पिछले हफ्ते ही मेरी सहेली भारत से कनाडा आई, रात उसका फ़ोन आया वेंकुवर से ..मैं हैरान थी कि मुझे बताया तक नहीं कि वो आने वाली हैं....कहने लगी पिछली बार तुम्हें बहुत परेशान किया था इसलिए नहीं बताया....सोचा अब वहाँ पहुंच कर ही फ़ोन करुँगी...उनसे बात करने के बाद पिछली बार का सारा मंजर आँखों के सामने घूमने लगा...
आजसे दो साल पहले जब मैं भारत गई थी तो वापसी में मेरी सहेली ...जिन्हें मैं दीदी कहती हूँ..ने भी कनाडा घूमने की इच्छा जताई ...वैसे उनका बेटा रहता है वेंकुवर में...लेकिन वो मेरे पास ही रहना चाहती थी...मैंने भी कहा इससे अच्छी और क्या बात हो सकती है...उनको लेकर में ओट्टावा चली आई...लेकिन बेटा कहाँ मानने वाला था, उसने कहा आप तो बस मम्मी को मेरे पास भेज दो...मुझे भी ये उचित ही लगा माँ इतनी दूर आए और बेटे से न मिले, बात जमती नहीं थी....मैंने भी उनको भेज दिया वेंकुवर...दूसरे दिन ही फ़ोन आ गया कि सपना मुझे यहाँ से ले जाओ ,मैं नहीं रहूँगी यहाँ...मैं बहुत अचंभित थी..आख़िर क्या बात है ! बेटे के पास दीदी क्यों नहीं रहना चाहती है...जाहिर है उनका फूट-फूट कर रोना मुझे परेशान कर रहा था...मैंने फ्लाईट ली और पहुंच गई दीदी को लेने...उनको लेकर वापिस ओट्टावा आ गई...
मेरे घर आने के बाद उन्हें थोड़ी तसल्ली तो हुई ,लेकिन उनका मन नहीं लग रहा था...वो भीड़-भाड़, वो रौनक वो शोर....यहाँ कहाँ ...वो सब कुछ बहुत मिस कर रहीं थीं ...हम उनको ख़ुश रखने की जी तोड़ कोशिश करते रहे....ख़ैर जैसे-तैसे उन्होंने दो महीने काटे और यहाँ से चली गईं...
उनके दिल्ली पहुँचने के बाद भी उनसे बातें होती ही रहीं .... और उन्होंने स्वीकार करना शुरू किया कि उन्हें थोड़े और दिन रहना चाहिए था...
कल उनके फ़ोन के आने से वो सब कुछ एक बार फिर याद आ गया ...हैरानी इस बात कि थी कि अब वो यहाँ आकर बहुत ख़ुश थी...उनमें इस बदलाव ने मुझे कुछ सोचने को मजबूर कर दिया....और एक पोस्ट का सामान मिल गया...
कनाडा में लोग हिन्दुस्तान से आते ही रहते हैं...जो भी भारत से पहली बार आता है कनाडा या अमेरिका..एक बात सब में common है 'Inferiority Complex ' , आप मुझे ग़लत मत समझिएगा....मेरे साथ भी यही हुआ था...जैसे ही हम विदेश की धरती पर पाँव रखते हैं..जाने क्या है ..एक चुभन, एक चिढन सी होती है..मन यह मानने को तैयार नहीं होता की यह देश हमारे देश से बेहतर है...बहुत से मामलों में...यहाँ की हर चीज़ को ज़बरदस्ती नीचा दिखाने की कोशिश शुरू हो जाती है...
अक्सर सुनती हूँ... जो भी नया आया होता है यहाँ कनाडा में....कहता हुआ मिलेगा .....अरे इसमें कौन सी बड़ी बात है...ऐसी गाड़ियां तो दिल्ली में लाखों मिलेंगी, इससे भी खूबसूरत मकान हमारे हिन्दुस्तान में है...ये तो कुछ भी नहीं ...हमारे वहाँ तो ये है ...हमारे वहाँ तो वो है....मतलब शुरू का सारा समय बस इसी तुलना और ख़ुद को तथा भारत को बेहतर साबित करने की जी तोड़ और नाक़ामयाब कोशिश में बीत जाता है..... नातीज़ा....इस अवसर का आनंद नहीं उठा पाते हैं....सारा समय एक खीझ , एक कुढ़न में बीत जाता है....बस एक ही धुन लगी रहती है कि कैसे भी यहाँ से चले जाएँ...और लोग चले जाते हैं....
फोटो गूगल से साभार ...
अब बताती हूँ हिन्दुस्तान में क्या होता है ...हिन्दुस्तान पहुँचने के साथ ही उस व्यक्ति पर 'Superiority Complex ' हावी हो जाता है...कोई बात हो कि न हो ..यह ज़रूर बताना है कि मैं विदेश से होकर आया हूँ....और फिर देखिये कैसे विदेश की तारीफ़ के कसीदे पढ़े जायेंगे.... हमारे अमेरिका में ये है ...हमारे कनाडा में वो है... पुरजोर कोशिश ये होती है कि बस विदेश की बात हो और हम अपनी विशेष टिप्पणी से सामने वाले को नवाजें...यहाँ तक कि अपने suitcase या पर्स से एरलाईन्स का टैग तक महीनों लगाए रखेंगे....सिर से पाँव तक वो अमेरिकामय या कनाडामय हुए पड़े होंगे ....
तो ये हैं जी हम भारतीय ...न घर के न घाट के...
हाँ नहीं तो...!
आज़कल आप कुछ ज़्यादा व्यस्त है अदा जी ..?
ReplyDeleteबहरहाल आलेख प्रभावशाली है
वाह दी क्या सच्चाई से क्या बेबाकी से कपडे उतारे हैं इस हिन्दुस्तानी सच्चाई के.
ReplyDeleteसुंदर लेख.
june 2009 main ,main bhi canada aayi thi.kuch isi tarah ki kashmakash se gujari thi .per inferiorty complex ya wapis aa kar superiorty complex mahsoos nahin hua.wahan thi to yahi sochti thi ki hamare desh aisa kyun nahin ho sakta hai?wahana ki bahut saari achchaiyon ke bawzood apne desh ki life hi jyada khoobsurat lagi aur PR visa milne ke baad bhi wapis hi aa gayi.waise aapke lekh main kaafi sachchai hai.
ReplyDeleteबेहद प्रभावशाली लेख
ReplyDeleteकाम्प्लेक्स किसी को भी किसी से भी हो सकता है ...!
ReplyDeleteबहुत अच्छी प्रस्तुति।
ReplyDeleteभाई हम भी दो बार अमेरिका जा आए लेकिन ऐसा तो कुछ नहीं हुआ। वहाँ की उन्नति देखकर भला किसी को क्यों हीन भावना होगी। ये सब उन्हीं को होती है जिनके विचार परिष्कृत नहीं होते। यहाँ वापस आने पर भी ऐसा कुछ नहीं लगता, कल ही मुझे एक मीटिंग में कई लोगों ने पूछा कि कैसा रहा अमेरिका की यात्रा। मैंने कहा कि ठीक थी, एक नार्मल बात थी। हाँ लेकिन कुछ लोग तो फोरेन रिर्टन का टेग लगाकर सालों तक घूमते हैं यह बात भी सच है। आपकी मित्र की पारिवारिक परिस्थितियों के कारण वे दुखी रहीं बाकी तो यहाँ से जो लोग जाते हैं वे तो अक्सर खुश ही रहते हैं। मुझे तो इसलिए अच्छा नहीं लगता क्योंकि मेरी वहाँ अपनी पहचान नहीं है। यहाँ तो पग पग पर सम्मान मिलता है वहाँ बस कुछ नहीं, लेकिन इस बार तो आप सभी से बाते करके और ब्लागिंग के कारण मन भी लग ही गया था। चलो इस बार आपकी मित्र की उनके बेटे से शायद अनबन समाप्त हो गयी होगी, यह अच्छा है।
ReplyDeleteबड़ा ही सटीक विवरण दिया है मानसिकता का।
ReplyDeleteचंगा किता जी दस दिता जी कि फोटो गूगल बाबे दी वे, नहीं ते मैं ते सची कन्फ्युजिया गया सी...
ReplyDeleteहां नहीं ते...
जय हिंद...
मिले न फूल तो कांटों से दोस्ती कर ली,
ReplyDeleteइसी तरह से बसर, इसी तरह से बसर,
हमने ज़िंदगी कर ली,
मिले न फूल तो...
अब आगे जो भी हो देखा जाएगा,
खुदा तराश लिया, खुदा तराश लिया,
और बंदगी कर ली...
मिले न फूल तो...
जय हिंद...
kaduva .. lekin sach to aakhir sach hai.
ReplyDeleteएक बेहद उम्दा पोस्ट के लिए बहुत बहुत बधाइयाँ और शुभकामनाएं !
ReplyDeleteआपकी चर्चा ब्लाग4वार्ता पर है यहां भी आएं!