याद है मुझे,
बचपन में,
तरकारी से
वो बैंगन की डंठल
के लिए लड़ पड़ना,
सिर्फ इसलिए कि,
वह चिकन के जैसे
होने का
अहसास दिलाती थी |
उसे लुत्फ़ से,
नोच नोच कर खाना
और एकदम
विजेता बन जाना,
बचे हुए
रानों पर हिकारत
की नज़र फेकना,
और ख़ुद को
सांत्वना देना कि
हमने सचमुच
चिकन खाया है |
वो लड़ाई
अब तक रुकी नहीं
मानसिकता की तरकारी
से प्रभुत्वता की डंठल
हर कोई झपट
रहा है,
विजयी बनने का ख्वाब
बैंगन और चिकन का
फर्क मिटा देता है,
पता तब चलता है
जब वही चूसी हुई डंठल की रान,
कुटिलता से मुस्काती है,
छले जाने का
अहसास कराती है,
देर हो जाती है
और हम
बैंगन में चिकन
की मरीचिका से निकल
नहीं ही पाते हैं.....
जब वही चूसे हुए
ReplyDeleteडँठल की रान,
कुटिलता से मुस्काते हैं,
तुम्हें छले जाने का
अहसास कराते हैं,
देर हो जाती है
और हम
बैंगन और चिकन
की मरीचिका से निकल
नहीं ही पाते हैं...
वाह !! क्या बात है !!
मानसिकता की तरकारी
ReplyDeleteसे प्रभुत्वता की डँठल
हर कोई झपट
रहा है,
-शानदार, क्या बात कही है बैंगन की तरकारी के माध्यम से. वाह!
हिन्दी ब्लागिंग का भी तो यही चरित्र हैं -यहाँ बैगन का डंठल चूसने वालों का ही जमावड़ा है .
ReplyDeleteमानसिकता की तरकारी
ReplyDeleteसे प्रभुत्वता की डँठल
हर कोई झपट
रहा है,
बैगन के माध्यम से प्रभुत्वता को रेखांकित करती खूबसूरत रचना
वाह !
ReplyDeleteक्या तरकारी है
संकोच का भाव,
एक ग़रीबी का गर्व,
एक गंवारपन का स्वाभिमान
बैंगन ...
चिकन पर
भारी है!!
बैंगन चिकन जैसा ही स्वाद देता है क्या ...कभी चिकन खाया नहीं ...इसलिए पता नहीं ...:)
ReplyDeleteहाँ ....बैंगन और चिकन को चबा चबा कर खाते लोगो को देखा बहुत है ....कैसा लगता है ...ये यहाँ नहीं बताउंगी ...वर्ना एक और महाभारत प्रारम्भ हो जायेगी ...:):)
चूसी हुई डंठल की रान, कुटिलता से मुस्काती है, छले जाने का अहसास कराती है,देर हो जाती है....
बहुत बहुत भाई ये पंक्तियाँ .....उन चेहरों की कुटिलता भरी मुस्कान की कल्पना ही अद्भुत आनंद दे रही है ...सटीक कटाक्ष करती हैं
बहुत बढ़िया ...!!
अदा जी, कमाल करती हैं...
ReplyDeleteथाली के बैंगन को भी लुढ़कने से रोक देती हैं...
जय हिंद...
अद्भुत लगी ये कविता..!
ReplyDeleteयाद आ गयी ..काफी पहले पढ़ी थी ये कविता...
ReplyDeleteइसी के साथ जुडी और भी कई बाते याद हो आयीं...
हम तो असल में भुरता बनाते हैं ज्यादा तर बैंगन का..
और भुर्ते में कोई सीन होता नहीं डंठल का.....वो हम पहले ही काट कर फेंक देते हैं...सो इस लालच से अक्सर दूर ही हैं...
वैसे हाँ,
कभी कभी लगता तो है चिकन जैसा डंठल खाना...
पर अब नहीं...
अब तो हम चिकन भी खाना शुरू कर दिए हैं ना....?
बहुत ही मार्मिक अभिव्यक्ति ।
ReplyDeleteआभार..!
मैं आज की कविताओं में अलंकार खोजने की कोशिश करता हूँ। आपकी इस कविता के भाव में उत्प्रेक्षा अलंकार है। जब उपमेय (जिसकी तुलना की जा रही हो) को ही उपमान (जिससे तुलना की जा रही हो) मान लिया जाता है तो उत्प्रेक्षा अलंकार होता है। प्रस्तुत कविता में बैंगन की डंठल को चिकन मान लिया गया है इसलिये उत्प्रेक्षा अलंकार हुआ।
ReplyDeleteयदि कविता में उत्प्रेक्षा अलंकार से अलंकृत पंक्तियाँ मिल जातीं तो "सोने में सुगन्ध" हो जाता, जैसे किः
डंठल नहीं यह बैंगन का, मत कहिये इसको बैंगन
नोच नोच कर खाते इसको, यह तो है साक्षात चिकन
विजयी बनने का ख्वाब
ReplyDeleteबैंगन और चिकन का
फर्क मिटा देता है,
पता तब चलता है
जब वही चूसी हुई
डंठल की रान,
कुटिलता से मुस्काती है,
छले जाने का
अहसास कराती है,
देर हो जाती है
और हम
बैंगन में चिकन
की मरीचिका से निकल
नहीं ही पाते हैं.....
Wah,Bahut khoob !
पहली टिप्पणी में बताना भूल गयी ...हैदराबादी बैंगन बहुत स्वादिष्ट बनाती है मेरी माँ और मैं भी ...:):)...
ReplyDeleteबैंगन खाना बिलकुल पसंद नहीं था ...मगर हमारे हॉस्टल में रोज शाम को खाना खाने के समय बत्ती गुल हो जती थी ...बिहार में बिजली का हाल तो आप जानबे करती हैं ...पूरा खाना खा चुकने ke बाद कुक बताता था कि आज तो बैगन का भुरता था खाने में ..
वो लड़ाई
ReplyDeleteअब तक रुकी नहीं
मानसिकता की
तरकारी से प्रभुत्वता की
डंठल हर कोई झपट रहा है,
विजयी बनने का ख्वाब
बैंगन और चिकन का
फर्क मिटा देता है
आज कि मानसिकता को बैगन के डंठल से जोडना .. एक गज़ब की सोच है और बड़ी सटीक भी....मानसिकता पर सोचने को मजबूर करती अच्छी रचना...
अदा साहिबा, आदाब
ReplyDeleteवो लड़ाई..अब तक रुकी नहीं..मानसिकता की तरकारी
से प्रभुत्वता की डंठल..हर कोई झपट..रहा है,
विजयी बनने का ख्वाब.....
....!!!!!
और कभी रुक जायेगी,
ऐसी उम्मीद की किरन नज़र भी नहीं आती
वाह बैगन के डंठल के माद्ध्यम से बहुत सही विश्लेषण किया है आपने आज कि मानसिकता का.
ReplyDeleteहम तो vagetarian by choice हैं ये सारे फर्क नहीं जानते पर...बैंगन और चिकेन के माध्यम से कही गूढ़ बातें बड़ी अच्छी लगीं.
ReplyDeleteबैगंन और चिकन से आपने कितनी गहरी बात कह दी
ReplyDeleteबचपन में बैंगन खाते नहीं थे, घ्ार में ही वर्जित था तो यह भाव कभी आया नहीं। फिर पूर्ण शाकाहारी भी थे तो मांसाहार की कल्पना करना भी खाने के समान ही था। लेकिन आपकी कविता के बिम्ब अपनी बात को पुख्ता तौर पर कहते हैं।
ReplyDeleteहम तो बैंगन को बैंगन समझ कर ही खाते हैं जी।
ReplyDeleteवैसे आखरी पंक्तियों ने बहुत प्रभावित किया।
Ada di,
ReplyDeleteaapne is kavita se jo baat kah di hai, wahi to ho raha blog jagat mein bhi, sab lad rahe hain.
sundar prastuti !!
adbhut samanjasy dhoondhne ki koshish
ReplyDeleteacchi lagi kavita,
badhai !!
मानसिकता की तरकारी से प्रभुत्वता की डंठल हर कोई झपट रहा है,विजयी बनने का ख्वाबबैंगन और चिकन का फर्क मिटा देता है,पता तब चलता हैजब वही चूसी हुई
ReplyDeleteडंठल की रान,
कुटिलता से मुस्काती है,
छले जाने का
अहसास कराती है,
बैंगन की डंठल की प्रभुत्वता की डंठल से अच्छी उपमा की है ... सुंदर ।
कुछ खास नहीं है कहने को
ReplyDeleteअदा के पास
पर बेखास भी नहीं है कुछ
उनका कीबोर्ड बेखास को
बना देता है खास
बैंगन बहुत समय रहा उदास
आज है उसके भीतर भरा उल्लास।
bangan ke zariye aapne hum sabki maansikta batayi hai
ReplyDeletekhud ko satisfy karne ke liye hum kuch bhi karte hai
-Sheena
बहुत बढिया कविता है।
ReplyDeleteमैं तो बैंगन के डंठल की कौन कहे, रोटी के जले हुए छिलके से भी आनंद पाता हूँ ( थोडा सोन्ह/ सोंधा लगता है वह हिस्सा) लेकिन जब तक रोटी गरम हो तभी तक, ठंडी रोटी होने पर रोटी के छिलके वह स्वाद नहीं देते :)
* रोटी के छिलके appropriate word है या नहीं, कह नहीं सकता। वैसे ठेठ भोजपुरी में 'छिलके' को 'बोकला' कहते हैं :)
वाह रे बैगन , जह हो वैगन जी की । आप इस चिट्ठे को यहाँ भी पढ सकती हैं ।
ReplyDeleteलिंक ये रहा
ReplyDeletehttp://tetalaa.blogspot.com/2010/02/blog-post_7133.html
अदा जी,
ReplyDeleteआप की पोस्ट का हीरो बनकर बेगुण बैंगन सही में तरकारियों का राजा बनकर इठला रहा होगा। शाकाहारी होने के कारण चिकन के साथ तुलना सही है या गलत, यह निर्णय करने में अक्षम हूं पर मोटी सी बात जानता हूं कि भूख डंठल से नहीं बुझती है और भूख ही सच है बाकि सब मिथ्या है। बाई द वे, बैगन का भरथा, आलू-बैगन की तरकारी और/या तले हुए बैगन मेरी मनपसंद चीजे हैं और अन्य प्रिय चीजों की तरह ये भी हमारे लिये नायाब हैं या फिर नायाब हैं इसीलिये प्रिय हैं, हमेशा की तरह मैं पुन: कन्फ्युज हो रहा हूं
महोदया, आप मेरे ब्लाग पर आईं, हमें धन्य किया, अब हमारा विनम्र विरोध दर्ज करते हुये अपनी टिप्पणी पर पुनर्विचार करें। दिन आपका नहीं, इस अकिन्चन का बना, बल्कि महीना या साल बना(अगर इंगलिश में ऐसा कोई मुहावरा है तो)। मन ही मन ’मि. नटवरलाल’ का गाना गुनगुना रहा हूं - ’खुदा की कसम मजा आ गया, मुझे मारकर बेशरम खा गया’। सही मायने में आपका बहुत-बहुत आभारी हूं कि आपने अपने व्यस्त समय में से कुछ समय एक नये और अनजाने ब्लागर पर व्यर्थ किया। स्नेह की भूख और ज्यादा लगने लगी है।
इसमे तो दो राय ही नहीं की अपने आप में आपका अंदाज़ निराला है !!
ReplyDeleteमगर बेंगान और चिकन के माध्यम से आपने प्रभुत्वता की लड़ाई का जो पहलू पेश किया है...वो बड़ा गहरा भाव है इस रचना का!!
गेट वेल सून :)
baigan ki to kismat khul gayi ,jise keval rachna me hi nahi piroya gaya balki blog par saaj shringaar ke saath sajaya bhi gaya .saath me usse sahanubhuti bhi jatayi gayi ,waah re baigan teri kismat khul gayi tere marm ko padhne wala bhi koi hai aur jagat ko ahsaas dilane wala bhi ab tujhe khaya jaaye ya baksh diya jaaye ,saari umra saja katne ke liye .hum duvidha me pad gaye ,tere kadam rasoi se nikal blog jagat me jo pad gaye ,chhod diya jaaye ya maar diya jaaye ,bol tere saath ab kya salook kiya jaaye ,maza aa gaya ada ji aapke baigan se milkar .waise to bina gun ka raha magar aaj iski kismat phir gayi aapki dua se .jo aan-baan-shaan se sar uthaye khada hai ,aage aayi kai baar aur aapki tabiyat ke baare me padha aur aapka jawab nahi mila aur 26th jan par bhi aapki anupasthiti dekh khabar lene aa gayi magar is naye sadsaya se mil aanandit ho utha ,
ReplyDeleteबहुत-सी विशेषतायें आपसे सीख रहा हूँ । पहले तो सबकुछ कविता की विषयवस्तु बनाकर प्रस्तुत करना, यही बड़ी बात है । बैंगन खूबसूरती से विचार-संवाहक हो कर आ गया है, कविता की वस्तु बनकर अर्थ-भाव युक्त भी हो गया है ।
ReplyDeleteअब बैंगन खाते वक्त कविता नाचेगी आपकी !