चाल लहू की नसों में जब धीमे से पड़ जाते हैं
मन आँगन के पोर पोर में सपने ज्यादा चिल्लाते हैं
धुंधली आँखों के ऊपर जब, मोटे ऐनक चढ़ जाते हैं
तब अपने बिगड़े भविष्य के साफ़ दर्शन हो जाते हैं
हर सुबह झुर्रियों के झुरमुट,और अधिक गहराते हैं
रोज लटों में श्वेत दायरे और बड़े हो जाते हैं
कुछ देर तो बेटी बेटे जम कर शोर मचाते हैं
फिर एकापन जी भर कर,आपसे चिपट ही जाते हैं
हमसे पहले की पीढी अब विदा लेती ही जाती है
उनके पीछे अब कतार में खुद को खड़ा हम पाते हैं
ना जी ...हम तो खुद अपनी नयी कतार बनायेंगे ...अगुआ उसका आपको ही बनायेंगे ..ऐसी उदासी आप पर अच्छी नहीं लगती..ये पोस्ट पढ़ते हुए हिंदी युग्म पर आपकी "हमराज सुखनवर मेरा" ग़ज़ल सुन रही हूँ ...!!
ReplyDeleteअच्छे भाव की रचना बहन मंजूषा। मैं भी तुक मिलाने की कोशिश करता हूँ-
ReplyDeleteसपने ज्यादा तब चिल्लाते अगर बचे हों स्वप्न
सपनों का सपना बन जाना अक्सर ये हो जाते हैं
शुभकामना।
बेहतरीन!!
ReplyDeleteपरिवर्तन को अभिव्यक्त करती यह नज्म तथ्यों से अटी पड़ी है :
ReplyDeleteहमसे पहले की पीढी अब विदा लेती ही जाती है
उनके पीछे अब कतार में खुद को खड़ा हम पाते हैं
सुंदर...
वाह !
ReplyDeleteअच्छा लगा
बधाई !
बहुत बेहतरीन जी.
ReplyDeleteरामराम.
चाल लहू की नसों में जब धीमे से पड़ जाते हैं
ReplyDeleteमन आँगन के पोर पोर में सपने ज्यादा चिल्लाते हैं
सपने ही तो हमारे बुधु नेतागण पिछली ६२ वर्षों से दिखाते आ रहे हैं..........
सुन्दर अहसासों से भरी आपकी यह रचना अच्छी लगी.
बधाई.
चन्द्र मोहन गुप्त
जयपुर
www.cmgupta.blogspot.com
vah did kya bat hai khubsurat rchna
ReplyDeleteबहुत अच्छी लगी रचना मुझे
ReplyDeleteबहुत ही सुन्दर रचना ........बधाई
ReplyDeleteविदा तो सबको लेना जी एक दिन ,पर आप विदा ले इसका हक आपको कतई नहीं हैं .............वाणी जी ने बिलकुल सॉलिड कहा हैं .............आपकी महफ़िल में सुबह-शाम होती रहे ........हमारा वादा हैं सज़दे पर आते रहेगे .............फिर कहे का एकाकीपन ..............अमाँ भूल ही गया कहना रचना बहुत दिलकश हैं ..........अरे इसमें कहने की क्या बात हैं .........मैं भी न अनाड़ी हूँ ज़रा ...........अब मुस्कुरा भी दीजिए ........हहहहहहः ..........................
ReplyDeleteचाल लहू की नसों में जब धीमे से पड़ जाते हैं
ReplyDeleteमन आँगन के पोर पोर में सपने ज्यादा चिल्लाते हैं
अति सुन्दर
हर सुबह झुर्रियों के झुरमुट,और अधिक गहराते हैं
ReplyDeleteरोज लटों में श्वेत दायरे और बड़े हो जाते हैं
you tube ka link bheejon "abhi to main jawan hoon..."
ya "koi lauta dde....."
di pehla aur doosra couplet behterin hain.
जीवन की सच्चाई को शब्दों का जामा पहना देखा आपकी कलम से |
ReplyDeleteसुन्दर |
वाणी जी ने उसे गजल कहा....
ReplyDeleteदेखकर बहुत अच्छा लगा ...........
दर्पण जी,,,,,
कोई लिंक भेजो या मत भेजो...पर एक बात जानता हूँ मैं तो..
कुछ लोग कभी भी बूढे नहीं होते,
वैसे ही जैसे के कभी भी वो जवान नहीं होते
अदा जी, एकदम मस्त रहिये...
आने-जाने की सोचना अपुन का काम नहीं है...ऊपर वाले का है
अभी तो आपसे पहले और भी शायर जाने हैं .....
गजलों को तरन्नुम में ढलने की इंतज़ार देख कर...
:)
:)
ada ji,
ReplyDeleteaapke saath aisa kuch bhi nahi hone waala. ap hamesha ada hi rahengi aaj se 60 saal baad bhi main to shayd na rahu lekin jahan bhi rahunga sajda karne jaroor aunga. ap aisi udaas rachna na likha karein mujh jaise log nahi jhel paate hain.
kavya aur bhav ki drishti se rachna hamesha ki tarah bemisal hai.
हर सुबह झुर्रियों के झुरमुट,और अधिक गहराते हैं
ReplyDeleteरोज लटों में श्वेत दायरे और बड़े हो जाते हैं
ha ha ha ha ha
are pagal agar aisa hai to hair colour lagaya kar, Garnier, loreal aur na jaane kitne miltey hain.
faltu ki batey nahi likhna hai samjhi. varna hamlogon ke hathon chali jayegi upar.