तेरे बग़ैर, सुरूर-ओ-लुत्फ़-ओ-फ़न कहाँ
ज़िक्र न हो तेरा, फिर वो सुख़न कहाँ
मिलते हैं सफ़र में, हमसफ़र, रहबर कई
वीरान से रस्तें हैं, पर वो राहजन कहाँ
हैरत में पड़ गई हैं, ख़ामोशियाँ हमारी
मैं झूलती क़वा में, मुझमें जीवन कहाँ
तेरे हुज़ूर में ही, अब मेरा ये दम निकले
क्या जाने मार डाले, ये दीवानापन कहाँ
बस इंतज़ार में ही, आँखें बिछी हुईं हैं
सब पूछते हैं मुझसे, कि तेरा मन कहाँ
बसंत का असर है शायद उस पर
ReplyDeleteहम पूछते हैं आपका गाना कहाँ?
ReplyDeleteअदा जी मेरे ख़्याल से पहले शे’र की पहली लाइन यूं होनी चाहिए थी-
ReplyDelete"तेरे बग़ैर सुरूर-ओ-लुत्फ़-ओ-फ़न कहाँ"
जहाँ तक मैं जानता हूँ उर्दु में कोमा नहीं लगाया जाता है इसलिए सुरुर और लुत्फ़ को ओ से जोड़ना जरूरी है। बहरहाल मैं गलत भी हो सकता हूँ।
पहले शे’र और बाकी अशआर के बहर में भी अंतर है। पर इसे स्वीकार किया जा सकता है क्योंकि आजकल बहुत से लोग ग़ज़ल में मीटर फ़ालो नहीं करते।
गीत की कमी खल रही है इस बार।
ek shabd...."shandaar"
ReplyDeleteबसंत पंचमी के अवसर में मेरी शुभकामना है की आपकी कलम में माँ शारदे ऐसे ही ताकत दे...:)
khubsurat..
ReplyDeleteबहुत खूब ......... लग्ता हे कि आप ने उर्दू अदब का अच्छा मुतालेआ (पड़ाई) कर रखा हे ........
ReplyDeleteअप के अशआर (पंखीयोँ) मेँ बहुत रवानी हे....
ख़ुदा क्रे ज़ोरे क़लम हो और भी ज़ियादा .....
तेरे हुज़ूर में ही, अब मेरा ये दम निकले
ReplyDelete>
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कुछ दम ठहर जा ऐ दम, हमदम आ जाएं तो दम निकले :)
बहुत ही उम्दा .
ReplyDeleteतेरे हुज़ूर में ही, अब मेरा ये दम निकले
क्या जाने मार डाले, ये दीवानापन कहाँ
सलाम.
इतना कुछ तो बता दिया आपने, फ़िर भी सब पूछते हैं। देख लीजिये, कैसे कैसे लोग हैं:))
ReplyDeleteफ़ोटो आते बसंत की झलक दे रहा है, बसंत पंचमी की शुभकामनायें।
आज तो गाना जरूर होना चाहिये था।
वल्लाह...राहजन का भी ख्याल है ! ऐसे 'जी' के लिए बस दुआयें और दुआयें ही निकलती हैं दिल से !
ReplyDeleteखूबसूरत लिखा आपने !
very nice
ReplyDeletebahot khub...kya baat hai...
ReplyDeletebahut hi achchi laine hain ...
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