Wednesday, April 4, 2012

नज़र रखें...


अभी पिछले हफ्ते की ही बात है..मेरे बच्चों की दोस्त लीज़ा घर आई थी...खाने पर बुलाया था उसे, इसलिए वो सीधी अपने काम से ही आ गयी थी...लीज़ा एक मेडिकल सेंटर में, अपना co-op  प्रोग्राम कर रही है, उस दिन लीज़ा मुझे बहुत परेशान लग रही थी...उसका सुन्दर चेहरा कुम्हलाया हुआ लग रहा था...वैसे लीज़ा बहुत ही खुश मिजाज़ लड़की है, उसके आते ही घर में रौनक आ जाती है, लेकिन उस दिन वो खामोश थी...मैंने पूछ ही लिया क्या बात है...मेरा इतना पूछना था कि लीज़ा फूट-फूट कर रो पड़ी...

उसने जो बताया वो इस तरह है ...आज उसके मेडिकल सेंटर में एक १३ साल की साउदी बच्ची के बलात्कार का केस आया था, बच्ची बहुत डरी हुई और तकलीफ में थी, उस नाजुक सी बच्ची की हालत देख कर, लीज़ा सकते में आ गयी थी, सारे डॉक्टर्स पूरी सहानुभूति के साथ, उस मासूम की चिकित्सा में लगे हुए थे, पुलिस भी उसके साथ बहुत हमदर्दी से पेश आ रही थी, बच्ची अपनी शारीरिक, मानसिक तकलीफ को झेलते हुए, सबकी बातों का भी जवाब देती जा रही थी....मेडिकल सेंटर के स्टाफ उसे हर तरह का आराम देने की कोशिश में लगे हुए थे..पूरे मेडिकल सेंटर में एक सनसनी, और दुःख का माहौल हो गया था ... 

लेकिन उस बच्ची के माँ-बाप, जो उस वक्त वहीँ थे...अपनी ही बच्ची पर अपना गुस्सा उतार रहे थे, इस हादसे का पूरा दोष, वो अपनी बच्ची को ही दे रहे थे....घायल बच्चे के प्रति, जो भी स्नेह, ममता, सहानुभूति होनी चाहिए, ऐसा कुछ भी न उनके चेहरे पर था न ही उनके व्यवहार में था....उनकी बातों से वो बच्ची और आहत होती जा रही थी, मात्र १३ साल की बच्ची पर, इस तरह गुस्सा उतारना और उसे ही कसूरवार ठहराना, लीज़ा को समझ में नहीं आ रहा था, और यही बात उसे खाए जा रही थी...उसने कहा 'She is a kid, only 13 years old. How come her parents blame her for this mishap.' 

लीज़ा की बात बिलकुल सही है...इस तरह के हादसों के लिए हमेशा, लड़कियों को ही दोष दिया जाता है...चाहे उसकी उम्र जो भी हो...उस बच्ची का पिता यह भूल रहा था...कि ऐसी घिनौनी हरक़त करने वाला, उसी का दोस्त था, जो उसकी दोस्ती की वज़ह से उसके घर आया करता था, क्या यह उसका फ़र्ज़ नहीं था कि वो, दोस्ती सही लोगों के साथ रखता, क्या वो नहीं समझ पाया था कि, उसके दोस्त की नियत कैसी है ? क्या उसे अपने परिवार की सुरक्षा का जिम्मा नहीं लेना चाहिए था ?? 

उस हैवान को सबक सिखाने के लिए, पुलिस का साथ देने के बजाय, उस बच्ची की माँ अपनी क़िस्मत और उस बच्ची को ही कोसती रही, उसने एक बार भी अपनी बच्ची से प्यार से बात नहीं की...ऐसे समय में जब उनकी बच्ची को उसकी सहानुभूति, उसके प्रेम की आवश्यकता है..माँ-बाप दोनों ही अपनी बेवकूफियों और नाकामियों का सारा बोझ उस मासूम पर डाल रहे थे..

मैं पूछती हूँ, क्या माँ-बाप का फ़र्ज़ नहीं बनता, कि वो सोच-समझ कर दोस्ती करें, क्या उनका फ़र्ज़ नहीं बनता कि घर में, किसे आने-जाने का प्रश्रय मिले, इसके बारे में सही फैसला करें ???

आप भी, अपने बच्चों पर तो नज़र रखें ही, उनपर भी नज़र रखें जो आपके घर आते-जाते हैं...फिर चाहे वो आपके कितने ही अभिन्न-मित्र क्यों न हों...आपने अगर अपने घर में, किसी काम से किसी मजदूर को भी बुलाया हो, तो उसपर भी आपकी पूरी नज़र होनी चाहिए...आप नहीं जानते किसकी नियत कैसी है, और कब वो आपको डंस ले... ख़ास करके अगर घर में कोई बच्ची है तो, यह और भी ज़रूरी हो जाता है...जैसे ही आप किसी को अपने घर के अन्दर आने देते हैं...आपका घर अनजाना नहीं रह जाता...और घात लगाने वाले तो इसी मौके की तलाश में रहते हैं...जहाँ तक हो सके, घर के अन्दर तक, उसे ही लाइए, जिसकी नियत और चरित्र पर आपको, अपने आप से ज्यादा विश्वास हो...!!

हाँ नहीं तो..!!