Sunday, July 19, 2009

मेरे ज़ख्मों से मुझको सजाया है...

आज फिर मुझे उसने रुलाया है
रूठी हूँ मैं वो मनाने आया है

ज़ख्म पर सूखी पपड़ी जो पड़ी थी
नाखून से कुरेद कर उसने हटाया है

क़तरन-ऐ-पैबंद के कई टुकड़े
साथ अपने वो लेकर आया है

मरहम धरने की साजिश रचा
एक घाव और उसने लगाया है

महबूब नहीं खौफ़-ऐ-रक़ीब हूँ मैं
मेरे ज़ख्मों से मुझको सजाया है

25 comments:

  1. एक बार फिर लाजवाब लाइनें शाया की हैं आपने आपा। इतनी गहराई कहां से आयी आप में। मैं तो स्तब्ध हूं कि कैसे इतना अच्छा लिख पाऊंगा मैं....

    ReplyDelete
  2. आज फिर उसने मुझे रुलाया है
    रूठी हूँ मैं वो मनाने आया है
    ====
    चलो मनाने तो आया.
    बहुत खूब लिखा है
    मार्मिक भी

    ReplyDelete
  3. बहुत सुन्दर रचना है । आपकी संगीत भी अच्छी लगी । सुर तो लाजबाब । मैं भी वायलिन बजाता हँू । आपके शब्दों के लिए को शब्द नहीं ढूँढ़ पा रहा हूँ ।

    ReplyDelete
  4. नदीम,
    खुश रहो,
    तुम्हें सब अच्छी लगतीं हैं क्योंकि तुम मेरे भाई हो ..
    अगर तुम्हें अच्छी न लगे तो पिट नहीं जाओगे :):):)
    मैं तो बस लिख देती... लिख कर सोचती नहीं हूँ ...बस छाप देती हूँ.. बस
    शनिवार और रविवार लिखने में ही बीतता है...

    ReplyDelete
  5. अभी अभी मेरे कानो में,किसी ने बताया है,
    उन्होंने आज अपने अंदाज में ,फिर से कुछ फ़रमाया है

    जख्म में कलम डुबोई, कागज़ पर उसे चलाया है,
    क्या कहें इससे ज्यादा, हर अंदाज हमें तो भाया है.

    ReplyDelete
  6. बहुत खूब लिखा है,,,सुन्दर रचना.

    ReplyDelete
  7. बहुत खूब लिखा है,,,सुन्दर रचना.

    ReplyDelete
  8. ji namaskar bahot dino bad blog pe ane ko time mila, ate hee aap ki rachna padhne ko mili, aapki rachna ne ek phir dil ko chu liya, bahut hee sunder rachna.

    ReplyDelete
  9. सुन्दर रचना !

    ReplyDelete
  10. aaj to aapne kamaal hi kar diya..........zakhmon se saji ik ibarat likh di dard ki syahi se .............nishabd ho gayi hun.

    ReplyDelete
  11. महबूब नहीं अक्स-ऐ-अयाँ हूँ मैं
    मेरे ज़ख्मों से मुझको सजाया है

    Jabardast hai ji..

    ReplyDelete
  12. dard hi aksar dikhta hai rachnao me apki....dard ka aaina acha byaan karti hai aksh ko

    ReplyDelete
  13. This comment has been removed by the author.

    ReplyDelete
  14. महबूब नहीं अक्स-ऐ-अयाँ हूँ मैं
    मेरे ज़ख्मों से मुझको सजाया है

    waah lajawab

    ReplyDelete
  15. ye joging karte huye uncle kuchh bol nahi paa rahe hain,kyaa huaa hai inhein?

    ReplyDelete
  16. आपका लिखा हुआ हमेशा अच्छा लगता है

    ReplyDelete
  17. इस बेहतरीन और लाजवाब रचना के लिए बधाई!

    ReplyDelete
  18. मरहम धरने की साजिश रचा
    एक और घाव उसने लगाया है


    --बेहतरीन लाजबाब रचना!! जय हो!!

    ReplyDelete
  19. मरहम धरने की साजिश रचा
    एक और घाव उसने लगाया है

    यूँ तो हस शेर काबिले तारीफ है ......... पूरी ग़ज़ल लाजवाब है पर ये बहूत पसंद आया .....कमाल का लिखा है

    ReplyDelete
  20. मरहम धरने की साजिश रचा
    एक घाव और उसने लगाया है

    वाह!

    गर कुछ कहूं तो बस इतना के:

    "ना रख मरहम,मेरे ज़ख्मों पे यूं बेदर्दी से,
    तमाम इन में मेरे शौक की निशानी है।"

    ReplyDelete
  21. आज फिर मुझे उसने रुलाया है
    रूठी हूँ मैं वो मनाने आया है

    ज़ख्म पर सूखी पपड़ी जो पड़ी थी
    नाखून से कुरेद कर उसने हटाया है

    क़तरन-ऐ-पैबंद के कई टुकड़े
    साथ अपने वो लेकर आया है

    मरहम धरने की साजिश रचा
    एक घाव और उसने लगाया है

    महबूब नहीं खौफ़-ऐ-रक़ीब हूँ मैं
    मेरे ज़ख्मों से मुझको सजाया है

    main to kayal ho gayi ,har shabdo me gum ho gayi .bahut khoob .

    ReplyDelete