छुपा है, बहुत खुब
बस रहे खेमों में हम जैसे हैं जो लोग
ReplyDeleteफिर सोचेंगे जाएगा ये कारवाँ कहाँ
ब्लॉग जगत पर फिट बैठता शे’र, बहुत कुछ सोचने पर मज़बूर कर गया।
उम्दा ग़ज़ल!
sundar sher...sab ke sab
ReplyDeleteखेमे में जीते लोग किश्तों सोचतें हैं
ReplyDeleteये लोग ग़ज़ब के लोग चलने से रोकते हैं..?
वो जश्न वो रतजगे वो रंगीनियाँ कहाँ
ReplyDeleteआये निकल वतन से हम भी यहाँ कहाँ .. bahut sach.. bahut khoob.
सुन्दर रचना ।
ReplyDeleteएकदम लाजवाब ख्याल है.. पहला शेर तो अप्रवासियों के दर्द को बखूबी बताता है..
ReplyDeleteबेहद उम्दा रचना ... !!!
ReplyDeleteबस रहे खेमों में हम जैसे हैं जो लोग
ReplyDeleteफिर सोचेंगे जाएगा ये कारवाँ कहाँ
महबूब मेरा चाँद मेरा हमनवां कहाँ
इस बेहुनर शहर में कोई कद्रदां कहाँ ...
अपने वतन से जुड़ा होने का दर्द उभर आया है इन पंक्तियों में ...
बात बिलकुल सही कही है ...
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