याद है मुझे,
जब मैं छोटी बच्ची थी,
झूठी दुनिया की
भीड़ में, भोली-भाली
सच्ची थी,
तब भी सुबह होती थी
शाम होती थी,
तब भी उम्र यूँ ही
तमाम होती थी,
लगता था पल बीत रहे हैं
दिन नहीं बीता है
मैं जीतती जा रही हूँ,
वक्त नहीं जीता है,
पर,अब बाज़ी उलटी है पड़ी,
वक्त भाग रहा है,और मैं हूँ खड़ी
वक्त की रफ़्तार का
नही दे पा रही हूँ साथ,
इस दौड़ में न जाने कितने
छूटते जा रहे हैं हाथ
अब समय मुझे दीखाने लगा अंगूठा
कहता है, तू झूठी,
तेरा अस्तित्व भी झूठा
जब तक तुम सच्चे हो
तुम्हारा साथ दूंगा
जब कहोगे,जैसा कहोगे,
वैसा ही करूँगा
अच्छाई की मूरत बनोगे तो
समय से जीत पाओगे
वर्ना दुनिया की भीड़ में
बेनाम खो जाओगे
आज भी समय जा रहा है भागे
सदियों पुरानी सच्चाई की मूरत
अब भी हैं आगे
ये वो हैं जिन्होंने
ता-उम्र बचपन नहीं छोडा है
वक्त ने इन्हें नहीं,
इन्होने वक्त को मोड़ा है
सोचती हूँ
कैसे लोग बच्चे रह जाते हैं
झूठ की कोठरी में रह कर भी
सच्चे रह जाते हैं,
अभी तो मुझे
असत्य की नींद से जागना है
फिर समय के
पीछे-पीछे दूर तक
भागना है ....
ये वो हैं जिन्होंने
ReplyDeleteता-उम्र बचपन नहीं छोडा है
वक्त ने इन्हें नहीं,
इन्होने वक्त को मोड़ा है
सोचती हूँ
कैसे लोग बच्चे रह जाते हैं
kya bat hai
bahut sunder khyaal layee hai aap
acha laga
Phir ekbaar kahungee, lagta hai,ye alfaaz aapke hain, jo mere manse nikale mehsoos hote hain..!
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वक्त ने इन्हें नहीं,
ReplyDeleteइन्होने वक्त को मोड़ा है
सोचती हूँ
कैसे लोग बच्चे रह जाते हैं
kyaa baat hai...
kyaa falsafaa hai../
जब,जब पुरानी तस्वीरे
ReplyDeleteकुछ यांदें ताज़ा करती हैं ,
हँसते ,हँसते भी मेरी
आँखें भर आती हैं!
वो गाँव निगाहोंमे बसता है
फिर सबकुछ ओझल होता है,
घर बचपन का मुझे बुलाता है,
जिसका पिछला दरवाज़ा
खालिहानोमें खुलता था ,
हमेशा खुलाही रहता था!
वो पेड़ नीमका आँगन मे,
जिसपे झूला पड़ता था!
सपनोंमे शहज़ादी आती थी ,
माँ जो कहानी सुनाती थी!
वो घर जो अब "वो घर"नही,
अब भी ख्वाबोमे आता है
बिलकुल वैसाही दिखता है,
जैसाकी वो अब नही!
लकड़ी का चूल्हाभी दिखता है,
दिलसे धुआँसा उठता है,
चूल्हा तो ठंडा पड़ गया
सीना धीरे धीरे सुलगता है!
बरसती बदरीको मै
बंद खिड्कीसे देखती हूँ
भीगनेसे बचती हूँ
"भिगो मत"कहेनेवाले
कोयीभी मेरे पास नही
तो भीगनेभी मज़ाभी नही...
जब दिन अँधेरे होते हैं
मै रौशन दान जलाती हूँ
अँधेरेसे कतराती हूँ
पास मेरे वो गोदी नही
जहाँ मै सिर छुपा लूँ
वो हाथभी पास नही
जो बालोंपे फिरता था
डरको दूर भगाता था...
खुशबू आती है अब भी,
जब पुराने कपड़ों मे पडी
सूखी मोलश्री मिल जाती
हर सूनीसी दोपहरमे
मेरी साँसों में भर जाती,
कितना याद दिला जाती ...
नन्ही लडकी सामने आती
जिसे आरज़ू थी बडे होनेके
जब दिन छोटे लगते थे,
जब परछाई लम्बी होती थी...
यें यादे कैसी होती?
कडी धूपमे ताजी रहती है !
ये कैसे नही सूखती?
ये कैसे नही मुरझाती ?
ये क्या चमत्कार है?
पर ठीक ही है जोभी है,
चाहे वो रुला जाती है,
दिलको सुकूँ भी पहुँचाती....
बातेँ पुरानी होकेभी,
लगती हैं कलहीकी
जब पीली तसवीरें,
मेरे सीनेसे चिपकती हैं,
जब होठोंपे मुस्कान खिलती है
जब आँखें रिमझिम झरती हैं
जो खो गया ,ढूँढे नही मिलेगा,
बात पतेकी मुझहीसे कहती हैं ....
शमा
Ye aapke liye..!Ek puranee rachnaa...!
ता-उम्र बचपन नहीं छोडा है
ReplyDeleteवक्त ने इन्हें नहीं,
इन्होने वक्त को मोड़ा है
Adbhut Panktiyaan hai. Bahut hee prernaa daayee. Badhaai
बहुत ही सुंदर कविता.
ReplyDeleteधन्यवाद
sahi ab baji ulti hai,waqt bhagta hai,behad sunder kavita.
ReplyDeleteबढियां
ReplyDeleteपीछे-पीछे दूर तक
ReplyDeleteभागना है ....
========
और इस भागमभाग मे बहुत कुछ छूटता जाता है.. और जो छूटता है शायद सबसे अमूल्य होता है.
बहुत अच्छी रचना
जीवन का सजीव चित्रण।
ReplyDeleteसुन्दर रचना।
सबकी टीप पढ़ी..बहुत सजीव चित्रण...बहुत बेहतरीन रचा है आपने भावों को पूरा जीते हुए.
ReplyDeleteबहुत खूब.
ReplyDeleteWaah ke sivaay aur kya kaha jaa sakta hai!
ReplyDeleteमैं कुछ भी कहूंगा, तो सूर्य को दीया दिखाने वाली बात होगी।
ReplyDeleteसत्य सामने खडा है पर हम उस तक हाथ नही बढा रहे कभी हाथ उठता भी है तो ढेरो प्रलोभन हमारे बीच चमककर खडे हो जाते है ठीक लक्ष्मन रेखा कि तरह बस फर्क ये रह जाता है कि उस समय सच रेखा के अन्दर था और झूठ रेखा के बाहर .और आज हम रखा के अन्दर बाहर दोनों तरफ झूठ को खडा पाकर मूक बने खडे है |
ReplyDeleteबहुत अच्छी रचना खुद से सत्य बोलकर जीने कि कोशिश |
बधाई
Wonderful creation!
ReplyDeleteReally liked it... Innovative thoughts.
Regards,
Dimple
http://poemshub.blogspot.com
bahut khoob
ReplyDelete-Sheena
http://sheena-life-through-my-eyes.blogspot.com
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http://mind-bulb.blogspot.com/
बहुत अच्छी कविता है
ReplyDelete-----------------
गुलाबी कोंपलें · चाँद, बादल और शाम
बहुत सुन्दर लिखा है
ReplyDeleteटिप्पणियों में आई शमा जी कि कविता भी लाजवाब है, आपसे उनके लगाव ने हमें भी कविता पढ़वा दी है.
आपने भावों ke saath likhi बहुत अच्छी रचना hai....... शमा जी कि कविता भी लाजवाब है
ReplyDeleteएकऐसी विचार को व्यक्त करी है जो बिल्कुल कोरी है ......ऐसा भी होता है जिन्दगी मे कुछ लोग बिल्कुल अन्धेरे मे मे ही रह जाते है बिल्कुल निश्छल निष्कपट......बहुत ही सुन्दर
ReplyDeleteसोचती हूँ
ReplyDeleteकैसे लोग बच्चे रह जाते हैं
झूठ की कोठरी में रह कर भी
सच्चे रह जाते हैं,
अभी तो मुझे
असत्य की नींद से जागना है
फिर समय के
पीछे-पीछे दूर तक
भागना है ....
कितनी गंभीर बात कितनी सहजता से कह दी
लाजवाब !!
अभी तो मुझे
ReplyDeleteअसत्य की नींद से जागना है
फिर समय के
पीछे-पीछे दूर तक
भागना है ....
bahut achchha likha hai |
अदा जी......
ReplyDeleteसमय और जिंदगी का यही नाता है............ और समय के साथ चलाना या भागना इसी का हिस्सा है...... सुन्दर रचना लिखी है आपने.......
bahot khubsurati se aapne wakht uske haalaat ka sajeev chitarn apne nazm me kari hai bahot bahot badhaayee... kaise log bachche rah jaate hai ... kyaa baat hai bahot khub..
ReplyDeletearsh
ये वो हैं जिन्होंने
ReplyDeleteता-उम्र बचपन नहीं छोडा है
वक्त ने इन्हें नहीं,
इन्होने वक्त को मोड़ा है
सोचती हूँ
कैसे लोग बच्चे रह जाते हैं
bahut accha likha hai..
अपने मनोभावों को सुन्दर शब्द दिए हैं।बधाई।
ReplyDelete"अभी तो मुझे
ReplyDeleteअसत्य की नींद से जागना है
फिर समय के
पीछे-पीछे दूर तक
भागना है .... "
बहुत उम्दा ख्याल है।