अर्चना जी ने बहुत सुंदर कमेन्ट किया है. प्रतिदिन और प्रत्येक पोस्ट देखता हूँ मगर हाल कुछ ऐसा है कि "हर रोज इरादे बांधता हूँ हर हाल मैं उनसे कह दूंगा कमबख्त जुबां खुलती ही नहीं जब सामने क़ातिल आ जाये"
रहने को घर नहीं, सोने को बिस्तर नहीं, अपना खुदा है रखवाला, अब तक उसी ने है पाला...
अपनी तो ज़िंदगी कटती है फुटपाथ पे, ऊंचे ऊंचे ये महल अपने हैं किस काम के, हमको तो मां बाप के जैसी लगती है सड़क, कोई भी अपना नहीं, रिश्ते हैं बस नाम के, अपने जो साथ है, ये अंधेरी रात है... अपना नहीं है उजाला, अब तक उसी ने है पाला,
रहने को घर नहीं, सोने को बिस्तर नहीं, अपना खुदा है रखवाला, अब तक उसी ने है पाला...
अपनी तो ज़िंदगी कटती है फुटपाथ पे, ऊंचे ऊंचे ये महल अपने हैं किस काम के, हमको तो मां बाप के जैसी लगती है सड़क, कोई भी अपना नहीं, रिश्ते हैं बस नाम के, अपने जो साथ है, ये अंधेरी रात है... अपना नहीं है उजाला, अब तक उसी ने है पाला,
और ये !! फुटपाथ के पत्थर से लिपट धूल-गरदे में लिथड़ केंहुनी को गाव बना ठाठ से सोते रहे samajik asamanta ko bahut sundarta se darsha gayi aap ,kahi malai to kahi bheekh bhi haath nahi aai .
बिस्तर-नींद का बंटवारा
ReplyDeleteखेल रब्ब का है न्यारा
अच्छी प्रतीकात्मक रचना के लिए बधाई !
- राजेन्द्र स्वर्णकार
शस्वरं
कही "ये" से "वो" बन कर नींद ढो रहे हैं .....
ReplyDeleteतो कहीं "वो" बनने के बाद अपना "ये" खो रहे हैं
अर्चना जी ने बहुत सुंदर कमेन्ट किया है.
ReplyDeleteप्रतिदिन और प्रत्येक पोस्ट देखता हूँ मगर हाल कुछ ऐसा है कि
"हर रोज इरादे बांधता हूँ हर हाल मैं उनसे कह दूंगा
कमबख्त जुबां खुलती ही नहीं जब सामने क़ातिल आ जाये"
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ReplyDeletesatya ka sahaj chitran
ReplyDeletesundar rachana.............bhavnaatmak kavita .......likhte rahiye
ReplyDeleteचित्र गा रहे हैं, कविता उन्हे चित्रित कर रही है। वाह।
ReplyDeleteरहने को घर नहीं, सोने को बिस्तर नहीं,
ReplyDeleteअपना खुदा है रखवाला,
अब तक उसी ने है पाला...
अपनी तो ज़िंदगी कटती है फुटपाथ पे,
ऊंचे ऊंचे ये महल अपने हैं किस काम के,
हमको तो मां बाप के जैसी लगती है सड़क,
कोई भी अपना नहीं, रिश्ते हैं बस नाम के,
अपने जो साथ है, ये अंधेरी रात है...
अपना नहीं है उजाला,
अब तक उसी ने है पाला,
रहने को घर नहीं...
जय हिंद...
रहने को घर नहीं, सोने को बिस्तर नहीं,
ReplyDeleteअपना खुदा है रखवाला,
अब तक उसी ने है पाला...
अपनी तो ज़िंदगी कटती है फुटपाथ पे,
ऊंचे ऊंचे ये महल अपने हैं किस काम के,
हमको तो मां बाप के जैसी लगती है सड़क,
कोई भी अपना नहीं, रिश्ते हैं बस नाम के,
अपने जो साथ है, ये अंधेरी रात है...
अपना नहीं है उजाला,
अब तक उसी ने है पाला,
रहने को घर नहीं...
जय हिंद...
नींद तो परिश्रम की दासी है, जिसने भी उसे श्रम के पसीने अर्पण किये वो उसके पास चली आयी। बढिया चित्रात्मक तुलना।
ReplyDeletemehnat kash logo ki nind aisee hi hoti hai........bekhabr...:)
ReplyDeleteachchhi rachna!
Bahut hi badiya concept!!
ReplyDeleteI just loved it... Plus it is so real...
It is touchy and I'm sure people will like it!
Regards,
Dimple
तस्वीर और शब्द एक दूसरे में इस कदर गुंथे हुए हैं कि जैसे नज़्म रूह हो और तस्वीरें जिस्म...! सुन्दर रचना के लिए आभार
ReplyDeleteनींद का ताल्लुक बिस्तर से नहीं मन से है .सत्य चित्रण.
ReplyDeleteनिश्छल व्यक्ति श्रम से थक हार कर कही भी सो सकता है ...जबकि कोई रेशमी चद्दर में लिपटे भी करवटे बदलता है ...
ReplyDeleteमुझे ही आजकल इतनी नींद आने लगी है ..जल्दी उठकर पोस्ट पढना , कमेन्ट करना सब बंद ...:):)
god bless you............
ReplyDelete.........................
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गरीबी और अमीरी की नींद का फर्क रचना के माध्यम से प्रस्तुत किया है...बढ़िया रचना भाव . फोटो भी तुलना की द्रष्टि से बढ़िया लगी...
ReplyDeleteऔर ये !!
ReplyDeleteफुटपाथ के पत्थर से लिपट
धूल-गरदे में लिथड़
केंहुनी को गाव बना
ठाठ से सोते रहे
samajik asamanta ko bahut sundarta se darsha gayi aap ,kahi malai to kahi bheekh bhi haath nahi aai .
सो जाते हैं फ़ुटपाथ पे अख़बार बिछा कर,
ReplyDeleteमज़दूर कभी नींद की गोली नहीं खाते।
सो जाते हैं फ़ुटपाथ पे अख़बार बिछा कर,
ReplyDeleteमज़दूर कभी नींद की गोली नहीं खाते।