'देवा माय जी' 'अरे कुछो तो दे देऊ माय जी' ऐसी ही कुछ वो हाँक लगाता था वो, जब भी आता था... एक भिखारी जैसा दिखता है, वैसा ही दिखता था वो, उसके आने का वक्त करीब सुबह आठ से साढ़े आठ के बीच होता था, सबको उस वक्त अपने-अपने काम पर निकलने की जल्दी होती थी और ये हाँक !! सुनते ही, गुस्सा आ जाता था मुझे, ठीक वैसे ही जैसे, छप्पन भोग में कंकड़, हालांकि माँ पहले ही उसके लिए खाना निकाल कर रख देती थी, लेकिन उसे गेट तक ले जाने की जिम्मेवारी मेरी होती थी, कोलेज जाने की जल्दी रहती थी, और ऊपर से ये काम !! मैं कहती थी उससे 'जल्दी क्यों नहीं आते, साढ़े सात बजे आ जाया करो', तो बड़े आराम से कहता मुझसे, 'ऊ समय तक नास्ता थोड़े न बना होगा आपके घर में'...सुन कर चिढ गयी में, 'अच्छा तो तुम नास्ता करने आते हो, ई कोई होटल है का ?' मैं भी जो भी मुंह में आया, बोल देती थी उससे...लगभग हर सुबह मेरी बकझक हो ही जाती थी...वो भी कम नहीं था, उलझता रहता था मुझसे...जब मैं कहती 'कल से हम नहीं देने वाले तुमको कुछो, चिल्लाते रहना'...बड़ी ढिठाई से कहता, 'हाँ ऊ तो हम चिल्लाईबे करेंगे'...और कभी जो मुझे देर हो जाए उसे खाना देने में...जोर-जोर से पुकारता ...'कहाँ गयी मईयाँ (झारखण्ड में मईयाँ बच्चियों को या बेटियों को कहा जाता है), अरे कान है कि नाई, सुनाई देवथे कि नाई', मैं खीझती हुई, दे ही आती थी, उसे खाना...कभी कभी तो जान बूझ कर मैं देर कर देती...उसका ये कहना, कान है कि नाई, सुनाई देवथे कि नाई'...सुनने में मज़ा आ जाता था, ये सब वो बहुत ज़ोर देकर कहता, मानो मुझे मेरी कमियाँ गिना रहा हो, जब मैं खाना देने जाऊं तो, कहता था, 'हमको बिना चिल्ल्वाये , कभी खाना नहीं देती हो मईयाँ तुम'...और मैं अपनी जीत पर मुस्कुरा देती, हम दोनों में एक रिश्ता बन ही गया था 'खीझ का रिश्ता'...
पता नहीं क्या नाम था उसका, उम्र क्या थी उसकी, कहाँ से आता था, कुछ भी नहीं मालूम..लेकिन इतना ज़रूर मालूम है, जितनी भी उसकी उम्र थी, दिखता वो बुढ़ा ही था, उसका हर दिन किसी मुसीबत की तरह आना, और चिल्लाना...कहीं अन्दर से मुझे भी, उसका इंतज़ार रहता ही था...जिस दिन वो नहीं आता, ऐसा लगता आज कहीं कुछ छूट गया है...
इधर दो-तीन दिन से वो नहीं आया था, मुझे फ़िक्र होने लगी थी, कहीं वो बीमार तो नहीं, कहीं कुछ हो तो नहीं गया उसे, वैसे भी वो हाड-मांस का मात्र ढांचा ही था, कुछ हो भी जाता तो आश्चर्य नहीं होता मुझे, फिर भी, मन में कहीं एक विनती सिर उठाती रही, वो ठीक रहे, हर दिन उसके लिए खाना रखा जाता, वो नहीं आता, और खाना गाय या कुत्ते को देना पड़ता मुझे, तब भी एक बार गुस्सा आ ही जाता था , अगर ये खाना वो खा लेता, तो कुछ तो जाता उसके पेट में....अभागा कहीं का...!
फिर, चौथे दिन वो आ ही गया, उसकी हाँक सुनाई पड़ ही गयी, मन कहीं से आश्वस्त हो गया, चलो जिंदा है ये, लेकिन उसके सामने जाते और उसे देखते ही मुझे फिर गुस्सा आ गया, कहाँ थे तुम इतने दिन ? मुझे गुस्से में देख कर, पहली बार वो मुस्कुराया था, शायद मेरी बातों ने उसे, उसके होने का अहसास दिलाया था, उसे भी लगा होगा, कि 'वो भी है'...लेकिन आज वो अकेले नहीं आया था, उसके साथ एक नौजवान लड़का आया था, मैंने पूछा कौन है ई ? कहने लगा 'मईयाँ ई हमरा दामाद है, हम अपना बेटी का सादी कर दिए हैं, इसीलिए तो नहीं आने सके तीन दिन, अब हम ई तरफ नहीं आयेंगे, ई मेरा दामाद है' एक बार फिर उसने मेरा परिचय कराया, उसकी आवाज़ में गर्व, ख़ुशी और न जाने क्या-क्या था... 'इसको बता दिए हैं, ई वाला घर में ज़रूर आना है, घर भी देखाने लाये थे इसको, और मईयाँ, तुमसे मिलाने भी लाये थे' आज वो मुझे खीझा हुआ नज़र नहीं आ रहा था, गहरा आत्मसंतोष था उसके चेहरे पर, ये सब कहते हुए, उसकी झुकी हुई गर्दन, सीधी हो गयी थी, शायद यह उसके जीवन की वो सफलता थी, जिससे उसके आत्मसम्मान को थोड़ी टेक मिली थी, चेहरे पर पड़ी चिंताओं की गहराईयाँ, आज कुछ सपाट हो गयीं थीं, मुझे भी उसका ये बदला रूप अच्छा लगा, लेकिन उसका अब नहीं आना, और किसी और का आना, एकदम से अटपटा लगने लगा मुझे, शायद 'खीझ का रिश्ता' मैं टूटने नहीं देना चाहती थी, 'अरे तुम काहे नहीं आओगे, और ई काहे आएगा, ई तो अच्छा-खासा जवान लड़का है, कोई काम काहे नहीं करता है ई, इसको भीख मांगने का, का ज़रुरत है भला ? वो बड़े फिलोसोफिकल अंदाज़ में कहने लगा 'भीख मांगना भी तो काम है मईयाँ, का इसमें मेहनत नहीं लगता है ? बहुत मेहनत होता है मईयाँ..दूरा-दूरा जाओ, चिल्लाओ, फेफड़ा में केतना जोर पड़ता है, हमको चिल्ला-चिल्ला के टी.बी. का बेमारी हो गया'...हम उ सब कुछ नहीं जानते हैं, तुम आओगे तो ठीक है, इसको हम कुछ नहीं देने वाले हैं, कहते हुए मैं पलट कर आने लगी...ऐ मईयाँ, ऐसा मत बोलो, अब से इसको भीख दे देना, हम हाथ जोड़ते हैं, नहीं तो हमरी बेटी को तपलिक हो जाएगा, हम ईहाँ अब नहीं आने सकेंगे मईयाँ, हम ई पूरा इलाका दहेज़ में दे दिए हैं, अपना बेटी को, अब हम दोसरा जगह खोजेंगे, भीख मांगने के लिए...बोलते बोलते उसकी आवाज़ भर्रा गई...और गर्दन वापिस अपनी जगह झुक गई...
हाँ नहीं तो..!!