अपना एक शेर जो पहले भी कमेन्ट में लिखा था ,लिख देती हूँ फिर से ...
" मेरे खवाबों का महल शीशे का ...वो पत्थर उठाये हाथों में ,एक वार हमने बचाया तो बुरा मान गए " ... इस पर तो पूरी ग़ज़ल बनती है ...कोशिश करती हूँ लिखने की ...हा हा हा हा
शुक्र है...मेरे घर की दीवारें विश्वास के फौलाद से बनीं हैं, वर्ना ये कल के बच्चे बतकही के पत्थर फेंकने से बाज़ नहीं आते कितने मासूम हैं ये...इतना भी नहीं समझते ! मेरा घर शीशे का नहीं है...जो टूट जाएगा....
सच ही कहा है अदा साहिबा... जहां विश्वास की इतनी मज़बूत दीवारें होती हैं.... वहां आवाज़ के पत्थर हार जाते हैं.
एक संवेदनशील हृदय और मजबूत इरादे, आपकी रचनाओं के हिसाब से आपका व्यक्तित्व ऐसा ही होना चाहिये। प्रेरक। अमरेन्द्र जी के कमेंट का उत्तरार्ध अक्षरश: अपने लिये भी सत्य है, सुना और चाहा बहुत है ये गाना, देखा नहीं था पहले। आभार स्वीकार करें।
कविता संवाद / उत्तर की प्रक्रिया में है ! सपाटबयानी प्रभावी है !
ReplyDeleteये मेरा पसंदीदा गाना है , पर पहली बार विजुअल देख रहा हूँ ! आभार !
इन बतकही के पत्थर फेंकने वालों से कहिएगा...
ReplyDeleteचिनाय सेठ, जिनके घर खुद शीशे के बने हों, वो दूसरों पर पत्थर नहीं उछाला करते...
जय हिंद...
कविता में बहुत उम्दा बात कही!!
ReplyDeleteमेरे घर की दीवारें
ReplyDeleteविश्वास के फौलाद से बनीं हैं,
सारगर्भित रचना बधाई
'ये कल के बच्चे'
ReplyDelete'बतकही के पत्थर'
हम्म !
मुआमला सीरियस तो नहीं?
क्या भाव प्रस्तुत किया है आपने!
ReplyDeleteविश्वास हृदय की वह कलम है जो स्वर्गीय वस्तुओं को चित्रित करती है।
आपका काव्य चित्र यही कहता प्रतीत हो रहा है।
बहुत सुन्दर प्रस्तुति!
ReplyDeleteबहुत ही सुन्दर विश्वासवर्धक प्रस्तुती ,शानदार व विचारणीय ...
ReplyDeleteआपके विश्वास में आपका सत्य है, इन बतकहियों में समाज का असत्य है। परेशान कर सकता है पर तोड़ नहीं सकता है।
ReplyDeleteबहुत ही सुन्दर प्रस्तुती
ReplyDeleteनई पीढ़ी में हमारे विश्वासों पर अंधी चोट करने की जो परंपरा सी चल पड़ी है,उसे आपने इस रचना में बखूबी बता दिया है...दो पीढ़ियों का सीधा अंतर ।
ReplyDeleteलाजवाब प्रस्तुति ....
ReplyDeletekyaa huaa adaa ji...?
ReplyDelete:):)
ReplyDeleteकल के बच्चे ...कहाँ है ..??
अपना एक शेर जो पहले भी कमेन्ट में लिखा था ,लिख देती हूँ फिर से ...
" मेरे खवाबों का महल शीशे का ...वो पत्थर उठाये हाथों में ,एक वार हमने बचाया तो बुरा मान गए " ...
इस पर तो पूरी ग़ज़ल बनती है ...कोशिश करती हूँ लिखने की ...हा हा हा हा
शुक्र है...मेरे घर की दीवारें
ReplyDeleteविश्वास के फौलाद से बनीं हैं,
वर्ना ये कल के बच्चे
बतकही के पत्थर फेंकने से बाज़ नहीं आते
कितने मासूम हैं ये...इतना भी नहीं समझते !
मेरा घर शीशे का नहीं है...जो टूट जाएगा....
सच ही कहा है अदा साहिबा...
जहां विश्वास की इतनी मज़बूत दीवारें होती हैं....
वहां आवाज़ के पत्थर हार जाते हैं.
sundar prastuti......:)
ReplyDeleteकितने मासूम हैं ये !
इतना भी नहीं समझते !
मेरा घर शीशे का नहीं है
जो टूट जाएगा....!!
aapne bataya nahi hoga unhe!!
unn masumo ko bulaiye, aur pyar se ek chapat laga kar samjha dijiye...:D
good.
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ReplyDeleteइस गीत की जितनी तारीफ की जाए कम है।
…………..
प्रेतों के बीच घिरी अकेली लड़की।
साइंस ब्लॉगिंग पर 5 दिवसीय कार्यशाला।
एक बढिया संदेश देती रचना है। बधाई।
ReplyDeleteएक संवेदनशील हृदय और मजबूत इरादे, आपकी रचनाओं के हिसाब से आपका व्यक्तित्व ऐसा ही होना चाहिये। प्रेरक।
ReplyDeleteअमरेन्द्र जी के कमेंट का उत्तरार्ध अक्षरश: अपने लिये भी सत्य है, सुना और चाहा बहुत है ये गाना, देखा नहीं था पहले।
आभार स्वीकार करें।
क्या बात है। सच में हमारे घर शीशे के नहीं...
ReplyDeletetarif ke liye shabda nahi hai.......shandar
ReplyDelete@गिरिजेश जी,
ReplyDeleteमुआमला तो है मगर सिरियस नहीं...
धन्यवाद...आपने पूछा...
@ मनु जी,
ReplyDeleteबात तो है..लेकिन जिक्र करने लायक नहीं...
मन पसंद गाना.
ReplyDeleteधन्यवाद.
यह गाना ... इसे गा गा कर कई बार रैगिंग से बचा हूँ,,
ReplyDeleteअत्यंत सहज ,लेकिन प्रभावी !!
ReplyDeleteसमय हो तो पढ़ें
मीडिया में मुस्लिम औरत http://hamzabaan.blogspot.com/2010/07/blog-post_938.html
बहुत अच्छी प्रस्तुति।
ReplyDeletebahot sundar.
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