आये
दिन सुनती रहती हूँ , मेरा धर्म बड़ा है , तुम्हारा छोटा, अल्लाह बड़ा है,
भगवान् छोटा...और सोचती हूँ क्या ईश्वर को परिभाषित करना इतना आसन है ?
क्या ईश्वर का विश्लेषण इतना सरल है ? क्या जो लोग ईश्वर या अल्लाह के बारे
में इतनी बातें बताते हैं, सचमुच इसके योग्य हैं ?
कितनी अजीब बात है..उस ईश्वर या अल्लाह की परिभाषा वो दे रहे हैं, जिन्हें ये तक नहीं पता, अगले पल क्या होने वाला है....
कितनी अजीब बात है..उस ईश्वर या अल्लाह की परिभाषा वो दे रहे हैं, जिन्हें ये तक नहीं पता, अगले पल क्या होने वाला है....
हैरानी
तब होती है जब कुछ किताबें जो कि, उनके ही जैसे किसी इन्सान ने ही लिखी
होगी...पढ़ कर लोग खुद को प्रकांड विद्वान् घोषित करके, ईश्वर को जानने का दम
भरते हैं....आश्चर्य तब होता है जब उनसे पूछो कि, क्या
आपको पता है आपकी पत्नी क्या चाहती है, या बेटा अथवा माँ-बाप क्या चाहते
हैं, तो जवाब देना उनके लिए, बहुत ही कठिन होगा...लेकिन कितनी आसानी से
यही लोग, यह बता देंगे कि, ईश्वर या अल्लाह क्या चाहता है ..और वो भी डंके की चोट पर, हर्फ़-बा-हर्फ़, ईश्वर या अल्लाह की पसंद-नापसंद बताना, इनके लिए बायें हाथ का खेल है, मीनू के साथ बताएँगे कि, ईश्वर या अल्लाह को फलां-फलां, चीज़ें पसंद हैं...और यही सही हैं...जैसे ईश्वर या अल्लाह, बस आकर अपनी पसंद, बता कर गए हों इनको...बेशक आज तक ईश्वर या अल्लाह ने, अपना मुँह खोला ही न हो ....
ईमानदारी से सोच कर बताइए, क्या सही मायने में पूरी दुनिया में, एक भी ऐसा इंसान है, जिसकी हैसियत है, ईश्वर या अल्लाह को परिभाषित करने की ??
मेरा
मानना है..बिलकुल भी नहीं है.....हरगिज नहीं है...एक भी ऐसा इन्सान
दुनिया में, हो ही नहीं सकता जो ईश्वर या अल्लाह को सही तरीके से, परिभाषित
करने की क्षमता रखता है...
जो भी परिभाषा है, वो पूरी हो ही नहीं सकती ...क्योंकि हम मनुष्य, ईश्वर की विशालता के, आप-पास भी नहीं जा सकते...कभी-कभी तो यूँ लगता है, जैसे ईश्वर ने हमें नहीं, हमने ईश्वर को बनाया है...
शायद इसीलिए, लोग अपने मन की बात, और अपना अधूरा ज्ञान बघारते ही हैं ...और यही तुच्छ
जानकारी कितना ठोक-पीट कर लोगों तक पहुँचाते हैं...और उसपर तुर्रा ये कि,
उन बातों को हर हाल में सही ठहराते हैं...और इसी चक्कर में एक दूसरे को
लड़ाते भी हैं...और हम मूर्ख लड़ते भी हैं....
इंसान
के दंभ की सीमा देख कर, अचम्भा होता है कि वो उस परम पिता परमेश्वर की
व्याख्या करने की हिम्मत करता है, जिस ईश्वर के सामने उसकी कोई हस्ती नहीं
है...
ईश्वर या अल्लाह को, एक किताब में, शब्दों में, प्रार्थना में, मंदिरों में, मस्जिदों में, गुरुद्वारे में, गिरजा में बाँध कर रखने की जहमत करने वाले, कभी खुद भी सोच कर देखें... सच्चे मन से क्या सचमुच यह संभव है...कि ईश्वर या अल्लाह की विशालता इनमें क़ैद हो सकती है ???
क्या सचमुच परम पिता परमेश्वर, इतना संकुचित है कि वो सिर्फ हिन्दुओं, को प्यार करेगा, या सिर्फ मुसलामानों को, या सिर्फ ईसाईयों को ....
मूर्खता की पराकाष्ठ शायद इसे ही कहते हैं....प्रेम करनेवाला ईश्वर है, लेकिन उसको उसकी सीमा बताने, और सीमा में, बाँधने वाला मनुष्य ...क्या बात है...!!!
ईश्वर या अल्लाह को, एक किताब में, शब्दों में, प्रार्थना में, मंदिरों में, मस्जिदों में, गुरुद्वारे में, गिरजा में बाँध कर रखने की जहमत करने वाले, कभी खुद भी सोच कर देखें... सच्चे मन से क्या सचमुच यह संभव है...कि ईश्वर या अल्लाह की विशालता इनमें क़ैद हो सकती है ???
क्या सचमुच परम पिता परमेश्वर, इतना संकुचित है कि वो सिर्फ हिन्दुओं, को प्यार करेगा, या सिर्फ मुसलामानों को, या सिर्फ ईसाईयों को ....
मूर्खता की पराकाष्ठ शायद इसे ही कहते हैं....प्रेम करनेवाला ईश्वर है, लेकिन उसको उसकी सीमा बताने, और सीमा में, बाँधने वाला मनुष्य ...क्या बात है...!!!
उसने
आज तक नहीं कहा कि, वो क्या चाहता है, लेकिन लोग बताते फिर रहे हैं कि 'वो'
क्या चाहता है ...धन्य हैं हम लोग....और धन्य है हमारी सोच ....
हम स्वयं को ईश्वर से भी बड़ा समझते हैं तभी तो ये हाल है.....
एक बार तो उसे, खुद बोलने का मौका दीजिये....कि वो क्या चाहता है
बस चुप होकर, अपनी नहीं उसकी सुनने दीजिये.....
बस चुप होकर, अपनी नहीं उसकी सुनने दीजिये.....
कोई कहेगा कि देर हो जायेगी 'मोक्ष' की प्राप्ति नहीं होगी....कौन जानता है 'मोक्ष' है भी या नहीं...और क्या है 'मोक्ष' ?
दूसरे कहेंगे कि क़यामत का दिन ही ना आ जाये....
क़यामत
का दिन अब तक तो नहीं आया ....अब जाने कब आएगा ....जब आएगा तब
देखेंगे.....वैसे भी मेरा, आपका नंबर बहुत बाद में आएगा....हमसे पहले बहुत
पापी हैं....कितने लाख वर्षों के पाप का हिसाब होगा....तब कहीं जाकर हम खड़े
होंगे, उस परम पिता के सामने .....
ब्लॉग
जगत में धर्म और ईश्वर की, दुर्गति ही दुर्गति की जाती है, क्या यह संभव
नहीं, कि ईश्वर को विराट ही रहने दिया जाए और, स्वीकार कर लिया जाए, कि हम
उसके सामने कुछ नहीं हैं, और उसके बारे में कुछ भी कहने की क्षमता नहीं
रखते हैं, सभी अपने-अपने प्रभु से अपना व्यक्तिगत रिश्ता रखें, कोई भी इस
मामले में हस्तक्षेप न करे, ठीक वैसे ही जैसे, किसकी रसोई में क्या पक
रहा है, न किसी को इससे, कोई सरोकार होना चाहिए न ही मतलब...
ज़रा
सोचिये जब हम किसी को, इस बात के लिए दबाव नहीं डालते, कि मैं जो खाता हूँ
वही बेहतर है, या फिर मैं जो पहनता हूँ, वही बेहतर है, तो फिर भगवान् के लिए
कैसे और क्यों कहना ?
सब अपने-अपने घरों में, शांति से अपनी आस्था अपना विश्वास क़ायम रखें...तो क्या ही अच्छा हो...
बस
यूँ समझ लीजिये कि ...एक पहाड़ की चोटी है, जहाँ सबको पहुँचना है ..सभी
अपनी सहूलियत से अलग-अलग रास्तों से ऊपर चढ़ रहें हैं...लेकिन पहुंचेंगे
सभी उसी चोटी पर..क्योंकि मंज़िल तो एक ही है न ...!!!
हाँ नहीं तो..!!