कहते हैं....
कमान से निकला हुआ तीर और जुबां से निकली हुई बात कभी वापिस नहीं लौटती ....
बोल कर, हम अपनी बात दूसरों तक पहुंचाते हैं, यह अभिव्यक्ति का सबसे पहला और सबसे सशक्त माध्यम है... भाषा कोई भी हो, और कहीं भी बोली जाती हो, वो हमें एक दूसरे से जोड़ती है, एक दूसरे के विचार जानकर, एक दूसरे के प्रति प्रेम और आत्मीयता बढ़ती है, बोलचाल को कभी भी लापरवाही या हल्केपन से नहीं लेना चाहिए, हमेशा सोच समझ कर ही बातचीत करनी चाहिए...
कभी-कभार हलके-फुल्के वातावरण में कुछ गंभीर बातें की जा सकती हैं, लेकिन ऐसे अवसरों पर कोई ऐसी बात न की जाए, कि अच्छा-ख़ासा वातावरण विषाक्त हो जाए...
भाषा अमृत भी है और विष भी, अब ये आप पर निर्भर है, कि आप इसे किस तरीके से उपयोग में लाना चाहते हैं..रहीम कवि ने बहुत ही अच्छी बात कही है :
रहिमन जिह्वा बावरी, कहिगै सरग पाताल.
आपु तो कही भीतर रही जूती सहत कपाल.
यही जिह्वा हमें प्रतिष्ठा भी दिलवाती और जूते भी खिलवाती है....बहुत ज्यादा बोलना भी जोख़िम से भरा होता है..क्योंकि बोलने वाला व्यक्ति अपनी बातों पर नियंत्रण नहीं रख पाता..लाख नहीं चाहते हुए भी, कभी न कभी कोई ऐसी बात, निकल ही जाती है जो उसके अपयश का कारण बन सकती है...
मीठा बोलना अच्छी बात है, लेकिन बहुत ज्यादा मीठा बोलना भी अच्छा नहीं माना जाता है...अर्थात बहुत ज्यादा मीठा भी विष का काम कर जाता है...
दरअसल, हमें बोल चाल में सौहार्द, प्रेम और मैत्री जैसे भाव प्रकट करने चाहिए...न कि जलन, ईर्ष्या, द्वेष, शत्रुता के भाव...
बोल-चाल में नम्रता और शालीनता की बहुत आवश्यकता होती है , वर्ना आपके मुंह से उच्चारित अच्छे शब्द भी सामने वाले को अच्छे नहीं लगेंगे...
ऊंची आवाज़ में बोलना, तेज़ बोलना या बात-बात में क्रोधित होना, कोई अच्छी बात नहीं है..इससे अपनी ही शक्ति का अपव्यय होता है साथ ही आपके स्वास्थ्य पर भी इसका विपरीत असर पड़ता है...
क्रोध हर व्यक्ति को आता है, परन्तु इसका इस्तेमाल यदा-कदा, ज़रुरत पड़ने पर ही करना चाहिए..उपयुक्त अवसर पर इसका उपयोग कारगर होता है...परन्तु क्रोध के समय, बोलने में संयम अवश्य बरतना चाहिए...यह बहुत ही ज़रूरी बात है.. सच पूछिए तो किसी भी व्यक्ति के लिए, यह अवसर परीक्षा की घड़ी होती है...ऊंची आवाज़ को रोक पाना तो क्रोध के समय संभव नहीं होता, लेकिन शब्दों और भाषा पर नियंत्रण रखना बहुत हद तक संभव होता है....कुछ लोगों को जब क्रोध आता है, तो वो बौखला जाते हैं और अपशब्द बोलने लगते हैं..परन्तु कुछ ऐसे भी हैं जो लाख क्रोधित होने बावज़ूद भी, मुंह से गलत शब्द का उच्चारण नहीं करते...जहाँ तक हो सके, जब क्रोध आये तो कम से कम बोलना चाहिए...और जो भी बोला जाए वो नपे तुले शब्दों में हो ...
हम जो भी बोलते हैं, तब हमारी भाषा के जो शब्द मुंह से निकलते हैं उनका बड़ा प्रभाव होता है...उन शब्दों में बहुत शक्ति होती है....यह शक्ति बिगड़ी बात बना सकती है या फिर वो विस्फोट कर सकती है....कई बार हमने देखा है..बिना बात के बतंगड़ होते हुए..और छोटी सी बात को विकराल रूप धरते हुए...और तब बात इतनी बढ़ जाती है कि फिर सम्हल ही नहीं पाती...
विवेकी मनुष्य हमेशा सोच-समझ कर बात करता है..वो हर बात तौल कर कहता है...
जब भी आप बात करें समय और परिस्थिति का भी अवश्य ध्यान रखें ..अगर इन बातों का ध्यान हम नहीं रखते तो...किसी का मन विदीर्ण हो सकता है, किसी के मन में में कडुआहट भी आ सकती है....आप परिहास के पात्र बन सकते हैं या फिर लोग आपको मूर्ख समझ सकते हैं...
आनंद या उल्लास के माहौल में जली-भुनी बातें करना या फिर शोक के समय हंसी-ठठा करना...सभा या गोष्ठियों में सम्बंधित विषय पर बात नहीं करना..व्यक्ति विशेष को अल्पज्ञ या मूर्ख दर्शाता है...
कुछ लोग इतना बोलते हैं, कि बोलने वाला बोलता चला जाता है और सुननेवाले के सर में दर्द हो जाता है.. साथ ही जीवन की शान्ति भंग होती नज़र आती है....ऐसे लोगों को यह अवश्य बता देना चाहिए कि उनका अनर्गल प्रलाप व्यर्थ में प्रदूषण फैला रहा है...ऐसे लोगों को बोलने की तहज़ीब सिखानी चाहिए...ताकि आपके साथ-साथ उनकी भी प्रतिष्ठा बची रहे...
याद रखिये...
ऐसी बानी बोलिए मन का आपा खोय
औरन को शीतल करे आपहूँ शीतल होय