आज फिर मुझे उसने रुलाया है
रूठी हूँ मैं वो मनाने आया है
ज़ख्म पर सूखी पपड़ी जो पड़ी थी
नाखून से कुरेद कर उसने हटाया है
क़तरन-ऐ-पैबंद के कई टुकड़े
साथ अपने वो लेकर आया है
मरहम धरने की साजिश रचा
एक घाव और उसने लगाया है
महबूब नहीं खौफ़-ऐ-रक़ीब हूँ मैं
मेरे ज़ख्मों से मुझको सजाया है
रूठी हूँ मैं वो मनाने आया है
ज़ख्म पर सूखी पपड़ी जो पड़ी थी
नाखून से कुरेद कर उसने हटाया है
क़तरन-ऐ-पैबंद के कई टुकड़े
साथ अपने वो लेकर आया है
मरहम धरने की साजिश रचा
एक घाव और उसने लगाया है
महबूब नहीं खौफ़-ऐ-रक़ीब हूँ मैं
मेरे ज़ख्मों से मुझको सजाया है
एक बार फिर लाजवाब लाइनें शाया की हैं आपने आपा। इतनी गहराई कहां से आयी आप में। मैं तो स्तब्ध हूं कि कैसे इतना अच्छा लिख पाऊंगा मैं....
ReplyDeleteआज फिर उसने मुझे रुलाया है
ReplyDeleteरूठी हूँ मैं वो मनाने आया है
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चलो मनाने तो आया.
बहुत खूब लिखा है
मार्मिक भी
बहुत सुन्दर रचना है । आपकी संगीत भी अच्छी लगी । सुर तो लाजबाब । मैं भी वायलिन बजाता हँू । आपके शब्दों के लिए को शब्द नहीं ढूँढ़ पा रहा हूँ ।
ReplyDeleteandaje bya kya khubsurat hai .
ReplyDeleteshubhkamnaye
नदीम,
ReplyDeleteखुश रहो,
तुम्हें सब अच्छी लगतीं हैं क्योंकि तुम मेरे भाई हो ..
अगर तुम्हें अच्छी न लगे तो पिट नहीं जाओगे :):):)
मैं तो बस लिख देती... लिख कर सोचती नहीं हूँ ...बस छाप देती हूँ.. बस
शनिवार और रविवार लिखने में ही बीतता है...
अभी अभी मेरे कानो में,किसी ने बताया है,
ReplyDeleteउन्होंने आज अपने अंदाज में ,फिर से कुछ फ़रमाया है
जख्म में कलम डुबोई, कागज़ पर उसे चलाया है,
क्या कहें इससे ज्यादा, हर अंदाज हमें तो भाया है.
बहुत खूब लिखा है,,,सुन्दर रचना.
ReplyDeleteबहुत खूब लिखा है,,,सुन्दर रचना.
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ReplyDeleteji namaskar bahot dino bad blog pe ane ko time mila, ate hee aap ki rachna padhne ko mili, aapki rachna ne ek phir dil ko chu liya, bahut hee sunder rachna.
ReplyDeleteसुन्दर रचना !
ReplyDeleteaaj to aapne kamaal hi kar diya..........zakhmon se saji ik ibarat likh di dard ki syahi se .............nishabd ho gayi hun.
ReplyDeleteमहबूब नहीं अक्स-ऐ-अयाँ हूँ मैं
ReplyDeleteमेरे ज़ख्मों से मुझको सजाया है
Jabardast hai ji..
?
ReplyDeletedard hi aksar dikhta hai rachnao me apki....dard ka aaina acha byaan karti hai aksh ko
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ReplyDeleteमहबूब नहीं अक्स-ऐ-अयाँ हूँ मैं
ReplyDeleteमेरे ज़ख्मों से मुझको सजाया है
waah lajawab
ye joging karte huye uncle kuchh bol nahi paa rahe hain,kyaa huaa hai inhein?
ReplyDeleteआपका लिखा हुआ हमेशा अच्छा लगता है
ReplyDeleteइस बेहतरीन और लाजवाब रचना के लिए बधाई!
ReplyDeleteमरहम धरने की साजिश रचा
ReplyDeleteएक और घाव उसने लगाया है
--बेहतरीन लाजबाब रचना!! जय हो!!
मरहम धरने की साजिश रचा
ReplyDeleteएक और घाव उसने लगाया है
यूँ तो हस शेर काबिले तारीफ है ......... पूरी ग़ज़ल लाजवाब है पर ये बहूत पसंद आया .....कमाल का लिखा है
मरहम धरने की साजिश रचा
ReplyDeleteएक घाव और उसने लगाया है
वाह!
गर कुछ कहूं तो बस इतना के:
"ना रख मरहम,मेरे ज़ख्मों पे यूं बेदर्दी से,
तमाम इन में मेरे शौक की निशानी है।"
आज फिर मुझे उसने रुलाया है
ReplyDeleteरूठी हूँ मैं वो मनाने आया है
ज़ख्म पर सूखी पपड़ी जो पड़ी थी
नाखून से कुरेद कर उसने हटाया है
क़तरन-ऐ-पैबंद के कई टुकड़े
साथ अपने वो लेकर आया है
मरहम धरने की साजिश रचा
एक घाव और उसने लगाया है
महबूब नहीं खौफ़-ऐ-रक़ीब हूँ मैं
मेरे ज़ख्मों से मुझको सजाया है
main to kayal ho gayi ,har shabdo me gum ho gayi .bahut khoob .
बहुत खूब
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