Wednesday, March 23, 2011

पहचान जायेंगे लोग, इक शक्ल इख्तियार है .....


बोल मेरी ज़िन्दगी, क्यूँ इतनी तू बेज़ार है 
चल रही साँस पर, लग रही तलवार है

बिक रहे हैं लोग यहाँ, सुबहो-शाम हर तरफ
ये जन्नते-आदम नहीं, बस चोर-बाज़ार है 

है खड़ा हुआ कोई, बुलंदियों की शाख़ पर
और कोई पड़ा हुआ, ज्यूँ गिरी हुई दीवार है 
 
मुनादी हो गयी यहाँ, मेरी नीलामी की सुनो
कोई उसे खबर करो, वो मेरा ख़रीददार है 

ख़याल सँवरने लगे, अब रूह की ज़मीन पर 
पहचान जायेंगे लोग, इक शक्ल इख्तियार है



11 comments:

  1. अच्छा है

    अब आपकी आवाज सुनने की आदत सी हो गयी है, आपकी आवाज सुनने को नहीं मिली तो थोड़ी निराशा हुई|

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  2. है खड़ा हुआ कोई, बुलंदियों की शाख़ पर
    और कोई पड़ा हुआ, ज्यूँ गिरी हुई दीवार है
    बहुत सुन्दर गज़ल

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  3. मेरा कहने का ये है मन, अदा जी.
    बिना गाने के सूनापन , अदा जी.
    लगा दें आप अपना एक गाना .
    तो आये झूम के सावन, अदा जी.

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  4. मेरा कहने का ये है मन, अदा जी.
    बिना गाने के सूनापन , अदा जी.
    लगा दें आप अपना एक गाना .
    तो आये झूम के सावन, अदा जी.
    bahut sundar .

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  5. शानदार गजल।

    सादर।

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  6. ‘ये जन्नते-आदम नहीं, बस चोर-बाज़ार है’

    यह तो हम रोज़ टीवी पर देख ही रहे हैं :)

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  7. खरीदारी की उम्मीद भी किससे :)

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  8. बहुत अच्छा लगा आपके ब्लॉग पे आने से बहुत रोचक है आपका ब्लॉग बस इसी तह लिखते रहिये येही दुआ है मेरी इश्वर से
    आपके पास तो साया की बहुत कमी होगी पर मैं आप से गुजारिश करता हु की आप मेरे ब्लॉग पे भी पधारे
    http://kuchtumkahokuchmekahu.blogspot.com/

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  9. एक नैतिक कथा थी जिसमें सबसे सुखी आदमी का पहना हुआ कुर्ता\कमीज मंगवाया था किसी महात्मा ने। सबसे सुखी जो आदमी मिला, उसके बदन पर कमीज\कुर्ता ही नहीं था।


    ऐसी नीलामी में बोली लगाने योग्य कौन है?

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