Wednesday, September 9, 2009
यहाँ ...वहाँ...क्या कहें.....
यहाँ ...वहाँ...
तब, भारत में !
वो तपती दुपहरी , बगीचे में जाना,
टहनी हिला कर, आम गिराना
दादी को फुसलाकर,अमावट बनवाना
चटाई पर हिस्से की, हद्द लगाना
बिजली गुल होते ही, कोलाहल मच जाना
तब लालटेन जला कर, अँधेरा भगाना
सुराही से पानी ले, गटागट पी जाना
गमछे से बदन का ,पसीना सुखाना
आँगन में अंगीठी पर, मूंगफली सिकवाना
सोंधे नमक की, चटकार लगाना
बिजली के आने से, खुशियाँ मानना
दौड़ कर झट से, फिर टी.वी.चलाना
सावन के मौसम में, फुहारों में दौड़ना
मटमैले पानी में, छपा-छप कूदना
गली के नुक्कड़ पर, मजमा लगाना
बिना बात के यूँ ही, गुस्सा दीखाना
किसी से कहीं भी, बस उलझ ही जाना
बेवक्त किसी की, घंटी बजाना
बिना इजाज़त, अन्दर घुस जाना
अपना जो घर था, वो अपना ही था
अपनों से अपनों का जुड़ते ही जाना
अब, कनाडा में !
ये सर्दी के मौसम में,घर में दुबकना
हर दिन मौसम की, जानकारी रखना
न बिजली के जाने की चिंता में रहना
न बिजली के आने की खुशियाँ मानना
न पसीने का आना, न पसीना सुखाना
न सुराही के पानी, का आनंद उठाना
न ख़ुशी से चिल्लाना, न शोर मचाना
गुस्सा जो आये तो, बस गुस्सा दबाना
न कुत्तों का लड़ना, न बैलों से भिड़ना
न मजमा लगाने की, हिम्मत जुटाना
न किसी का आना, न किसी का जाना
न बगैर इजाज़त, घंटी बजाना
तरतीब के देश में,तरतीब से हैं हम
मुश्किल है कुछ भी, बेतरतीब पाना
बहुत ही आसां है, मकाँ बनाना
बस कठिन है यहाँ ,एक 'घर' बसा पाना
क्या कहें.....
वफ़ा चली गई
तो जफ़ा चिपक गई
जीने की ललक बढ़ी
मौत झलक गई
सोच की स्याही
से कलम सरक गई
ज़ेब तार-तार हुई
नियत भटक गई
ज़मीर तो जगा रहा
बस आँख लपक गई
साकी की नज़र बचा
होश अटक गई
मजमों का शोर बढा
महफ़िल छिटक गयी
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यहाँ ...वहाँ...क्या कहें.....
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शायद बेतरतीबी का भी अपना एक अलग आनन्द है.
ReplyDeleteबहुत खूबसूरती से आपने अंतर बताया है
पर शायद जो आनन्द टहनी हिला कर, आम गिराने मे है वह फिर कही मिल पाये.
दोनो रचनाए बहुत खूबसूरत
दोनों ही रचनाऐं उम्दा!! आनन्द आ गया!! क्या बात है.
ReplyDeleteबहुत ही आसां है, मकाँ बनाना
ReplyDeleteबस कठिन है यहाँ ,एक 'घर' बसा पाना.......
bilkul sahi kaha aapne....... ghar logon se nahin....... pyar se hi basta hai......
जीने की ललक बढ़ी
मौत झलक गई
kai baar aisa hota hai... ki jab hum jeena chahte hain.... to.... is bemurrawwat cheez ka bhi ehsaas hota hai....
क्या बात है अदाजी ..अपनी माटी की याद सता रही है ??..सच .. कैरी ,आम, अमरुद, फालसा, शहतूत आदि खरीद कर खाने में वो स्वाद कहाँ जो पेडों को हिला डुला कर बड़ी तरकीब से जुगाडे फलों में होता था ...
ReplyDeleteयह भी सच है कि मकान बनाये जाते हैं ...घर बसाये जाते हैं ..
आज तो दोनों रचनाओ ने बाँध कर रख दिया ...
जीने की ललक बढ़ी मौत झलक गयी...!!
बहुत उम्दा ...बहुत बढ़िया
ada ji,
ReplyDeletepataa nahi aap bhi kyaa-kyaa likh deti ho....
itnaa nagetive....!!!!!
आपकी पहली रचना कहीं गहरे तक असर कर गयी
ReplyDeletewaah !
ReplyDeleteबात आपकी बिल्कुल सही है। बचपन और घर की यांद बहुत सताती है न जाने क्यो।
ReplyDeleteबहुत खुब एक और लाजवाब प्रस्तुती। बहुत-बहुत बधाई
जीने की ललक बढ़ी
ReplyDeleteमौत झलक गई
बिल्कुल सही .....
सोच की स्याही
से कलम सरक गई
बहुत ही खुब.....
ज़ेब तार-तार हुई
नियत भटक गई
क्या बात है .....
आपकी लेखनी दिल और दिमाग पर जादू कर देता है ......
वाह जी ..आपने तो देश परदेश की सटीक व्याख्या कर डाली..यहां भी महानगरों मे रहते हुये गांवों की ऐसी ही टीस उठती है. आपके लेखन मे यह जो मौलिक पहलू है यह बहुत सुंदर लगता है. बहुत शुभकामनाएं.
ReplyDeleteरामराम.
आप जब ऐसे लिखती है तो लगता है ज़िन्दगी कितनी छोटी है. दुनिया देखने को बाकी है और उम्मीदें बेकरार .
ReplyDeleteदोनों ही रचनाऐं अच्छी लगी
ReplyDeleteरचनाओं ने मंत्रमुग्ध कर दिया
ReplyDeleteGood One!!!
ReplyDeleteRegards
Chandar Meher
You are cordially invited to
lifemazedar.blogspot.com
Thank You
वाह जी वाह बहुत ही सुन्दर व्याख्या .
ReplyDeleteजितनी तारीफ़ करु कम है जी
वाह क्या बात है. सारे दृश्य सामने दिखाई देने लगे.
ReplyDeleteतब, भारत में !
ReplyDeleteवो तपती दुपहरी , बगीचे में जाना,
टहनी हिला कर, आम गिराना
दादी को फुसलाकर,अमावट बनवाना
चटाई पर हिस्से की, हद्द लगाना
बिजली गुल होते ही, कोलाहल मच जाना
तब लालटेन जला कर, अँधेरा भगाना
सुराही से पानी ले, गटागट पी जाना
गमछे से बदन का ,पसीना सुखाना
आँगन में अंगीठी पर, मूंगफली सिकवाना
सोंधे नमक की, चटकार लगाना
बिजली के आने से, खुशियाँ मानना
दौड़ कर झट से, फिर टी.वी.चलाना
सावन के मौसम में, फुहारों में दौड़ना
मटमैले पानी में, छपा-छप कूदना
गली के नुक्कड़ पर, मजमा लगाना
बिना बात के यूँ ही, गुस्सा दीखाना
किसी से कहीं भी, बस उलझ ही जाना
बेवक्त किसी की, घंटी बजाना
बिना इजाज़त, अन्दर घुस जाना
अपना जो घर था, वो अपना ही था
अपनों से अपनों का जुड़ते ही जाना
इसमें नेगेटिव कहाँ है ?
दोनों कवितायें बहुत अच्छी हैं,
अदाजी!
ReplyDeleteलगता है आपको वतन की याद आ रही है। अब जब आप वतन को इतना याद करती है तो एक बार सम्भालने आ जाईये । यह गावो की सोन्धी-सोन्धी महक, लालटेन की रोशनी मे अघेरे को भगाना, आँगन में अंगीठी पर, मूंगफली सिकवाना इत्यादी भाई हम तो यहा मोज कर रहे है। अपने वतन की माटी मे लोट्पोट हुऍ जा रहे है।
आपने जो रचा, उसे मै रचना कहू, कि सरचना बडी ही यादो मे डुबोने वाली थी, सुन्दर थी.
आपका खुब खुब आभार इस रचना को हम पाठको को पढने के लिऍ अवसर प्रदान किया।
♥♥♥♥♥♥
पाकिस्तानी ब्लोगरिया कहे छु छु कर रिया है ?
SELECTION & COLLECTION
हे! प्रभु यह तेरापन्थ
आपने तो अपनी कविता से मुझे भी अपने पुराने दिनों की यद् और आज की मजबूरियों से भलीभांति रूबरू करवा दिया.
ReplyDeleteआकी कविता में गज़ब का प्रवाह है.
हार्दिक बधाई.
चन्द्र मोहन गुप्त
जयपुर
www.cmgupta.blogspot.com
बहुत-बहुत उम्दा. एक अलग और नए से अंदाज़ में. वाह. जारी रहें.
ReplyDelete---
♫ मेरा देश उस दिन ही आजाद होगा जब कोई भी भूखा नहीं सोयेगा - http://ultateer.blogspot.com/2009/09/blog-post_08.html
& http://mauj-e-sagar.blogspot.com/2009/08/blog-post_31.html
पाँच दिन की बीमारी के बाद आज कुछ ठीक होने पर आपके ब्लॉग पर आना एक सूकून भरा अहसास दे गया । यहां-वहां...क्या कहें दो देशों की संस्कृति का सुंदरता से अहसास करा गई ।
ReplyDeleteधन्यवाद
Hello,
ReplyDeleteGood :-)
Very nicely written!
Regards,
Dimple
http://poemshub.blogspot.com
बहुत सुंदर अनुभूति
ReplyDeletedono rachnaayien bahut khoob likha hain aapne.
ReplyDeleteदी बेहतरीन रचा है |
ReplyDeleteजो पंची अम्बुज रस चाख्यो, करील फल कहाँ भावे ?
२-४ दिन आपका ब्लॉग नहीं देखा .. आज देख रहा हूँ तो कई पोस्ट पुराने हो चुके हैं जिसको अब तक हम देखबो नहीं किये हैं |
दी आप चालु रहें ... हम कच्छप गति से आयेंगे इसके लिए क्षमा ...