उसने फिर
अपने वजूद को
झाडा, पोंछा,
उठाया
दीवार पर टंगे
टुकडों में बंटें
आईने में
खुद को
कई टुकडों में पाया
अपने उधनाये हुए
बालों पर कंघी चलायी
तो ज़मीन कुछ
उबड़-खाबड़ लगी
जिसपर उसने एक
लम्बी सी माँग खींच दी
जो आनंत तक जा
पहुंची
जहाँ घुप्प अँधेरा था
और
शून्य खडा था
उसने
लाल डिबिया को देखा
तो अँधेरे, चन्दनिया गए
होठ मुस्का गए
उँगलियों ने शरारत की
लाली की दरदरी रेत
माँग में भर गयी
आँखों ने शिकायत
का काज़ल
झट से छुपा लिया
होठों ने रात का कोलाहल
दबा दिया
अंजुरी भर आस पीकर
निकल आई वो घर से
अब शाम तक
पीठ पर दफ्तर की
फाइल होगी
या
सर पर आठ-दस ईटें
या कोई भी बोझा
ड्योढी के बाहर
आते ही
मन उड़ गया
पर मन
उड़ पायेगा ?
शाम तक तो उडेगा
फिर सहम जाएगा
जुट जाएगा
इंतजार में
एक और
कोलाहल के
जो आएगा
उसी अनंत
अँधेरे से...
एक और
ReplyDeleteकोलाहल के
जो आएगा
उसी अनंत
अँधेरे से...
Very true.
इंतजार में
ReplyDeleteएक और
कोलाहल के
जो आएगा
उसी अनंत
अँधेरे से...
--बहुत जबरदस्त!!
"अंजुरी भर आस पीकर" - वाह क्या सुन्दर प्रयोग है बहन मंजूषा।
ReplyDeleteलेकिन भारत आने के लिए अभी उड़ान सम्भव है या नहीं?
कोलाहल में दबा एक और इन्तजार..बहुत बढ़िया..!!
ReplyDeleteवाह !
ReplyDeleteबहुत ख़ूब !
एक और इंतजार... बहुत सुंदर कविता है. इसे कई कई बार पढ़ने को जी चाह रहा है.
ReplyDeleteबहुत ही जबरदस्त !
ReplyDeleteरामराम.
कौन ना निहाल होगा ....इस उडान पर......
ReplyDeleteआज मुझे आप का ब्लॉग देखने का सुअवसर मिला।
ReplyDeleteसचमुच में बहुत ही प्रभावशाली लेखन है... वाह…!!! वाकई आपने बहुत अच्छा लिखा है। बहुत सुन्दरता पूर्ण ढंग से भावनाओं का सजीव चित्रण... आशा है आपकी कलम इसी तरह चलती रहेगी और हमें अच्छी -अच्छी रचनाएं पढ़ने को मिलेंगे, बधाई स्वीकारें।
आप के द्वारा दी गई प्रतिक्रियाएं मेरा मार्गदर्शन एवं प्रोत्साहन करती हैं। आप मेरे ब्लॉग पर आये और एक उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया दिया…. शुक्रिया.
आशा है आप इसी तरह सदैव स्नेह बनाएं रखेगें….
उसने फिर
ReplyDeleteअपने वजूद को
झाडा, पोंछा,
उठाया
दीवार पर टंगे
टुकडों में बंटें
आईने में
खुद को
कई टुकडों में पाया
सुंदर अभिव्यक्ति....
aap ki rachna ka ek ek shawad kamal kar raha hai
ReplyDeletegazab ka likhti hai aap
kavita ke bhaav behtarin hain...
ReplyDelete....दीवार पर टंगे
टुकडों में बंटें
आईने में
खुद को
कई टुकडों में पाया
अपने उधनाये हुए
बालों पर कंघी चलायी
तो ज़मीन कुछ
उबड़-खाबड़ लगी
जिसपर उसने एक
लम्बी सी माँग खींच दी
जो आनंत तक जा
पहुंची
जहाँ घुप्प अँधेरा था
और .....
aur
...अंजुरी भर आस पीकर
निकल आई वो घर से...
aur
....कोलाहल के
जो आएगा
उसी अनंत
अँधेरे से...
khaas taur par acche lage.
Di kabhi apne ek chote sukho ke 'Darpan' ke samantar rakhna....
...anant pratibimb banange.
kabhi vigyan ki pustak main padha tha maine !!
शाम तक तो उडेगा
ReplyDeleteफिर सहम जाएगा
जुट जाएगा
इंतजार में
एक और
कोलाहल के
जो आएगा
उसी अनंत
अँधेरे से...
...जो अनंत तक जा
पहुँची
जहां घुप्प अंधेरा था
और
शून्य खड़ा था
मन की उड़ान
घुप्प अंधेरे की ओर
ही क्यों
खुले आकाश और
अनंत आनंद की ओर
क्यों नहीं
शायद वहां खुद को
खो देने का भय
और मन के विलीन हो
जाने का खतरा है या
फिर वह
अल्प विराम में है
जहां से आगे
एक ओर जहां हैं
`अदा' के लिए ।
http://www.tutorvista.com/content/physics/physics-ii/light-reflection/plane-mirror.php
ReplyDeleteआपकी रचना ने दिल छू लिया
ReplyDelete---
'चर्चा' पर पढ़िए: पाणिनि – व्याकरण के सर्वश्रेष्ठ रचनाकार
एक और
ReplyDeleteकोलाहल के
जो आएगा
उसी अनंत
अँधेरे से.............
उम्दा रचना।
उसने फिर
ReplyDeleteअपने वजूद को
झाडा, पोंछा,
उठाया
दीवार पर टंगे
टुकडों में बंटें
आईने में
खुद को
कई टुकडों में पाया
अति सुन्दर भाव किय बेहतरीन रचना
चांद का मुंह टेढ़ा है, याद आई
ReplyDelete'अदा' की ये एक और अदा है ..मै स्तब्ध हो जाती हूँ ..
ReplyDeletebahut hi umda rachna ada ji.
ReplyDeletebadhai..
आँखों ने शिकायत
ReplyDeleteका काज़ल
झट से छुपा लिया
होठों ने रात का कोलाहल
दबा दिया
अंजुरी भर आस पीकर
निकल आई वो घर से
bahut hi khoobsurat panktiyan hain ye.
aapki ye ada bhi jhakjhor gayi mujh ko.
mujhe der ho gayi , lekin der se hi sahi janmdin mubarak.
meri bhi umar lag jaaye aapko.
gazab ka likhti hai aap ada ji
ReplyDeletekamal karti hain aap
एक और
ReplyDeleteकोलाहल के
जो आएगा
उसी अनंत
अँधेरे से...
achchi lagi rachna