सारा दिन, घन्ना और छेनी की आवाज़ आती रहती थी, बड़े-बड़े चट्टान निकल आये थे कूवें के अंदर, और उनको तोड़ने का एक ही उपाय था, चट्टानों में छेनी-हथौड़े से सुराख बनाना, उनमें बारूद भरना, पलीता लगाना और आग लगा कर भागना, सारा दिन घमाके होते रहते थे...ये हो रहा था हमारे घर में जो कूवाँ खोदा जा रहा था वहाँ, घर से बिलकुल लगा ही हुआ था, कूवें की खुदाई के लिए, कई मिस्त्री और मजदूर लगे हुए थे..उन मजदूरों में एक कुली का नाम 'मज़हर' था, मुसलमान था (इसका ज़िक्र बाद में आएगा इसलिए अभी बता दे रही हूँ) पलीतों में आग लगा कर सारे मिस्त्री-कुली, घर के अन्दर भाग आते थे और धमाकों का इंतज़ार करते थे, कूवें के अन्दर, चट्टान, पत्थरों में तब्दील हो जाते थे, जिन्हें बाद में बाहर निकाला जाता था, कुछ पत्थर आँगन में भी आ गिरते थे...धमाके इतने तेज़ होते कि, घर की दीवार तक दरक गयी...आज भी वो दरकी हुई दीवार, नज़र आती है..
एक दिन, ऐसे ही धमाकों के बीच, कुछ और धमाके सुनाई पड़ने लगे, किसी ने सोचा ही नहीं था कि, ये धमाके सांप्रदायिक ताक़तों के कुटिल मंसूबों के हैं ..बाबा, कुछ दिनों के लिए गाँव गए थे, और उसी दिन वो, राँची, घर आ रहे थे, ट्रेन से उतर कर स्टेशन से, जब वो बाहर आये, तो कोई सवारी उन्हें नहीं मिली...पैदल ही उन्होंने रास्ता तय करना शुरू किया, रास्ते में हर तरफ सन्नाटा था, तोड़-फोड़ के आसार, साफ़ नज़र आ रहे थे, टूटी हुई कांच की बोतलें, कहीं जूते, आग, कपड़े क्या नहीं था, हर घर का दरवाज़ा बंद था, कहीं-कहीं कोई खिड़की, हलकी सी खुली होती और उसके पीछे, अन्वेषी, सहमी सी आँखें, जो नज़र मिलते ही खिड़की बंद कर लेती, ये सब मिल कर बता रहे थे, कि अभी-अभी विनाश यहाँ से होकर गुज़रा है...
इतने में एक पुलिस की गाड़ी आकर, बिलकुल बाबा के पास रुकी, ये गश्त लगाने वाली टुकड़ी थी, बाबा को रोक कर, पुलिस वालों ने सख्ती से कहा, आपको मालूम नहीं, बाहर निकलना मना है, पूरे शहर में, १४४ धारा लागू है, बाबा ने अपनी अनभिज्ञता बताई, पुलिस की जीप ने उनको, घर तक छोड़ आने का जिम्मा ले लिया..और उनकी गाडी में बाबा घर आ गए...
इतने में एक पुलिस की गाड़ी आकर, बिलकुल बाबा के पास रुकी, ये गश्त लगाने वाली टुकड़ी थी, बाबा को रोक कर, पुलिस वालों ने सख्ती से कहा, आपको मालूम नहीं, बाहर निकलना मना है, पूरे शहर में, १४४ धारा लागू है, बाबा ने अपनी अनभिज्ञता बताई, पुलिस की जीप ने उनको, घर तक छोड़ आने का जिम्मा ले लिया..और उनकी गाडी में बाबा घर आ गए...
हिन्दू मोहल्ला है हमारा, उससे कुछ ही दूर रांची की पहाड़ी है और उसके नीचे, मुस्लिम मोहल्ला, बात थोड़ी पुरानी है, हमारे घर के बाद ही खेत शुरू हो जाते थे, इसलिए हिन्दू मोहल्ले और मुस्लिम मोहल्ले के बीच खाली खेत ही थे, कोई घर नहीं था...अब तो खेत रहे नहीं...मकानों का जाल बन गया है...हाँ तो, कुल मिला कर बात ये हुई कि, हिन्दू-मुस्लिम रायट हो चुका था, पूरा शहर श्मशान की तरह, कभी खामोश हो जाता और कभी हादसों से आबाद, रात में कभी 'जय बजरंग बली की आवाज़ गूंजती और कभी अल्लाह हो अकबर...और इन गूंजों के बीच, गूंजती मौत की चीख, फिर मौत का सन्नाटा, और हलाक़ होती मानवता के अनगिनत आर्तनाद...
हमारे मोहल्ले में, हमारा घर सबसे सुरक्षित, घर माना जाता था, इसलिए सबने मिलकर फैसला किया कि, बच्चों और महिलाओं की सुरक्षा के लिए, रात में, मोहल्ले की औरतें और बच्चे, हमारे घर में सोया करेंगे, बाकि पुरुष बारी-बारी से, घर के बाहर पहरा दिया करेंगे.. फिर क्या था, छत पर पत्थर, ईंट का जमावड़ा कर लिया गया, अगर कोई आतताई आये तो पत्थर फेंके जायेंगे..घर के चारों तरफ कई, हज़ार वाट के बल्ब लग गए और...हथियारों के लिए जितनी भी लोहे की छड़ें थीं सबको नुकीला बना कर, एक जगह इकट्टा कर लिया गया, जितनी बंदूकें मिल सकती थी, लायीं गयीं, भाला-बरछा, तलवार जो भी हथियार, जिसके पास था सब जमा कर लिए गए...
शाम को सब अपने-अपने घरों में, खाना खा लेते और हमारे घर आ जाते..औरतें बच्चे, कई कमरों में बँट जाते, कोई ज़मीन पर, तो कोई पलंग पर, जिसे जहाँ जगह मिलती सो जाता, और सारे पुरुष बारी-बारी से पहरा देते, ये सिलसिला कई दिनों तक चलता रहा...सभी सुरक्षित थे..
शहर में, कई दिनों तक १४४ लगा रहा, जीवन अस्त-व्यस्त कम, भयभीत ज्यादा रहा, दो-तीन दिनों के बाद, एक शाम, गेट खुला हमारे घर का..सबकी आशंकित नज़र उधर घूम गयी, देखा, कुली मज़हर चला आ रहा था, उसे देखते ही सबके जबड़े गुस्से से भींच गए, पूरे घर में गुस्से की एक लहर दौड़ गयी...हाथों के हथियारों की पकड़ मजबूत हो गयी..बाबा वहीँ थे, उन्होंने कड़े शब्दों में, सबको मना कर दिया, कोई कुछ नहीं करेगा...न चाहते हुए भी सभी चुप हो गए...मज़हर धीरे-धीरे चलता हुआ क़रीब आ गया, बाबा ने पूछा, का बात है मज़हर, ई समय और ऐसा माहौल में तुम यहाँ काहे आये हो ? कहने लगा 'हुजूर, सहर आये थे, काम था, लेकिन अब घर जाने के लिए कोई गाडी नहीं मिल रहा है, रात भी होने लगा है, कहाँ जाते ईसीलिये, आपके पास चले आये हैं, रात भर रुकने दीजिये, सुबह हम चल जायेंगे, अब अतिथि अगर दुश्मन भी हो तो, हमारी परंपरा को कैसे त्यागा जा सकता था, बाबा ने कह दिया, देखो, वैसे तो माहौल ठीक नहीं है, लेकिन जब हमारे घर आ ही गए हो तो, ठहर सकते हो, लेकिन सुबह चले जाना, हम ज्यादा देर तक नहीं रोक सकेंगे लोगों को, मज़हर कृज्ञता से भर उठा, उसे एक जगह दे दी गई सोने के लिए और वो अपना झोला सम्हालता, वहीँ पर पसरने को तैयार हो गया...
उसका इस तरह, अप्रत्याशित आना मेरे चाचा को बिलकुल नहीं सुहा रहा था, उन्होंने पूछ ही लिया ऐसा कौन काम आ गया शहर में कि, तुम अपना जान जोखिम में डाल कर चले आए, मजहर ? मज़हर ढंग से जवाब नहीं दे पाया था, चाचा ने ये भी गौर किया, कि मज़हर अपने झोले को एक पल भी नहीं छोड़ रहा था, मज़हर को अब जम्हाई आने लगी थी, हमको नींद आ रहा है, अब तनी सुत लेते हैं, बोल कर मजहर सोने का उपक्रम करने लगा, चाचा ने कह ही दिया, गजब बात है मजहर, तुम एतना भारी खतरा में हो और तुमको नींद आ रहा है...मज़हर ने बाबा की तरह इशारा करके कहा 'जब हजूर हैं तो काहे बिन मतलब चिंता करें', चाचा ने कुछ कहा नहीं, लेकिन उनके दिमाग में शक का कीड़ा कुलबुला रहा था..मज़हर को हर तरह का आश्वासन देकर बाबा, वहाँ से चले गए, मेरे चाचा अब भी आश्वस्त नहीं थे, उन्हें दाल में काला नज़र आ रहा था, बाबा के जाते ही, चाचा ने मज़हर से पूछा, तुम्हरा झोला में का है, एको मिनिट उसको नहीं छोड़ रहे हो ? इतना पूछना था कि मज़हर की आँखों में भय की परछाईं दौड़ गई, उसका चेहरा सफ़ेद हो गया और ऊपर से नीचे तक वो दोषी नज़र आने लगा, जो मज़हर अभी तक बहुत आश्वस्त और निश्चिन्त नज़र आ रहा था, इस एक साधारण से सवाल से हिला हुआ दिख रहा था, अब मेरे चाचा का शक पूरी तरह यक़ीन में बदल गया, उन्होंने मज़हर से अपना झोला देने को कहा, 'नहीं' मज़हर ने जोर से कहा और झोले को और भी कस कर पकड़ लिया..लेकिन मेरे चाचा कहाँ मानने वाले थे...
चाचा ने कुछ और लोगों को भी उसी कमरे में बुला लिया, और कह दिया, कि मज़हर के झोले की तलाशी लेनी ही होगी, खुद को इतने लोगों के बीच में फंसा देख, मज़हर जाने की जिद्द करने लगा, कहने लगा, हजूर, हम सोच रहे हैं कि हम पैदले निकल जाते हैं, पहुँचिये जायेंगे, आप लोगों को असुबिस्ता हो रहा है, हम कहीं दोसरा जगह रह लेंगे, कमरे में भरे लोगों में अब रोष बढ़ने लगा था, शक का माहौल अब और गहरा गया था, ज़रूर कोई बात है, झोला दिखाने में क्या दिक्कत हो सकती है, और झोला दिखाने कि बजाय, मज़हर चले जाने की जिद्द कर रहा है, वो भी ऐसे माहौल में, "का रे हिंयां आने से पाहिले ई बात नहीं सूझा था ? अभी तक तो तुम सोने के लिए छटपटा रहे थे, बड़का नींद आ रहा था, और झोला देखाने का नाम से, भाग रहे हो..ई झोला तो अब हमको देखना ही है..मेरे चाचा बिफर पड़े, मजहर वहां से निकलने की कोशिश करने लगा, लेकिन मज़हर का निकलना वहां से इतना आसान नहीं था अब, चाचा ने पूछा, अईसन कौन चीज़ है उसमें, कि तुमको देखाने में एतना पिरोब्लेम ही रहा है ? 'गौमांस" है मालिक, बच्चा लोग के लिए लिए थे, मज़हर बोल पड़ा, आपलोग ब्रह्मण है, कैसे छुएंगे ? चाचा को इस बात से कोई तसल्ली नहीं हुई, कहने लगे ' बाह रे मजहर बाबू, सबका जान सांसत में पड़ा हुआ है, और तुमको सिकार खाना सूझ रहा है, और ई मीट कल तक खराब नहीं हो जाएगा...? मज़हर सीधे-सीधे झोला दे दो, यहाँ रायट हो रहा है, कोनो मजाक नहीं हो रहा है, ऐसा टाइम में तुमको मीट खाने का सूझा है..हम भी तो देखें गौमांस कैसा होता है, आज तक नहीं देखें हैं..चाचा ने अपनी बात कह दी, और मजहर से झोला ले लेने का आदेश भी दे दिया, लोगों ने मज़हर से झोला छीन कर, मेरे चाचा के हाथ में दे दिया...चाचा ने ऊपर से ही झोला टटोलना शुरू कर दिया था...दो बहुत ही सख्त और गोल चीज़ें थीं उसमें, चाचा ने कहा. गौमांस एतना कड़ा होता है का मजहर ? मज़हर का चेहरा सफ़ेद से और सफ़ेद होता जा रहा था...चाचा ने हाथ डाल कर दोनों चीज़ें, निकाल ही लीं..उन चीज़ों के देखते ही सबके होश उड़ गए, चाचा के हाथ में दो जिंदा बम थे...बाहर रात गहराती जा रही थी...अंधेरों में जलती मशालें और जय घोष शुरू होने लगा था...
अब मज़हर, की जान पर बन आई थी, लोग उसे काट डालने को तैयार हो गए थे, ये ख़बर बाबा को दी गई, बाबा वहां पहुँच गए, अपने विश्वास और भरोसे की लाश उन्हें सामने दिखाई दे रही थी...कोई भी मज़हर को जिंदा छोड़ने के मूड में नहीं था, लेकिन मेरे घर में किसी का कत्ल हो जाए, वो भी मेरे बाबा के होते हुए, फिर चाहे वो कोई विश्वासघाती ही क्यूँ न हो...ऐसा हो नहीं सकता था...
बाबा ने सख्त आदेश दे दिए, कोई कुछ नहीं करेगा इसको, इससे पूछो, इसको किसने भेजा है, लोग अब मज़हर की धुनाई करने लगे, जितनी जल्दी बताओगे, किसने तुम्हें भेजा है, उतना ही कम पिटोगे तुम, मज़हर भरभरा कर सब उगलने लगा, खलील शाह ने भेजा है, जिसकी रांची पहाड़ी के नीचे बारूद का कारखाना है, हुजुर ऊ लोग को मालूम है, ई घर में रात में, जनाना लोग और बच्चा लोग सोने आता है, वही लोग हमको ई दू ठो बम दिए थे और कहे थे, जब सब, बच्चा और औरत लोग सो जाएँ तो दोनों बम चला कर भाग आना...मजहर अब उगलता जा रहा था, ऐसी निर्मम साज़िश, ऐसे कुत्सित विचार, बच्चों और महिलाओं की हत्या का प्लान...सबका खून ही खौल गया, और मज़हर को ख़तम करने को सब आमादा हो गए..लेकिन बाबा ने सबसे कह दिया, मेरे घर में ये काम बिलकुल नहीं होगा...मज़हर से कहा, सुबह-सुबह मैं तुम्हें छोड़ कर आऊंगा, हिन्दू मोहल्ले से बाहर तक, उसके बाद मेरी कोई जिम्मेवारी नहीं होगी...और एक बात है, आज के बाद तुम कभी भी हमको अपना चेहरा नहीं दिखाओगे...मज़हर को अपने जान के बच जाने की ख़ुशी ज़रूर हुई होगी लेकिन, उसकी मरी हुई आत्मा का क्या हुआ होगा..खुद अपनी नज़र में गिरा हुआ मजहर, बिना मौत ही मरा हुआ नज़र आ रहा था...
उस रात कोई नहीं सोया, वो रात, राहत की रात थी, सब यही सोचते रहे, आज हम बच गए, हमारे बच्चे हमारी औरतें बच गयीं..लेकिन कहीं तो कोई खून हुआ था, भरोसे का, यकीन का..
सुबह-सुबह, बाबा मज़हर को लेकर खेतों की तरफ निकल गए, सब मना कर रहे थे बाबा को, आपको का ज़रुरत है जाने का, ई कमीना अपने आप चला जाएगा...जाने दीजिये इसको, इसको पहुंचाने जाने का, का ज़रुरत है, मेरे चाचा बहुत खुन्नस खा रहे थे, लेकिन बाबा को ज्यादा कुछ कह भी नहीं पा रहे थे, सब मजहर को खा जाने वाली नज़र से देख रहे थे, लेकिन बाबा ने कहा हम जुबान, दे चुके हैं..इसको यहाँ से बाहर छोड़ कर आने का, इसलिए हमको जाना ही होगा...
बाबा और मज़हर, पहाड़ी की ओर बढ़ते जा रहे थे, हिन्दू मोहल्ला दूर होता जा रहा था और, मुसलमान मोहल्ला पास, मोहल्लों की सरहद पर पहुँचते ही, बाबा ने मजहर से कहा अब तुम जाओ, यकायक मजहर जोर-जोर से चिल्लाने लगा, अरे जल्दी आओ रे, काफिर आया है, अरे आओ रे, मारो रे, मज़हर को इस तरह पैंतरा बदलते देख, एक बार के लिए बाबा भी अचकचा गए, लेकिन उनको बात, बहुत जल्दी समझ में आ गई, कि धोखा देना कुछ लोगों की फितरत ही होती है, बाबा ने देखा, लोगों का जत्था, अलाह हो अकबर करता हुआ, भाले-गंडासे लिए दौड़ता चला आ रहा है...बाबा भी पलट कर पूरी रफ़्तार से, घर की तरफ भागे, हमारे घर के भी लोग देख ही रहे थे, इधर से भी मेरे चाचा अपने कुछ लोगों के साथ बाबा की तरफ दौड़ पड़े...बाबा पूरी रफ़्तार से दौड़ रहे थे, और मुसलामानों का हुजूम अपनी रफ़्तार से, अब बाबा उनकी पकड़ से बहुत दूर आ चुके थे, आतताईयों ने भी देख ही लिया था कि बाबा को बचाने, आने वालों की संख्या भी कुछ कम नहीं..वो वहीँ रुक गए और बाबा हाँफते हुए घर पहुँच ही गए..उन्होंने मजहर को, जिंदा बचा कर भी, मरते हुए देख लिया, कुछ मौतें बस हो जातीं हैं, लोग उनपर रोते नहीं हैं, क्योंकि उनको पता ही नहीं चलता, जैसे अंतरात्मा का मर जाना, या फिर लज्जा का ही मर जाना...
सबको बाबा पर बहुत गुस्सा आ रहा था, कह रहे थे लोग, आपके सिद्धांतों ने आज आपकी जान ले ली होती, कुछ ये भी कह रहे थे, ऐसा भी क्या ज़बान देना कि, जान पर बन आये, मेरे चाचा, अभी तक दांत पीस रहे थे, लेकिन मेरे बाबा घर के सारे बच्चों को बिठा का कहानी सुना रहे थे...
एक साधू-महात्मा थे, वो नदी में स्नान कर रहे थे, उन्होंने देखा एक बिच्छू, पानी में डूब रहा है, साधू ने अपने हाथों में उस बिच्छू को बहुत सावधानी से उठा लिया और उसे किनारे पहुंचाने लगे, लेकिन बिच्छू, तो बिच्छू था, उसने साधू के हाथ में डंक मार दिया...फिर......
हाँ नहीं तो..!!
हमारे मोहल्ले में, हमारा घर सबसे सुरक्षित, घर माना जाता था, इसलिए सबने मिलकर फैसला किया कि, बच्चों और महिलाओं की सुरक्षा के लिए, रात में, मोहल्ले की औरतें और बच्चे, हमारे घर में सोया करेंगे, बाकि पुरुष बारी-बारी से, घर के बाहर पहरा दिया करेंगे.. फिर क्या था, छत पर पत्थर, ईंट का जमावड़ा कर लिया गया, अगर कोई आतताई आये तो पत्थर फेंके जायेंगे..घर के चारों तरफ कई, हज़ार वाट के बल्ब लग गए और...हथियारों के लिए जितनी भी लोहे की छड़ें थीं सबको नुकीला बना कर, एक जगह इकट्टा कर लिया गया, जितनी बंदूकें मिल सकती थी, लायीं गयीं, भाला-बरछा, तलवार जो भी हथियार, जिसके पास था सब जमा कर लिए गए...
शाम को सब अपने-अपने घरों में, खाना खा लेते और हमारे घर आ जाते..औरतें बच्चे, कई कमरों में बँट जाते, कोई ज़मीन पर, तो कोई पलंग पर, जिसे जहाँ जगह मिलती सो जाता, और सारे पुरुष बारी-बारी से पहरा देते, ये सिलसिला कई दिनों तक चलता रहा...सभी सुरक्षित थे..
शहर में, कई दिनों तक १४४ लगा रहा, जीवन अस्त-व्यस्त कम, भयभीत ज्यादा रहा, दो-तीन दिनों के बाद, एक शाम, गेट खुला हमारे घर का..सबकी आशंकित नज़र उधर घूम गयी, देखा, कुली मज़हर चला आ रहा था, उसे देखते ही सबके जबड़े गुस्से से भींच गए, पूरे घर में गुस्से की एक लहर दौड़ गयी...हाथों के हथियारों की पकड़ मजबूत हो गयी..बाबा वहीँ थे, उन्होंने कड़े शब्दों में, सबको मना कर दिया, कोई कुछ नहीं करेगा...न चाहते हुए भी सभी चुप हो गए...मज़हर धीरे-धीरे चलता हुआ क़रीब आ गया, बाबा ने पूछा, का बात है मज़हर, ई समय और ऐसा माहौल में तुम यहाँ काहे आये हो ? कहने लगा 'हुजूर, सहर आये थे, काम था, लेकिन अब घर जाने के लिए कोई गाडी नहीं मिल रहा है, रात भी होने लगा है, कहाँ जाते ईसीलिये, आपके पास चले आये हैं, रात भर रुकने दीजिये, सुबह हम चल जायेंगे, अब अतिथि अगर दुश्मन भी हो तो, हमारी परंपरा को कैसे त्यागा जा सकता था, बाबा ने कह दिया, देखो, वैसे तो माहौल ठीक नहीं है, लेकिन जब हमारे घर आ ही गए हो तो, ठहर सकते हो, लेकिन सुबह चले जाना, हम ज्यादा देर तक नहीं रोक सकेंगे लोगों को, मज़हर कृज्ञता से भर उठा, उसे एक जगह दे दी गई सोने के लिए और वो अपना झोला सम्हालता, वहीँ पर पसरने को तैयार हो गया...
उसका इस तरह, अप्रत्याशित आना मेरे चाचा को बिलकुल नहीं सुहा रहा था, उन्होंने पूछ ही लिया ऐसा कौन काम आ गया शहर में कि, तुम अपना जान जोखिम में डाल कर चले आए, मजहर ? मज़हर ढंग से जवाब नहीं दे पाया था, चाचा ने ये भी गौर किया, कि मज़हर अपने झोले को एक पल भी नहीं छोड़ रहा था, मज़हर को अब जम्हाई आने लगी थी, हमको नींद आ रहा है, अब तनी सुत लेते हैं, बोल कर मजहर सोने का उपक्रम करने लगा, चाचा ने कह ही दिया, गजब बात है मजहर, तुम एतना भारी खतरा में हो और तुमको नींद आ रहा है...मज़हर ने बाबा की तरह इशारा करके कहा 'जब हजूर हैं तो काहे बिन मतलब चिंता करें', चाचा ने कुछ कहा नहीं, लेकिन उनके दिमाग में शक का कीड़ा कुलबुला रहा था..मज़हर को हर तरह का आश्वासन देकर बाबा, वहाँ से चले गए, मेरे चाचा अब भी आश्वस्त नहीं थे, उन्हें दाल में काला नज़र आ रहा था, बाबा के जाते ही, चाचा ने मज़हर से पूछा, तुम्हरा झोला में का है, एको मिनिट उसको नहीं छोड़ रहे हो ? इतना पूछना था कि मज़हर की आँखों में भय की परछाईं दौड़ गई, उसका चेहरा सफ़ेद हो गया और ऊपर से नीचे तक वो दोषी नज़र आने लगा, जो मज़हर अभी तक बहुत आश्वस्त और निश्चिन्त नज़र आ रहा था, इस एक साधारण से सवाल से हिला हुआ दिख रहा था, अब मेरे चाचा का शक पूरी तरह यक़ीन में बदल गया, उन्होंने मज़हर से अपना झोला देने को कहा, 'नहीं' मज़हर ने जोर से कहा और झोले को और भी कस कर पकड़ लिया..लेकिन मेरे चाचा कहाँ मानने वाले थे...
चाचा ने कुछ और लोगों को भी उसी कमरे में बुला लिया, और कह दिया, कि मज़हर के झोले की तलाशी लेनी ही होगी, खुद को इतने लोगों के बीच में फंसा देख, मज़हर जाने की जिद्द करने लगा, कहने लगा, हजूर, हम सोच रहे हैं कि हम पैदले निकल जाते हैं, पहुँचिये जायेंगे, आप लोगों को असुबिस्ता हो रहा है, हम कहीं दोसरा जगह रह लेंगे, कमरे में भरे लोगों में अब रोष बढ़ने लगा था, शक का माहौल अब और गहरा गया था, ज़रूर कोई बात है, झोला दिखाने में क्या दिक्कत हो सकती है, और झोला दिखाने कि बजाय, मज़हर चले जाने की जिद्द कर रहा है, वो भी ऐसे माहौल में, "का रे हिंयां आने से पाहिले ई बात नहीं सूझा था ? अभी तक तो तुम सोने के लिए छटपटा रहे थे, बड़का नींद आ रहा था, और झोला देखाने का नाम से, भाग रहे हो..ई झोला तो अब हमको देखना ही है..मेरे चाचा बिफर पड़े, मजहर वहां से निकलने की कोशिश करने लगा, लेकिन मज़हर का निकलना वहां से इतना आसान नहीं था अब, चाचा ने पूछा, अईसन कौन चीज़ है उसमें, कि तुमको देखाने में एतना पिरोब्लेम ही रहा है ? 'गौमांस" है मालिक, बच्चा लोग के लिए लिए थे, मज़हर बोल पड़ा, आपलोग ब्रह्मण है, कैसे छुएंगे ? चाचा को इस बात से कोई तसल्ली नहीं हुई, कहने लगे ' बाह रे मजहर बाबू, सबका जान सांसत में पड़ा हुआ है, और तुमको सिकार खाना सूझ रहा है, और ई मीट कल तक खराब नहीं हो जाएगा...? मज़हर सीधे-सीधे झोला दे दो, यहाँ रायट हो रहा है, कोनो मजाक नहीं हो रहा है, ऐसा टाइम में तुमको मीट खाने का सूझा है..हम भी तो देखें गौमांस कैसा होता है, आज तक नहीं देखें हैं..चाचा ने अपनी बात कह दी, और मजहर से झोला ले लेने का आदेश भी दे दिया, लोगों ने मज़हर से झोला छीन कर, मेरे चाचा के हाथ में दे दिया...चाचा ने ऊपर से ही झोला टटोलना शुरू कर दिया था...दो बहुत ही सख्त और गोल चीज़ें थीं उसमें, चाचा ने कहा. गौमांस एतना कड़ा होता है का मजहर ? मज़हर का चेहरा सफ़ेद से और सफ़ेद होता जा रहा था...चाचा ने हाथ डाल कर दोनों चीज़ें, निकाल ही लीं..उन चीज़ों के देखते ही सबके होश उड़ गए, चाचा के हाथ में दो जिंदा बम थे...बाहर रात गहराती जा रही थी...अंधेरों में जलती मशालें और जय घोष शुरू होने लगा था...
अब मज़हर, की जान पर बन आई थी, लोग उसे काट डालने को तैयार हो गए थे, ये ख़बर बाबा को दी गई, बाबा वहां पहुँच गए, अपने विश्वास और भरोसे की लाश उन्हें सामने दिखाई दे रही थी...कोई भी मज़हर को जिंदा छोड़ने के मूड में नहीं था, लेकिन मेरे घर में किसी का कत्ल हो जाए, वो भी मेरे बाबा के होते हुए, फिर चाहे वो कोई विश्वासघाती ही क्यूँ न हो...ऐसा हो नहीं सकता था...
बाबा ने सख्त आदेश दे दिए, कोई कुछ नहीं करेगा इसको, इससे पूछो, इसको किसने भेजा है, लोग अब मज़हर की धुनाई करने लगे, जितनी जल्दी बताओगे, किसने तुम्हें भेजा है, उतना ही कम पिटोगे तुम, मज़हर भरभरा कर सब उगलने लगा, खलील शाह ने भेजा है, जिसकी रांची पहाड़ी के नीचे बारूद का कारखाना है, हुजुर ऊ लोग को मालूम है, ई घर में रात में, जनाना लोग और बच्चा लोग सोने आता है, वही लोग हमको ई दू ठो बम दिए थे और कहे थे, जब सब, बच्चा और औरत लोग सो जाएँ तो दोनों बम चला कर भाग आना...मजहर अब उगलता जा रहा था, ऐसी निर्मम साज़िश, ऐसे कुत्सित विचार, बच्चों और महिलाओं की हत्या का प्लान...सबका खून ही खौल गया, और मज़हर को ख़तम करने को सब आमादा हो गए..लेकिन बाबा ने सबसे कह दिया, मेरे घर में ये काम बिलकुल नहीं होगा...मज़हर से कहा, सुबह-सुबह मैं तुम्हें छोड़ कर आऊंगा, हिन्दू मोहल्ले से बाहर तक, उसके बाद मेरी कोई जिम्मेवारी नहीं होगी...और एक बात है, आज के बाद तुम कभी भी हमको अपना चेहरा नहीं दिखाओगे...मज़हर को अपने जान के बच जाने की ख़ुशी ज़रूर हुई होगी लेकिन, उसकी मरी हुई आत्मा का क्या हुआ होगा..खुद अपनी नज़र में गिरा हुआ मजहर, बिना मौत ही मरा हुआ नज़र आ रहा था...
उस रात कोई नहीं सोया, वो रात, राहत की रात थी, सब यही सोचते रहे, आज हम बच गए, हमारे बच्चे हमारी औरतें बच गयीं..लेकिन कहीं तो कोई खून हुआ था, भरोसे का, यकीन का..
सुबह-सुबह, बाबा मज़हर को लेकर खेतों की तरफ निकल गए, सब मना कर रहे थे बाबा को, आपको का ज़रुरत है जाने का, ई कमीना अपने आप चला जाएगा...जाने दीजिये इसको, इसको पहुंचाने जाने का, का ज़रुरत है, मेरे चाचा बहुत खुन्नस खा रहे थे, लेकिन बाबा को ज्यादा कुछ कह भी नहीं पा रहे थे, सब मजहर को खा जाने वाली नज़र से देख रहे थे, लेकिन बाबा ने कहा हम जुबान, दे चुके हैं..इसको यहाँ से बाहर छोड़ कर आने का, इसलिए हमको जाना ही होगा...
बाबा और मज़हर, पहाड़ी की ओर बढ़ते जा रहे थे, हिन्दू मोहल्ला दूर होता जा रहा था और, मुसलमान मोहल्ला पास, मोहल्लों की सरहद पर पहुँचते ही, बाबा ने मजहर से कहा अब तुम जाओ, यकायक मजहर जोर-जोर से चिल्लाने लगा, अरे जल्दी आओ रे, काफिर आया है, अरे आओ रे, मारो रे, मज़हर को इस तरह पैंतरा बदलते देख, एक बार के लिए बाबा भी अचकचा गए, लेकिन उनको बात, बहुत जल्दी समझ में आ गई, कि धोखा देना कुछ लोगों की फितरत ही होती है, बाबा ने देखा, लोगों का जत्था, अलाह हो अकबर करता हुआ, भाले-गंडासे लिए दौड़ता चला आ रहा है...बाबा भी पलट कर पूरी रफ़्तार से, घर की तरफ भागे, हमारे घर के भी लोग देख ही रहे थे, इधर से भी मेरे चाचा अपने कुछ लोगों के साथ बाबा की तरफ दौड़ पड़े...बाबा पूरी रफ़्तार से दौड़ रहे थे, और मुसलामानों का हुजूम अपनी रफ़्तार से, अब बाबा उनकी पकड़ से बहुत दूर आ चुके थे, आतताईयों ने भी देख ही लिया था कि बाबा को बचाने, आने वालों की संख्या भी कुछ कम नहीं..वो वहीँ रुक गए और बाबा हाँफते हुए घर पहुँच ही गए..उन्होंने मजहर को, जिंदा बचा कर भी, मरते हुए देख लिया, कुछ मौतें बस हो जातीं हैं, लोग उनपर रोते नहीं हैं, क्योंकि उनको पता ही नहीं चलता, जैसे अंतरात्मा का मर जाना, या फिर लज्जा का ही मर जाना...
सबको बाबा पर बहुत गुस्सा आ रहा था, कह रहे थे लोग, आपके सिद्धांतों ने आज आपकी जान ले ली होती, कुछ ये भी कह रहे थे, ऐसा भी क्या ज़बान देना कि, जान पर बन आये, मेरे चाचा, अभी तक दांत पीस रहे थे, लेकिन मेरे बाबा घर के सारे बच्चों को बिठा का कहानी सुना रहे थे...
एक साधू-महात्मा थे, वो नदी में स्नान कर रहे थे, उन्होंने देखा एक बिच्छू, पानी में डूब रहा है, साधू ने अपने हाथों में उस बिच्छू को बहुत सावधानी से उठा लिया और उसे किनारे पहुंचाने लगे, लेकिन बिच्छू, तो बिच्छू था, उसने साधू के हाथ में डंक मार दिया...फिर......
हाँ नहीं तो..!!