Friday, July 31, 2009

किसने कहा हुजूर के तेवर बदल गए

जनाब रिफ़त 'सरोश' साहब की ये ग़ज़ल है, ये ग़ज़ल मुझे बहुत बहुत बहुत पसंद है.....
बहुत साल पहले उन्होंने मुझसे कहा था 'बेटा ये मेरी किताब है, और अब तुम्हारी है मैं चाहता हूँ आप इसमें से अपनी पसंद की ग़ज़लों को धुन में ढालें और गायें' वो दिन और आज का दिन नहीं कर पायी मैं, अब जाकर पता चला की वो इस दुनिया में रहे ही नहीं...बस मन कुछ बैठ सा गया...एक कच्ची-पक्की सी धुन बनायीं है...जो अभी बन ही रही है......अब पता नहीं कब बने.... जो भी बनी है सुन लीजिये...
शायर : जनाब रिफ़त 'सरोश'
संगीत : संतोष शैल
आवाज़ : स्वप्न मंजूषा शैल 'अदा'


किसने कहा हुजूर के तेवर बदल गए
रुख की शिकन गयी है न माथे के बल गए

उलटी पड़ी है आज मोहब्बत की हर बिसात
ये शातिराने दैहर अजब चाल चल गए

उस अंजुमन में जब उठे सरगराँ उठे
उस अंजुमन में जब भी गए सर के बल गए

क्या लेके जाएँ बज़्म-ए-सुख़न में सिवा-ए-दिल
अल्फाज़ फ़िक्र-ओ-फन की तमाज़त से जल गए

मंजिल पुकारती ही रही ठहरिये 'सरोश'
हम बे-खुदी-ए-शौक़ में आगे निकल गए

Thursday, July 30, 2009

फिरंगी रामायण...

(यह व्यंग मैंने लिखा है, पाश्चत्य सन्दर्भ में, अगर यह घटना आज पश्चिम में हो तो कैसी होगी , पात्रों के नाम हैं
सैम, रीटा, लकी, उर्सुला और रेवन, कहानी शुरू होती है कि सैम और रीटा को वनवास प्रस्थान की आज्ञा मिल गयी है )

हलकी चिकोटी काटी उसने
ले गई किनारे धकिया कर
फिर 'सैम' से बोली 'रीटा'
अपनी बात इठलाकर

कितनी क्यूट स्टेप-मॉम है
डैड भी कितने प्यारे हैं
फोर्टीन वीक्स का वेकेशन दिया है
किस्मत के चमके सितारे हैं

ऐसी शुभ घड़ी में हनी !
तुम कोई पंगा मत डालो
पिकनिक का डब्बा पैक करो
और ट्रेलर की चाभी उड़ा लो

अब अडल्ट हो गए हैं हम, हनी
इन-लास् का हर वक़्त झगड़ा है
मेरा मूड, यहाँ नहीं रहने का
पिअर-प्रेशर भी तगड़ा है

इतनी सी तो शर्त हैं उनकी
गहने-कपड़े छोड़ जाओ
वैसे भी वेकेशंस का रुल है
कच्छा-बनियान ही पाओ

दंडक-लैंड के कॉटेज की
चाभी अगर मिल जाती
तो वेकेशन की खुशियाँ भी
चार-गुनी बढ़ जातीं

एक बात और कहती हूँ
'लकी' को लेकर मत आना
साफ़ साफ़ मना कर देना
या फिर कर देना कोई बहाना

प्राइवेसी में हमारी
बड़ा खलल पड़ जाता है
जब देखो तो वह काटेज के
आगे-पीछे मंडराता है

'उर्सुला' बेचारी यहाँ पर
निपट अकेली रह जावेगी
जब लौट कर हम आवेंगे
कितनी बातें सुनावेगी ?

इस बार सिर्फ हम दोनों ही
वेकेशन मनाने जावेंगे
हो सके तो 'रेवन' को भी
वहाँ पर बुलवावेंगे

कित्ता ब्लैक और टाल है
कित्ता हेंडसम लगता है
काली शर्ट और जींस में
डेन्जल वाशिंगटन लगता है

पिछले सारे डीफ्रेन्सेस भूला कर
उससे हाथ मिलाना है
इस बार वेकेशन में मेरे सैम
पिछला लोचा सुलझाना है

पैरोडी--बॉलीवुड रे तेरा रंग कैसा

यूँहीं दिल किया कुछ पैरोडी देखने का, तो कुछ ऐसा नज़र आया कि सोचा आप सब से भी इसे share कर लिया जाए...
देखिये ज़रा बॉलीवुड का जादू कैसे सर चढ़ कर बोलता है...
अगर आप नहीं झूम गए तो फिर क्या ?????
youtube से साभार...

Tuesday, July 28, 2009

नीम हकीम ख़तरा-ऐ-जान....

'समीर लाल उड़नतश्तरी वाले' लेख पढ़ कर उनके नाम की विवेचना करते करते, मुझे एक कहावत ही कहते है शायद याद आ गयी :
'नीम हकीम ख़तरा-ऐ-जान' बचपन से इसका मतलब यही जाना की जिसे आधा ज्ञान हो उससे खतरा होता है, अंतरजाल की ख़ाक छान ली कहीं मिला:
नीम हकीम खतरा जान (A little knowledge is a dangerous thing.)
कहीं मिला :
Neem Hakeem = Means = A physician lacking in full knowledge of his profession OR A half baked physician . Khatra - e - Jaan = Means = Danger ...
लेकिन हर बार मुझे लगा कही कुछ ठीक नहीं है, कहीं हम उस बेचारे हाकिम के साथ तो ज्यादती नहीं कर रहे, काफी जद्दो-जहद के बाद मुझे इसका असली मतलब समझ में आया है,
वैसे मुझे सबने कहा आप ऐसे ताबड़-तोड़ पोस्टिंग करती हैं.......अच्छा नहीं लगता है......हमें कमेन्ट करने के भी तो सोचना पड़ता है......हुम्म्म्म्म...सॉरी...माफ़ी...बस last chance दे दीजिये please अब ऐसी गलती नहीं करुँगी.... इसके बाद की पोस्टिंग कल ही करुँगी...... हे हे हे ही ही ही ही.... नहीं करुँगी
खैर, तो मैंने जो 'नीम हकीम ख़तरा-ऐ-जान' का सही अर्थ समझा है, सोचा आपलोगों को भी बता ही दूँ, क्योंकि आइन्दा आप भी तो यही इस्तेमाल करेंगे....और मेरे हिसाब से यही इसका असली अर्थ भी है,
वो है:

वो हकीम जो नीम के पेड़ के नीचे सो रहा है, उसकी जान को खतरा है.......

अब आप सब बताइए यही सही अर्थ है या नहीं ??????
और यह अर्थ मैं समीर जी और विवेक जी को समवेत समर्पित करती हूँ, अग्रिम गुरु दक्षिणा के रूप में .....
'अदा'

Sunday, July 26, 2009

प्रतिष्ठा पांचाली की...

पांचाली तुम्हें किस रूप में करुँ मैं स्मरण ?
भार्या कहूँ तुम्हें, पर किसकी कहूँ ?
या मातृतुल्य सोच कर करूँ मैं नमन ?
पांचाली तुम्हें किस रूप में करूँ मैं स्मरण ?

पाँच पति पाकर हुआ तुम्हें अभिमान !
एक ने भी भार्या का क्या दिया तुम्हें सम्मान ?
सम्मानित जीवन का बस दे दो उदाहरण !
पांचाली तुम्हें किस रूप में करूँ मैं स्मरण ?

चौपड़ की गोटी बनी, रिक्त सा जीवन पाया
बिन सोचे-समझे पांडवों ने तुझपर दाँव लगाया
अब बनो वस्तु से नारी और करो मनन
पांचाली तुम्हें किस रूप में करूँ मैं स्मरण ?

फिर नहीं देखा कुलवधुओं को दाँव पे चढ़ते
बस देखा पति को प्रिया की आन पर मरते
सोच द्रौपदी सोच ! अरे कुछ तो करो चिंतन
पांचाली तुम्हें किस रूप में करूँ मैं स्मरण ?

कोई सुभद्रा किसी सभा में कभी न बुलवाई गयी
किसी हिडिम्बा की साड़ी किसी दुर्योधन के हाथ न आई
अपमान की पराकाष्ठा कितनी थी गहन
पांचाली तुम्हें किस रूप में करूँ मैं स्मरण ?

पाँचों के प्रति तेरा समर्पण, कहाँ प्रतिष्ठित माना गया ?
यह तिरस्कार इतिहास में फिर कहाँ जाना गया ?
इस अनुचित रीति का चल न पाया चलन
पांचाली तुम्हें किस रूप में करूँ मैं स्मरण ?

सब बनने की लालसा में तू कुछ न बन पाई !
पत्नी का स्थान रिक्त रहा, तू माता भी न कहलाई !
भोग्या से भार्या तक की दूरी थी कठिन
पांचाली तुम्हें किस रूप में करूँ मैं स्मरण ?

खुदाई...

दिखाया जाहिरा से खूब मंज़र आशनाई का
अजब फिर खेल खेला है,खुदी जम के खुदाई का

दिखाए तूने क्या-क्या कारनामे,क्या जवाब उनका
खुला हैरत से बस मुंह रह गया है तमाशाई का

कहा आँखों ने क्या और दिल न जाने क्या समझ बैठा
कमाल ऐसा भी हमने देखा है तेरी खुदाई का

न नजरें जब रहीं रोशन, न जिस्मों में गठीलापन
लिया बस नाम इन्सां है तब तेरी खुदाई का

Saturday, July 25, 2009

सुर्खाब हैं ज़िन्दगी...

न तुमने जाना न मैंने ही पहचाना
ज़िन्दगी ख्वाब है या ख्वाब है ज़िन्दगी

हँसते हुए चेहरों की भीड़ सी लगी है
कहकशाँ से परेशाँ अज़ाब है ज़िन्दगी

न आने का पूछा,ना जाने की रजा-मंदी
आने-जाने के दरमियाँ सुर्खाब है ज़िन्दगी

किसी के मारे हम कहाँ मरते...

किसी के मारे हम कहाँ मरते,
हमें तो सब्र-ओ-क़रार ने मारा

जान तो फिर भी अटकी रही,
तुम न आए,इंतज़ार ने मारा

गुलों से हैं लिपटे यही भरम था
दामन में छुपे खार ने मारा

शिकस्त-ऐ-ज़िन्दगी से कैसा गिला
मौत हारी हमसे,इस हार ने मारा

Friday, July 24, 2009

दूर के ढोल....

दूर के ढोल सुहावन भैया
दिन रात येही गीत गावें हैं
फोरेन आकर तो भैया
हम बहुत बहुत पछतावे हैं

जब तक अपने देस रहे थे
बिदेस के सपने सजाये थे
जब हिंदी बोले की बारी थी
अंग्रेजी बहुत गिटगिटाये थे
कोई खीर जलेबी अमरती परोसे
तब पिजा हम फरमाए थे
वहाँ टीका सेंदूर, साड़ी छोड़
हरदम स्कर्ट ही भाए थे

वीजा जिस दिन मिला था हमको
कितना हम एंठाए थे
हमरे बाबा संस्कृति की बात किये
तो मोडरनाईजेसन हम बतियाये थे
दोस्त मित्र नाते रिश्ते
सब बधाई देने आये थे
सब कुछ छोड़ कर यहाँ आने को
हम बहुत बहुत हड़ाबड़ाए थे

पहिला धक्का लगा तब हमको
जब बरफ के दर्शन पाए थे
महीनों नौकरी नहीं मिली तो
सपने सारे चरमराये थे
तीस बरस की उम्र हुई थी
वानप्रस्थ हम पाए थे
वीक्स्टार्ट से वीकएंड की
दूरी ही तय कर पाए थे

क्लास वन का पोस्ट तो भैया
हम इंडिया में हथियाए थे
कैनेडियन एक्स्पेरीएंस की खातिर
हम महीनों तक बौराए थे
बात काबिलियत की यहाँ नहीं थी
नेट्वर्किंग ही काम आये थे
कौन हमारा साथ निभाता
हर इंडियन हमसे कतराए थे
लगता था हम कैनेडा नहीं
उनके ही घर रहने आये थे
हजारों इंडियन के बीच में भैया
ख़ुद को अकेला पाए थे

ऊपर वाले की दया से
हैण्ड टू माउथ तक आये हैं
डालर की तो बात ही छोड़ो
सेन्ट भी दाँत से दबाये हैं
मोर्टगेज और बिल की खातिर
ही तो हम कमाए हैं
अरे बड़े बड़े गधों को हम
अपना बॉस बनाये हैं
इनको सहने की हिम्मत
रात दिन ये ही मनाये हैं
ऐसे ही जीवन बीत जायेगा
येही जीवन हम अपनाए हैं

तो दूर के ढोल सुहावन भैया
दिन रात येही गीत गावे हैं
फोरेन आकर तो भैया हम
बहुत बहुत पछतावे हैं

Wednesday, July 22, 2009

बात से बतंगड़ तक..

बात से बात निकली थी
और बात कहाँ तक आ पहुंची
बातों बातों में ही,
बात का बतंगड़ बन गया
बेबात ही बात बनती गयी
और बस बात बढ़ती गयी
बात इतनी बढ़ गयी
कि बातें बाकी हीं न रहीं
और फ़िर एक दिन
बात ही बंद हो गई


Tuesday, July 21, 2009

कुछ कुछ कुछ कुछ कह जाता

जब ख्वाब ख़ुद हकीक़त की दीवार में चुन जाते है
सात समंदर पार का सपना, सपना ही रह जाता है

हर दिन आईने के आगे, अब ठहरना मुश्किल है
अक्स देखते ही ख़्वाबों का, ताजमहल ढह जाता है

मुड़ कर देखा जब ख़ुद को, खालीपन था चेहरे पर
पाने से ज्यादा खोने की, कई कहानी कह जाता है

रिमझिम सी फुहार हैं छाई, भीज रहे अंगना, अंगनाई
देखो न सब भीज गए हैं इक मेरा मन रह जाता है

तू ऐसे मत देख मुझे, हैं कई सवाल तेरी आँखों में
रुख की शिकन ठहर गयी, न माथे से ये बल जाता है

तेरी है क्या औकात ' अदा', जो तू कोई ग़ज़ल कहे
वो तो कोई और है जो कुछ कुछ कुछ कुछ कह जाता है


Monday, July 20, 2009

शूर्पनखा...

शूर्पनखा ! हे सुंदरी तू प्रज्ञं और विद्वान्,
किस दुविधा में गवाँ आई तू अपना मान-सम्मान
स्वर्ण-लंका की लंकेश्वरी, भगिनी बहुत दुराली
युद्ध कला में निपुण, सेनापति, पराक्रमी राजकुमारी
राजनीति में प्रवीण, शासक और अधिकारी
बस प्रेम कला में अनुतीर्ण हो, हार गई बेचारी
इतनी सी बात पर शत्रु बना जहान
शूर्पनखा ! हे सुंदरी तू प्रज्ञं और विद्वान्,

क्या प्रेम निवेदन करने को, सिर्फ मिले तुझे रघुराई ?
भेज दिया लक्ष्मण के पास, देखो उनकी चतुराई !
स्वयं को दुविधा से निकाल, अनुज की जान फँसाई !
कर्त्तव्य अग्रज का रघुवर ने, बड़ी अच्छी तरह निभाई !
लखन राम से कब कम थे, बहुत पौरुष दिखलायी !
तुझ पर अपने शौर्य का, जम कर जोर आजमाई !
एक नारी की नाक काट कर, बने बड़े बलवान !
शूर्पनखा ! हे सुंदरी तू प्रज्ञं और विद्वान्,

ईश्वर थे रघुवर बस करते ईश का काम
एक मुर्ख नारी का गर बचा लेते सम्मान
तुच्छ प्रेम निवेदन पर करते न अपमान
अधम नारी को दे देते थोड़ा सा वो ज्ञान
अपमानित कर, नाक काट कर हो न पाया निदान
युद्ध के बीज ही अंकुरित हुए, यह नहीं विधि का विधान
हे शूर्पनखा ! थी बस नारी तू, खोई नहीं सम्मान
नादानी में करवा गयी कुछ पुरुषों की पहचान

युद्ध.....

प्रभु तुम्हारी दुनिया में, इतना अन्याय क्यों होता है ?

जीत-हार के अन्तराल में, निर्दोष बलि क्यों चढ़ता है?

युद्ध धनिक का महज मनोरंजन, निर्धन ही सब खोता है

अट्टहास करते नेतागण, सिर्फ गरीब ही रोता है

सदियों से यही कहानी, मानव सुनता आया है

हर युग में इतिहास स्वयम् को, बार-बार दोहराया है

त्रेता, द्वापर या कलियुग में, जितने भी जो युद्ध हुए

सिर्फ बे-नाम, लाचार ग़रीब, विप्र ही प्राण गँवाया है

सारे ध्रितराष्ट्र अपने घर के, अन्दर में छुप जाते हैं

और संजय उन सबको फिर, युद्ध का हाल दिखाते हैं

इस युग में भी कई बार, युद्ध के बादल छाये हैं

और युद्ध की परिणति पर, कई अशोक पछताए हैं

पर उससे क्या होता है, युद्ध तो अब भी जारी है

जीत चाहे जिसकी भी हो, मानवता सिर्फ हारी है

Sunday, July 19, 2009

मेरे ज़ख्मों से मुझको सजाया है...

आज फिर मुझे उसने रुलाया है
रूठी हूँ मैं वो मनाने आया है

ज़ख्म पर सूखी पपड़ी जो पड़ी थी
नाखून से कुरेद कर उसने हटाया है

क़तरन-ऐ-पैबंद के कई टुकड़े
साथ अपने वो लेकर आया है

मरहम धरने की साजिश रचा
एक घाव और उसने लगाया है

महबूब नहीं खौफ़-ऐ-रक़ीब हूँ मैं
मेरे ज़ख्मों से मुझको सजाया है

शेर कहा या दोहा ...

बात तब की है जब मिथुन चक्रवर्ती हीरो नहीं बने थे, मिथुन चक्रवर्ती को अपने पड़ोस में रहने वाली एक नवयुवती से प्रेम हो गया, समस्या यह थी कि नवयुवती बंगला भाषा से अज्ञान थी इसलिए प्रेम निवेदन थोड़ा कठिन हो रहा था मिथुन के लिए, बहुत सोच समझ कर उन्होंने अपनी यह समस्या अपने दोस्तों को बताई, दोस्तों ने मशवरा दिया कि हिम्मत करके अपने दिल की बात कह ही दीजिये उससे, फिर क्या था मिथुन दा सुबह स्नान-ध्यान कर कंघी-पाटी कर तैयार हो कर बाहर खड़े हो गए, जब वह नवयुवती उनके घर के सामने से गुजरने लगी, मिथुन दा ने बहुत ही मधुर आवाज़ में कहा "शोनिये" लड़की ने कहा "कहिये", मिथुन दा कहा "हाम ना आपका शे प्रेम कोरता हाय" लड़की ने आव देखा न ताव कस कर एक थप्पड़ उनके गालों पर रसीद कर दिया, घबडाये हुए मिथुन दा अपने दोस्तों के पास पहुंचे " यार, उ तो शोब गोड़बोड़ हो गाया", दोस्तों ने ढ़ाढ़स बंधाते हुए हिम्मत रखने की सलाह दी और इस नतीजे पर पहुंचे की इन्हें एक शेर सिखाया जाए जिसका असर जल्दी हो जाए, खैर शेर सिखाया गया और शेर था :

"न शिकवा है न गिला है, तुम सलामत रही यही मेरी दुआ है'

रात भर मिथुन दा ने इस शेर का रट्टा मारा और सुबह फिर तैयार होकर खड़े हो गए, लड़की ज्यूँ ही नज़र आई उन्होंने हिम्मत जुटाई और आवाज़ लगायी, " शोनिये" लड़की ने खीझ कर कहा "अब क्या है?" " हाम ना आपको एक ठो शेर सुनाना चाहता है" लड़की ने अनमने भावः से कहा " सुनाइए " , मिथुन दा ने जो शेर सुनाया वो कुछ इस प्रकार था :

ना शूखा हाय ना गीला हाय,
ना शूखा हाय ना गीला हाय,
तुम साला मत रहो एही हमारा दोहा हाय

हा हा हा हा हा

Saturday, July 18, 2009

लड़कियां छेड़ना एक खूबसूरत रिवाज़ है....

आकांक्षा यादव का लेख 'ईव-टीजिंग और ड्रेस कोड' पढ़ा 'चोखेर बाली' पर तो एक व्यंग लिखने की इच्छा हुई, सुना है भारत में अब नवयुवतियों को ड्रेस-कोड का पालन करना होगा, मन व्यथित हुआ की यह कैसा दिमागी-दीवालियापन है, क्या हमारे देश के पुरुष वर्ग का चरित्र इतना शिथिल है की वह मात्र लड़कियों के कपड़ों की लम्बाई-चौड़ाई पर टिका हुआ है, जबकि पश्चिम में कपड़ों का प्रयोग महिलाएं कितना और कैसे करती हैं किसी से छुपा नहीं फिर भी यहाँ के पुरुष वर्ग का चरित्र बहुत ऊँचा है, इस ड्रेस-कोड की भर्त्सना केवल नारियों को नहीं पुरुषों को भी करना चाहिए, क्योंकि यह सिर्फ और सिर्फ पुरुषों की कमजोरी दर्शाता है और कुछ नहीं, उँगलियाँ आपकी ओर हैं, हमारी ओर नहीं.....

बड़े अरमानों से,
खुद को सजाया
हर डिस्टेम्पर,
खुद पर आजमाया,
न जाने कितनी साडियां,
खुद पर निसार की
तब कहीं जाकर,
एक पर दिल आया
झुमके बालिओं की
हर खेप से मुखातिब हुई
कितने नेकलसों को,
फिर गले लगाया
मैंचिंग के गुरों की,
हर पोथी पढ़ डाली
फैशन का कोई ज्ञान,
न किया मैंने जाया
बार बार आईने से ,
भिड़ती रही थी,
इस साजो श्रृगार में,
पूरे तीन घंटे लगाया
टोरंटो की सड़कों पर,
बिजली गिराने का
मैंने प्रोग्राम
और इरादा बनाया

निकल पड़ी अपनी,
मतवाली चाल से
दिलों पर तीर चलाने,
पर नैनों के कटार
तो म्यान में ही रहे
चलाने को मिले नहीं
कहीं कोई बहाने
शमा तो जलती रही
उचक उचक कर
पर सारे परवाने जैसे
हड़ताल पर चले गए
मेरी अदाओं के ढेले
घूम घूम कर
मुझ पर ही गिरने लगे
हुस्न के जादू
अबाउट टर्न हो
मुझपर ही फिरने लगे
अब मेरे ज़हन में सोच के
बादल घुड़मुड़ाने लगे
अजीब अजीब से ख्याल
मन में भी आने लगे
यह देश घोर संकट में है
ये अपनी समस्याओं से
कैसे लड़ते हैं ?
जब सड़कों पर
एक लड़की तक नहीं छेड़ते हैं
इन्हें भारत से इसका कोर्स
मंगवाना होगा
इसको हर कालेज
में लगवाना होगा
समझाना होगा
लड़कियां छेड़ना एक
खूबसूरत रिवाज़ है
अगर आप ये रिवाज़
नहीं निभायेंगे
तो हम भारत की बालाएं
बिन छिड़े ही मर जाएँगी
और भारतीय संस्कृति की
अनुपम धरोहर अपने बच्चों
को भला कैसे दे पाएँगी.....

Wednesday, July 15, 2009

समय...

याद है मुझे,
जब मैं छोटी बच्ची थी,
झूठी दुनिया की
भीड़ में, भोली-भाली
सच्ची थी,
तब भी सुबह होती थी
शाम होती थी,
तब भी उम्र यूँ ही
तमाम होती थी,
लगता था पल बीत रहे हैं
दिन नहीं बीता है
मैं जीतती जा रही हूँ,
वक्त नहीं जीता है,
पर,अब बाज़ी उलटी है पड़ी,
वक्त भाग रहा है,और मैं हूँ खड़ी
वक्त की रफ़्तार का
नही दे पा रही हूँ साथ,
इस दौड़ में न जाने कितने
छूटते जा रहे हैं हाथ
अब समय मुझे दीखाने लगा अंगूठा
कहता है, तू झूठी,
तेरा अस्तित्व भी झूठा
जब तक तुम सच्चे हो
तुम्हारा साथ दूंगा
जब कहोगे,जैसा कहोगे,
वैसा ही करूँगा
अच्छाई की मूरत बनोगे तो
समय से जीत पाओगे
वर्ना दुनिया की भीड़ में
बेनाम खो जाओगे
आज भी समय जा रहा है भागे
सदियों पुरानी सच्चाई की मूरत
अब भी हैं आगे
ये वो हैं जिन्होंने
ता-उम्र बचपन नहीं छोडा है
वक्त ने इन्हें नहीं,
इन्होने वक्त को मोड़ा है
सोचती हूँ
कैसे लोग बच्चे रह जाते हैं
झूठ की कोठरी में रह कर भी
सच्चे रह जाते हैं,
अभी तो मुझे
असत्य की नींद से जागना है
फिर समय के
पीछे-पीछे दूर तक
भागना है ....