व्यवस्था के मोहरे
व्यवस्था की आड़ में व्यवस्था के सहारे
नित नई अव्यवस्थित चाल
चल रहे हैं
और भेंट चढ़ जाते हैं
कितने ही व्यवस्थित
जीवन,
समझ कहाँ पाते
इस व्यवस्था को
जो सिर्फ झूठ के
फर्श पर खड़ी है
न जाने कितने छेद लिए हुए
वो भी बिना पैरों के
समझने से पहले ही
ये पथरीले हो जाते हैं,
और तब तुम सिर्फ
अपना सिर ही पटक सकते हो......
बहुत ही भावुक और यथार्थ प्रस्तुती...इन पापियों का इंसाफ अब वक्त ही करेगा ....
ReplyDeleteअव्यवस्था को कभी अव्यवस्थित होते हुए भी नहीं देखा.
ReplyDeleteshi khaa vyvsthaaon ke naam pr vyvsthaapk khuli lut kula bhrstachar fela rhe hen in bagd billon ko pkdvana zruri he . akhtar khan akela kota rajsthan
ReplyDeleteसच है ...अब व्यवस्था से ज्यादा अव्यवस्थित क्या है भला
ReplyDeleteपाथर वत।
ReplyDeleteverry good poem
ReplyDeleteसमझ कहाँ पाते
ReplyDeleteइस व्यवस्था को
जो सिर्फ झूठ के
फर्श पर खड़ी है
न जाने कितने छेद लिए हुए
अदा जी,
शब्दों ने दृढ़ता से व्यवस्था को झिंझोड़ने का प्रयास किया है...साधुवाद!
अव्यवस्था हुई तो ही व्यवस्था के द्वार खुलेंगे और छेद भी :)
ReplyDeleteउसका यूं खडा होना सत्य को घुटने पर बैठा देने सा है !
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