अँधेरे में मेरी खुशियाँ
दोहरी हुई बैठी थीं,
चिर अविदित सी,
जाने कहाँ से
तुम चले आए,
प्रज्ञं, ज्ञानी, धीमान की तरह,
यति बन कर
अनुसन्धान करते रहे तुम,
मेरा स्वर्ग
मेरे हाथों में देकरतुमने त्याग-पत्र दे दिया है,
मैंने भी तब से ख़ुश रहने का
व्रत ले लिया है.....!!
और अब, एक गीत..मेरी पसंद का....
यहाँ मैं अजनबी हूँ.....
अदाजी
ReplyDeleteनमस्कार !
बहुत प्रभावशाली रचना है …
" जाने कहाँ से तुम चले आए "
मेरा स्वर्ग मेरे हाथों में देकर
तुमने त्याग-पत्र दे दिया है
मैंने भी तब से ख़ुश रहने का
व्रत ले लिया है.....!!
सचमुच , अत्यंत संवेदनशील !
शस्वरं पर आप भी आइए न , बहुत दिन हो गए … आपका हार्दिक स्वागत है !
- राजेन्द्र स्वर्णकार
शस्वरं
प्रज्ञं, ज्ञानी, धीमान की तरह,
ReplyDeleteयति बन कर
अनुसन्धान करते रहे तुम
khubsurat ... bahut khubsurat
दिन अचम्भे लेकर आते हैं
ReplyDeleteउड़ते फिरते ख्वाब भले कभी शक्ल में ढलें या न ढले
आपके यहाँ कुछ शब्द जरूर ख्वाबों को पकड़ कर उनकी सूरतें बना दिया करते हैं.
मेरा स्वर्ग
मेरे हाथों में देकर
तुमने त्याग-पत्र दे दिया है,
मैंने भी तब से ख़ुश रहने का
व्रत ले लिया है.....!!
और बात यहीं से शुरू होती है, लगता है मुझे कई बार कि फसानों के अंत जैसे पूरे किस्से के बारे में उलट कर पूछ रहे हों कि अब क्या कहोगे तुम ?
पढ़ कर कैसा फील कर रहा हूँ ? नो आईडिया
मैं अजनबी
ReplyDeleteअविदित सी
तुम प्रज्ञ,ज्ञानी
मेरा स्वर्ग मेरे हाथों में देकर
तुम त्याग पत्र देकर
दूर चले गए
........
........
मैने भी खुश रहने का
व्रत ले लिया
यह अजनबीपन भी अच्छा लगा ...जो खुश रहने का हेतु बना ।
ओह..
ReplyDeleteअंतिम पंक्तियाँ पढ़कर स्तब्ध रह गए अदा जी...
मैंने भी तब से खुश रहने का व्रत ले लिया...
मन को छूती हुई रचना...
अच्छी कविता
ReplyDeleteरफ़ी साहब का गीत सुनाने के लिए
आभार
अहा! आनन्दम!! आनन्दम!!
ReplyDeleteमेरा स्वर्ग मेरे हाथों में देकर
ReplyDeleteतुमने त्याग-पत्र दे दिया है
मैंने भी तब से ख़ुश रहने का
व्रत ले लिया है.....!!
सचमुच बहुत सुन्दर ...!
ज्ञान के घेरे में प्रेम की अकुलाहट बढ़ जाती है।
ReplyDeleteचलो इक बार फिर से अजनबी बन जाएं हम दोनों,
ReplyDeleteतारूफ़ रोग हो जाए तो उसको भूलना बेहतर,
ताल्लुक बोझ बन जाए तो उसको तोड़ना अच्छा,
वो अफ़साना जिसे अंजाम तक लाना ना हो मुमकिन,
उसे एक खूबसूरत मोड़ देकर छोड़ना अच्छा,
चलो इक बार फिर से...
जय हिंद...
उत्तम विचार लिए हुए रचना।
ReplyDeleteखुशी का यह व्रत..आनन्द की वर्षा करता रहे!
ReplyDeleteबहुत अच्छी प्रस्तुति।
ReplyDeletebahut dino ke baad yaha aana huaa....
ReplyDeleteaate hi amritpaan ......
kunwar ji,
प्रज्ञं, ज्ञानी, धीमान की तरह,
ReplyDeleteयति बन कर
अनुसन्धान करते रहे तुम
मन के विरोधाभास विचारों को खूबसूरती से सहेजा है...
Gaurav ne kaha:
ReplyDeleteदीदी,
बहुत ही सुन्दर रचना है
[सुबह ठीक से पढ़ नहीं पाया था इसलिए अब जवाब दे रहा हूँ ]
आपकी रचना पढ़ कर मन ठहर जाता है
इसे शेयर करने के लिए आपका आभार
आपका ब्लॉग सचमुच नए ब्लोगर्स के लिए प्रेरणा है
शुभकामनाएं
हमेशा की तरह आपकी कलम से एक और खूबसूरत रचना निकली। आखिरी चार पंक्तियों ने मूड बदल कर रख दिया। ’लाल पत्थर’ का गाना याद आ गया -
ReplyDeleteगीत गाता हूँ मैं, गुनगुनाता हूँ मैं।
और शिकारे वाले का गीत भी टू मच है जी।
सदैव आभारी।