स्मृतियों की,
अमावसी, बेजान मूर्तियाँ,
समय के प्रवाह में,
कब की,
विसर्जित हो चुकीं हैं,
फिर भी...
मेरे पीछे-पीछे,
क्यों लक्ष्यहीन सी,
ये धीरे-धीरे,
डग भरतीं हैं ?
जबकि,
उनके साथ बंधीं,
फ़ालतू सी गांठें,
शिथिल हो,
खुल चुकी हैं ।
मेरे...
सामने अब,
वृहत प्रकाश है,
दिन का उजास है,
हर्ष और उल्लास के,
कंकड़-पत्थर,
लुढ़कते-लुढ़कते,
अब गोल हो गए हैं,
और..
स्थापित हो गए,
मेरे मन-मंदिर में,
सौम्य शिव की तरह ..!!