Saturday, November 13, 2010

व्यवस्था के मोहरे ...


व्यवस्था के मोहरे
व्यवस्था की आड़ में
व्यवस्था के सहारे  
नित नई अव्यवस्थित चाल
चल रहे हैं
और भेंट चढ़ जाते  हैं
कितने ही व्यवस्थित
जीवन,
समझ कहाँ पाते
इस व्यवस्था को
जो सिर्फ झूठ के
फर्श पर खड़ी  है
न जाने कितने छेद लिए हुए 
वो भी बिना पैरों के
समझने से पहले ही

ये पथरीले हो जाते हैं,
और तब तुम सिर्फ
अपना सिर ही पटक सकते हो......

9 comments:

  1. बहुत ही भावुक और यथार्थ प्रस्तुती...इन पापियों का इंसाफ अब वक्त ही करेगा ....

    ReplyDelete
  2. अव्यवस्था को कभी अव्यवस्थित होते हुए भी नहीं देखा.

    ReplyDelete
  3. shi khaa vyvsthaaon ke naam pr vyvsthaapk khuli lut kula bhrstachar fela rhe hen in bagd billon ko pkdvana zruri he . akhtar khan akela kota rajsthan

    ReplyDelete
  4. सच है ...अब व्यवस्था से ज्यादा अव्यवस्थित क्या है भला

    ReplyDelete
  5. समझ कहाँ पाते
    इस व्यवस्था को
    जो सिर्फ झूठ के
    फर्श पर खड़ी है
    न जाने कितने छेद लिए हुए


    अदा जी,
    शब्दों ने दृढ़ता से व्यवस्था को झिंझोड़ने का प्रयास किया है...साधुवाद!

    ReplyDelete
  6. अव्यवस्था हुई तो ही व्यवस्था के द्वार खुलेंगे और छेद भी :)

    ReplyDelete
  7. उसका यूं खडा होना सत्य को घुटने पर बैठा देने सा है !

    ReplyDelete