विभिन्न प्रकार के धातु हमारे जीवन में बहुत महत्वपूर्ण हैं...अगर आपको याद हो तो दिल्ली के क़ुतुब मीनार परिसर में एक ऐसी ही धातु कला का उदाहरण हमें देखने को मिलता है ..'लौह स्तम्भ' ...सरसरी तौर पर देखें तो यह अन्य लौह स्तम्भ की तरह ही लगता है , जब तक कि आप इसकी विशेषता से अवगत नहीं हो जाते...
पिछले १६०० वर्षों से आँधी, पानी, तूफ़ान, शीत और धूल का सामना कर रहा है यह स्तम्भ ..परन्तु इसपर जंग लगना या अन्य किसी प्रकार की क्षति आप लेश मात्र भी नहीं देखेंगे...यहाँ तक कि धातुकर्मी भी..इस स्तम्भ की इस गुणवत्ता से हैरान हैं...कि आखिर ऐसी क्या बात है.... कि यह स्तम्भ ख़ुद ब ख़ुद अपना संरक्षण कर लेता है...
पिछले १६०० वर्षों से आँधी, पानी, तूफ़ान, शीत और धूल का सामना कर रहा है यह स्तम्भ ..परन्तु इसपर जंग लगना या अन्य किसी प्रकार की क्षति आप लेश मात्र भी नहीं देखेंगे...यहाँ तक कि धातुकर्मी भी..इस स्तम्भ की इस गुणवत्ता से हैरान हैं...कि आखिर ऐसी क्या बात है.... कि यह स्तम्भ ख़ुद ब ख़ुद अपना संरक्षण कर लेता है...
ऐसा नहीं है कि इसमें धातु ह्रास के गुण दिखाई नहीं देते...देते हैं लेकिन यह ख़ुद ही अपना संरक्षण कर लेता है..और जंग से मुक्त हो जाता है...ठीक उसी तरह जैसे कि किसी मानव शरीर में खरोंच लग जाए और वह अपने आप ठीक हो जाए....
यह स्तम्भ ७ मीटर ऊँचा है और ६ टन वज़न का है...उत्तर भारत के गुप्त वंश (३१९-५५० इस्वी ) के समय का माना जाता है...उस समय धातु प्रसंकरण और धातु निष्कर्षण विधा बहुत उच्च कोटि की थी.... यह स्तम्भ पिटवा लौह का बना हुआ है....
इस स्तम्भ को चन्द्रगुप्त द्वितीय विक्रमादित्य ने खड़ा करवाया था ....कहा जाता है कि इस स्थान पर एक जैन मंदिर हुआ करता था ...और यह स्तम्भ उस समय वहाँ पर स्थित जैन मैन्दिर का एकमात्र अवशेष है... इस मंदिर को क़ुतुबुद्दीन ऐबक ने यहाँ क़ुतुब मीनार बनवाते वक्त तुड़वा दिया था ....उसने इस स्तम्भ की कारीगरी और लौह प्रसंकरण देख कर इसे रहने दिया था ...
प्राचीन काल में धातुकर्मी हमेशा अपने अन्तःकरण से काम लेते थे..वो द्रष्टा हुआ करते थे...स्पर्श मात्र से वो यथार्थ तक पहुँच सकते थे...छूकर यह बताने की क्षमता रखते थे कि ..इस धातु से कैसी कलाकृति बनाई जा सकती है ...
लोहार विशेष समय की प्रतीक्षा किया करते थे जब ग्रह, चन्द्र, सूर्य एक विशेष स्थान पर आते थे ...उन सबके एक विशेष कोण में मिलने से और उनकी किरणों के धातु पर पड़ने से... धातु में दैवीय गुण आ जाते थे..ऐसा उनका मानना था...इस तरह की प्रक्रिया के बाद ही लोहार उस लोहे को किसी अनूठी कलाकृति में ढालता था...यह भी मान्य था कि अगर ऐसे अनुष्ठान नहीं किये गए... तो कला अधूरी रह जायेगी...
ख़ैर...बात हम कर रहे हैं क़ुतुब मीनार परिसर में खड़े 'लौह स्तम्भ' की, तो आज तक वैज्ञानिक इसकी स्वयम संरक्षण के गुण के रहस्य का पता नहीं लगा पाए हैं...और ना ही आज तक इस लोहे के अवयवों की नक़ल की जा सकी है...
आज भी यह खड़ा है..सर उठा कर और बता रहा है कि हमारा अतीत कितना वैभवशाली और गूढ़ था....यह स्तम्भ प्राचीन भारत के विज्ञानं का एक जीता-जागता उदाहरण है....कोई है जो इसकी टक्कर ले सकता है ???
सच ही ये सत्य बड़ा आश्चर्यजनक है ....कितनी इमारते एक साथ याद आ गयी ....
ReplyDeleteलौरिया का अशोकस्तंभ देखा है आपने ...?
हैदराबाद का गोलकुंडा फोर्ट जहाँ किले के मुख्य द्वार पर एक खास जगह खड़े होने पर हलकी सी सरसराहट तक महल के सबसे उपरी हिस्से में सुनायी दे जाती है ....
वास्तुकला और इंजीनियरिंग की अद्भुत मिसालें है इस देश में ...कह ही दू आज तो ...मेरा भारत महान...!!
वाकई आश्चर्यजनक रूप से कौतूहल के विषय है.
ReplyDeleteअच्छी जानकारी
जानकारी के लिए आभार.
ReplyDeleteबहुत अच्छी जानकारी दी आपने इस स्तम्भ के बारे में. आभार आपका.
ReplyDeleteअन्तःकरण का काम हर जगह है, और यही काम है जो सच्चा है ।
ReplyDeleteखूबसूरत जानकारी भरी प्रविष्टि । आभार।
waqai ye hamare liye gaurav ka vishay hai di..
ReplyDeletemaine jab bhi is stambh ko kareeb se dekha lagta hai ki kisi purane kaal me pahunch gaya..
iske oopar post likh ke achchha kiya aapne
क्या बात है...?
ReplyDeleteकल एक और ब्लॉग पर दिल्ली के चित्र देखे थे....और आज आपने भी नई जानकारी दी..सुन्दर चित्रों सहित....
..ऐसा उनका मानना था...इस तरह की प्रक्रिया के बाद ही लोहार उस लोहे को किसी अनूठी कलाकृति में ढालता था...यह भी मान्य था कि अगर ऐसे अनुष्ठान नहीं किये गए... तो कला अधूरी रह जायेगी...
ख़ैर...बात हम कर रहे हैं क़ुतुब मीनार परिसर में खड़े 'अशोक स्तम्भ' की,
बेहद रोचक बात को आप जाने क्यूँ...'खैर' का मोड़ देकर छोड़ रही हैं....?
कोई माने या नहीं...
मगर हम इस बात को बहुत बहुत यकीन से मानते हैं के उस वक़्त के लोग हर छोटी से छोटी बात पर बेहद गंभीरता से ध्यान देते थे..
मामूली सी बात के लिए सही समय की प्रतीक्षा करते थे.....ऐसे ही नहीं आज अपनी कितनी ही बातों पर वैज्ञानिक हैरान होते हैं..
जो आज हम हर्बल दवाएं खा रहे हैं..और कहते हैं के कोई ख़ास फायदा नहीं हुआ...
अरे...फायदा कहाँ से होगा.....
पहले किसी जमाने में..दवा तैयार करने के लिए उसे पेड़ से तोड़ने तक का निश्चित समय...और नियम हुआ करता था...
फिर उसके बाद बेहद छोटी छोटी बातों पर गौर करना..जिन्हें आज कोई जानता भी नहीं...
यहाँ तक की कौन सी दवा धुप में..कौन सी छाँव में...और कौन सी किस ख़ास छाँव में सुखानी है..आदि आदि...
अब क्या है..... अब ऐसा कुछ नहीं होता...
ना वैसे लोग हैं...ना दवाएं...ना ऐसे लौह-स्तम्भ...
जैसे छोटा सा उदहारण है ..
ReplyDeleteआप कभी सिलबट्टे पर चटनी पीस कर खाइए..
उर एक दम वही सब कुछ बिजली के मिक्सर ग्राइंडर में तैयार कर के खाइए...
दोनों में अंतर पता चल जाएगा आपको..
अच्छी जानकारी...आभार!!
ReplyDeleteरानीविशाल
बहुत अच्छी जानकारी दी आपने, आभार।
ReplyDeleteएक और मन्यता है कि इस स्तंभ का आलिंगन करने पर यदि आपके हाथ आपस में टच हो जाते हैं तो आपका भाग्य बहुत अच्छा है, हालांकि इस बात का आधार हमें समझ नहीं आया लेकिन बचपन में जब भी वहां जाना होता था तो देखते थे कि लोगों में इस बात की होड लगी होती थी कि बार-बार इस लाट के गले मिलते थे। पुरानी यादें फ़िर ताजा हो गईं। आप की पोस्ट ने हमारे लिये तो टाईम-मशीन का काम किया। पुन: आभार।
बहुत अच्छी जानकारी। धन्यवाद।
ReplyDeleteअरे एकदम से रस परिवर्तन .....अच्छी जानकारी
ReplyDeleteचित्र भी शानदार हैं
बहुत अच्छी जानकारी!
ReplyDeleteहमारे देश का प्राचीन विज्ञान अत्यन्त उन्नत था। गोलकुंडा के किले में भी एक विचित्र यन्त्र है जो किले के प्रवेश द्वार में लगा है। इस यन्त्र के नीचे खड़े होकर बजाई गई ताली की आवाज पहाड़ी के ऊपर बने किले के छत पर सुनाई पड़ती है।
अदा जी,
ReplyDeleteहमारे लिए तो कुतुब मीनार से भी ऊंचा आपका प्रोफाइल है...ये आपने किस कमबख्त से नाराज होकर अपना प्रोफाइल हटा दिया है...जल्दी उसे वापस अपनी जगह पर लौटाइए...नहीं मेरे आमरण अनशन का तो पता ही है न..
जय हिंद...
बहुत अच्छी प्रविष्टि !!
ReplyDeleteतो आज तक वैज्ञानिक इसकी स्वयम संरक्षण के गुण के रहस्य का पता नहीं लगा पाए हैं...और ना ही आज तक इस लोहे के अवयवों की नक़ल की जा सकी है...
पर यह इतना समर्थ तो है .. कि सामने खडा वैज्ञानिकों को चुनौती दे सके .. पर ज्योतिष को तो इतना समर्थ भी नहीं रहने दिया !!
कांसे जा जनक भी भारत है. बस इस जातिवादी प्रथा के चलते जो ज्ञान जिसके पास था उसके साथ ही चला गया (अगर उसने आगे नहीं बांटा तो)
ReplyDeleteजहाँ तक मेरे संज्ञान में है यह 'अशोक स्तम्भ' नहीं है,
ReplyDeleteवस्तुत यह चन्द्र नामक राजा को सम्बोधित है,चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य से इसका ताल मेल बिठाया जाता है ,
इस पर अंकित अभिलेख में पाठ है कि वह राजा परम भागवत था .
इस सम्बन्ध में विस्तृत वार्ता फिर कभी.
पोस्ट चित्रों के दृष्टिकोण से बेहद उम्दा.
सही मुद्दा इस जानकारी के माध्यम से उठाया आपने , यशी तो हम भारतीयों की कमी है की हम बाबरी- मस्जिद का राग पिछले २० सालो से अलाप रहे है लेकिन जो हमारी वास्तविक धरोहरे है उनपर कोई गौर नहीं करता !
ReplyDeleteबहुत सुंदर जानकारी, शुभकामनाएं.
ReplyDeleteरामराम.
इतनी रोचक जानकारी देने के लिए बहुत बहुत ..शुक्रिया
ReplyDeleteअदा जी !
ReplyDeleteअफ़सोस होता है कि इतनी बड़ी बड़ी तथ्यात्मक गलतियों को लोग देखते ही नहीं
और टीप - दर - टीप किये जाते हैं .. इसे तो मैं सिर्फ कमेन्ट की रस्मअदायगी
कहूँगा .. मान लिया कि लिखने वाले से कोई गलती हो जाय तो कमेंट करने वालों को
तो बता देना चाहिए , पर हिन्दी - ब्लोगिंग तो '' बैठे ठाले का धंधा '' लगती है , मुझे
इसीलिये .. कुछ दायित्व भी बनता है न ! .......
.
अब गलती कहाँ है , बताता हूँ ---- आपने लिखा है गुप्त काल के समय पर --- '' उत्तर भारत के
गुप्त वंश (३०४-२३२ ईसा पूर्व ) के समय का माना जाता है..............इस स्तम्भ को चन्द्रगुप्त द्वीतीय विक्रमादित्य ने
खड़ा करवाया था . ......... '' -----
--- पहली बात तो यह कि गुप्त काल इतने कम समय का नहीं है , कॉमन सेन्स से ही यह पकड़ में आ सकता है ..
--- दूसरी बात जिन चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य ने इसको बनवाया उनका समय ३७५-४१५ ईस्वी है न कि ईसा पूर्व ..
---- गुप्त काल का व्यापक काल खंड ३१९ ईसा से ५५० ईसा तक है , मोटे रूप से , शुरुवात होती है २७५ ईसा से
और यहाँ संथापक के रूप में श्रीगुप्त का नाम आता है ...
.
अदा जी ऐसी गलतियाँ न हो तो बेहतर , इतिहास का कांसेप्ट दिमाग में साफ़ साफ़ रहना चाहिए , ऐसी पोस्टें
लिखते समय .............
अजीब लगता है कि जी.के.अवधिया और हिमांशु भाई भी टीप चुके हैं और उन्होंने इसको देखना - टोकना उचित ही
न समझा ..
क्षमा चाहूँगा अगर कुछ गलत कहा हूँ तो पर --- '' हितं मनोहारि च दुर्लभं वचः '' ........ ऐसी पोस्टें बनें यह जरूरी है
इसके लिए बधाई , पर ध्यान रख कर ......... आभार !
बेहतरीन जानकारी.मैं भी इसे देख चुका हूँ. इसके अंकित लेख में 'चन्द्र' नामक राजा का जिक्र आता है जिन्हें चन्द्र गुप्त द्वितीय माना जाता है.
ReplyDeleteआपने इसे दो बार अशोक स्तम्भ कहा है ऐसा क्यों? इसमें मौर्यकालीन अभिलेख तो हो नहीं सकता क्योंकि वो तो असंदिग्ध रूप से पूर्वकालिक है.
गिरिजेश जी ने कहा :
ReplyDeleteविभिन्न प्रकार के धातु - विभिन्न प्रकार की धातुएँ
कला में सृजन समाया हुआ है इसलिए 'धातु कला के सृजन' से 'के सृजन' हटा दीजिए।
द्वीतीय - द्वितीय
प्रसंकरण - प्रसंस्करण
इसका अशोक से कुछ नहीं लेना देना इसलिए इसे 'अशोक स्तम्भ' नहीं 'लौह
स्तम्भ' ही कहना ठीक है।
इसका क्षरणरोधी स्वभाव इसके लोहे में फास्फोरस और गन्धक की सूक्ष्म
मात्राओं और वातावरण में नमी के ऋतु चक्र से जुड़ा हुआ है।
मूलत: यह विदिशा में विष्णु मन्दिर के आगे 'विष्णु ध्वज' के रूप में
स्थापित था। इसके उपर गरुड़ के बजाय विष्णु चक्र की स्थापना थी जो
दिल्ली लाते हुए गुम हो गया। इस स्तम्भ के प्रस्तर चित्र आज भी वहाँ हैं।
विष्णु स्तम्भ, चक्र और विदिशा स्थान के चयन का खगोलीय महत्त्व था ।
यह स्तम्भ यह दर्शाता है कि सांकेतिक सम्प्रेषण ने एक तरह से नुकसान भी
किया। बाद की पीढ़ियाँ सब कुछ भूल गईं।
अब आइए कथित क़ुतुबमिनार पर। यह मिनार भी मूलत: ऐबक की बनवाई हुई नहीं
है। उसने कुछ इस्लामिक संशोधन भर किए। यह भी खगोलीय प्रेक्षण के लिए
बनवाई गई थी। कतिपय लोगों ने इसे भी गरुड़ स्तम्भ भी बताया है।
उल्लेखनीय है कि वेदों में सूर्य को ही विष्णु कहा गया है और पूरे भारत
में फैले सूर्य पूजा के केन्द्र ही बाद में विष्णु पूजा के केन्द्र बन
गए।
आज कल ब्लॉग देखना कम हो पा रहा है। इसे ही मेरी टिप्पणी मान कर छाप दीजिएगा।
सादर,
गिरिजेश
Thanks Ada for sharing this knowledge
ReplyDelete-Sheena
पोस्ट के जरिये और टिप्पणियों के जरिये भी बहुत सारी जानकारी मिल गयी....शुक्रिया
ReplyDeleteसंजय जी, अमरेन्द्र जी और गिरिजेश जी,
ReplyDeleteमेरे इस आलेख में आप लोगों ने जो सुधार किया है ..वह बहुत बड़ा योगदान है..'अशोक स्तम्भ' कहना सर्वथा गलत था...
यह गलती मुझसे हुई है गूगल में कुछ तलाश करते समय...वहां इसे अशोक स्तम्भ ही कहा गया था..
संजय जी की बात से सहमत हूँ..और भूल सुधर दिया है..
सच पूछिए तो अब पाठकों को भी अच्छी तरह से याद रहेगा की यह अशोक स्तम्भ नहीं है..
आप तीनों का ह्रदय से आभार..
आश्चर्यजनक और रोचक पोस्ट।आभार।
ReplyDeleteअदा साहिबा आदाब
ReplyDeleteएक नई जानकारी का सिलसिला चला, और कमेंट के माध्यम से मिले तथ्य काफ़ी रोचक हैं.
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ReplyDelete.
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आदरणीय अदा जी,
अच्छी पोस्ट, पर कुछ भी आश्चर्यजनक या रहस्यमय नहीं इस स्तंभ के बारे में...यह देखिये:-
Mystery of Delhi's Iron Pillar unraveled
New Delhi, July 18: Experts at the Indian Institute of Technology have resolved the mystery behind the 1,600-year-old iron pillar in Delhi, which has never corroded despite the capital's harsh weather.
Metallurgists at Kanpur IIT have discovered that a thin layer of "misawite", a compound of iron, oxygen and hydrogen, has protected the cast iron pillar from rust.
The protective film took form within three years after erection of the pillar and has been growing ever so slowly since then. After 1,600 years, the film has grown just one-twentieth of a millimeter thick, according to R. Balasubramaniam of the IIT.
In a report published in the journal Current Science Balasubramanian says, the protective film was formed catalytically by the presence of high amounts of phosphorous in the iron—as much as one per cent against less than 0.05 per cent in today's iron.
The high phosphorous content is a result of the unique iron-making process practiced by ancient Indians, who reduced iron ore into steel in one step by mixing it with charcoal.
Modern blast furnaces, on the other hand, use limestone in place of charcoal yielding molten slag and pig iron that is later converted into steel. In the modern process most phosphorous is carried away by the slag.
The pillar—over seven metres high and weighing more than six tonnes—was erected by Kumara Gupta of Gupta dynasty that ruled northern India in AD 320-540.
Stating that the pillar is "a living testimony to the skill of metallurgists of ancient India", Balasubramaniam said the "kinetic scheme" that his group developed for predicting growth of the protective film may be useful for modeling long-term corrosion behaviour of containers for nuclear storage applications.
Source: Press Trust of India
http://www.expressindia.com/fullstory.php?newsid=12824
di...behtareen jankari k liye
ReplyDeletedhanyewad...papro k din hai mere bete k history knowlege me kaam ayegi. thanks.
अमरेन्द्र,
ReplyDeleteआपने बिलकुल सही कहा है यह इस्वी ही है ..ईसा पूर्व नहीं
भूल सुधार के लिए धन्यवाद..
बिल्कुल सही कहा आपने। हमारे छत्तीसगढ मे 1300 साल पुराना ईंटो से बना लक्ष्मण मंदिर आज भी सीना ताने खड़ा है।यंहा नदी के बीचोबीच बना राजिम का महादेव मंदिर भी है जो सदियों से बाढ और गर्मी-बरसात झेलता खड़ा है।
ReplyDeleteजानकारी के लिये धन्यवाद।
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