तेरा जमाल मुझे क्यूँ हर सू नज़र आए
इन बंद आँखों में भी बस तू नज़र आए
सजदा करूँ मैं तेरी कलम को बार-बार
हर हर्फ़ से लिपटी मेरी आरज़ू नज़र आए
गुज़र रही हूँ देखो इक ऐसी कैफ़ियत से
ख़ामोशियों का मौसम, गुफ़्तगू नज़र आए
फासलों में क़ैद हो गए ये दो बदन हमारे
उफ़क से ये ज़मीन क्यूँ रूबरू नज़र आए
उफ़क= क्षितिज
जमाल=खूबसूरती
कैफ़ियत= मानसिक दशा
गुफ़्तगू=बातचीत
रूबरू=आमने-सामने
जमाल=खूबसूरती
कैफ़ियत= मानसिक दशा
गुफ़्तगू=बातचीत
रूबरू=आमने-सामने
गुज़र रही हूँ देखो इक ऐसी कैफ़ियत से
ReplyDeleteख़ामोशियों का मौसम, गुफ़्तगू नज़र आए
वाह .. बहुत सुन्दर
चलिए आपने टिप्पणी बॉक्स खोल कर बहुत अच्छा किया.. एक खूबसूरत रचना की दिल खोल कर तारीफ तो कर सकते हैं.. :)
ReplyDeleteएक बारगी तो लगा कि कहीं ये फ़ारसी का तो कुछ नहीं. वाह बहुत सुंदर. :)
ReplyDeleteआप यूं फासलों से गुज़रते रहे,
ReplyDeleteदिल के कदमों की आहट आती रही...
जय हिंद...
आज की ग़ज़ल तो बहुत ही बढ़िया रही!
ReplyDeleteखूबसूरत रचना!
ReplyDeleteपहली नज़र में दोनों रचनाये साधारण लगीं...एक दफा और तवज्जो दी कविता पर..
ReplyDeleteऔर तस्वीर को क्लिक करके बड़ा किया..
तो दिल दोनों में डूब गया...
समझ नहीं आया क्या कोमल है। आपके भाव या आपकी रचना।
ReplyDeletebahut khubsurat rachna..charon sher
ReplyDeleteसजदा करूँ मैं तेरी कलम को बार-बार हर हर्फ़ से लिपटी मेरी आरज़ू नज़र आए
ReplyDeleteaur kya kahen ?
http://www.fnur.bu.edu.eg/
Deletehttp://www.fnur.bu.edu.eg/fnur/index.php/main-news/item/422-2013-12-10-10-18-01
http://www.fnur.bu.edu.eg/fnur/index.php/main-news/item/421-2013-12-10-09-48-39
http://www.fnur.bu.edu.eg/fnur/index.php/main-news/item/419-2013-12-09-07-21-12
http://www.fnur.bu.edu.eg/fnur/index.php/main-news/item/420-2013-12-10-09-48-38
http://www.fnur.bu.edu.eg/fnur/index.php/main-news/item/417-2013
http://www.fnur.bu.edu.eg/fnur/index.php/main-news/item/418-2013-12-09-07-17-28
http://www.fnur.bu.edu.eg/fnur/index.php/main-news/item/415-2013-12-03-08-09-23
http://www.fnur.bu.edu.eg/fnur/index.php/main-news/item/416-2013-12-03-08-25-21
http://www.fnur.bu.edu.eg/fnur/index.php/main-news/item/413-2013-11-21-07-50-21
http://www.fnur.bu.edu.eg/fnur/index.php/main-news/item/414-2013-11-25-09-38-30
http://www.fnur.bu.edu.eg/fnur/index.php/main-news/item/411-2013-11-20-08-11-53
http://www.fnur.bu.edu.eg/fnur/index.php/main-news/item/412-2014
http://www.fnur.bu.edu.eg/fnur/index.php/main-news/item/409-2013-2014
http://www.fnur.bu.edu.eg/fnur/index.php/main-news/item/410-2013-11-13-17-25-28
http://www.fnur.bu.edu.eg/fnur/index.php/main-news/item/407-2013-11-09-08-51-15
http://www.fnur.bu.edu.eg/fnur/index.php/main-news/item/408-2013-11-13-11-55-53
http://www.fnur.bu.edu.eg/fnur/index.php/main-news/item/405-2013-11-09-08-42-05
http://www.fnur.bu.edu.eg/fnur/index.php/main-news/item/406-2013-11-09-08-46-10
http://www.fnur.bu.edu.eg/fnur/index.php/main-news/item/403-2013-11-09-08-25-45
http://www.fnur.bu.edu.eg/fnur/index.php/main-news/item/404-2013-11-09-08-28-15
http://www.fnur.bu.edu.eg/fnur/index.php/main-news/item/400-2013-11-09-07-50-13
http://www.fnur.bu.edu.eg/fnur/index.php/main-news/item/401-2013-11-09-08-03-31
http://www.fnur.bu.edu.eg/fnur/index.php/main-news/item/398-2013-11-09-07-29-40
www.fnur.bu.edu.eg/fnur/index.php/main-news/item/399-2013-11-09-07-43-49
http://www.fnur.bu.edu.eg/fnur/index.php/main-news/item/397-eugen-ionesco
http://www.fnur.bu.edu.eg/fnur/index.php/main-news/item/402-2014-2013
http://www.fnur.bu.edu.eg/fnur/index.php/main-news/item/395-2013-11-02-09-07-04
सजदा करूँ मैं तेरी कलम को बार-बार हर हर्फ़ से लिपटी मेरी आरज़ू नज़र आए ...
ReplyDeleteआप तो ऐसी ना थी ...!
गुज़र रही हूँ देखो इक ऐसी कैफ़ियत से ख़ामोशियों का मौसम, गुफ़्तगू नज़र आए...
क्या बात है ...मुखर मौन इसी को कहते होंगे शायद ...
तेरा जमाल मुझे क्यूँ हर सू नज़र आएइन बंद आँखों में भी बस तू नज़र आए
ReplyDeleteसजदा करूँ मैं तेरी कलम को बार-बार हर हर्फ़ से लिपटी मेरी आरज़ू नज़र आए
जिधर देखूं फिजां में रंग मुझको दिखता तेरा है
अंधेरी रात में किस चांदनी ने मुझको घेरा है।
खूबसूरत ग़ज़ल...एक शेर और होता ..ग़ज़ल मुक्कम्मल होती
ReplyDeleteएक सवाल पूछना है, "कैसे सोच, लिख लेती हैं आप इतना कुछ और वो भी इतनी खूबसूरती से?"
ReplyDeleteकविता या गज़ल जो भी है, बहुत सुन्दर लगी और तस्वीर भी।
आभार।
मो सम कौन जी,
ReplyDeleteअच्छा हुआ आपने ये सवाल पूछ लिया ...
मेरी तमाम कवितायें...आभासी दुनिया के आभास से ही बुनी गयीं हैं....
लोग अपनी-अपनी अक्ल लगाते होंगे ..लेकिन सही मायने में मेरी रचनाएँ ज्यादातर कल्पना से ही प्रेरित होती हैं...
या कभी किसी से कोई बात हो रही हो या टेलीविजन पर कुछ देखते हुए एक पंक्ति ज़हन में बैठ गयी .... फिर उसके इर्द-गिर्द जो भी बन पाता है ..लिख देती हूँ..
लोग अक्सर आपकी रचना को आपके व्यक्तित्व से जोड़ देते हैं...लेकिन सच पूछा जाए तो हर रचना आपके अपने बारे में नहीं होती...उसका उद्गम कुछ भी हो सकता है....कुछ भी का अर्थ कुछ भी....
परन्तु लोगों उसे हमेशा आपसे ही जोड़ देते हैं...इसमें उनका दोष भी नहीं है....
हाँ हाँ ...जानती हूँ ...आपने बात की ईर घाट की और हम पहुँच गए पीर घाट....
ये तो आपका बड़प्पन है कि आप पसंद करते हैं मेरी रचनाएँ....
अब सही जवाब..:
युंकी...यूँहीं.....लिख जाता है...
हाँ नहीं तो...!!
गुज़र रही हूँ देखो इक ऐसी कैफ़ियत से
ReplyDeleteख़ामोशियों का मौसम, गुफ़्तगू नज़र आए
ग़ज़ल तो सुन्दर है ही । कई सुन्दर लफ्ज़ भी सीखने को मिले । आभार इस बढ़िया रचना के लिए ।
अदा जी
ReplyDeleteयह रचना तो बेहतरीन और विमर्श योग्य थी ही.....पुरानी पोस्ट भी पढ़ी जिसमे ग़ज़ल लिखी गयी थी....
तेरा जमाल मुझे क्यूँ हर सू नज़र आए
इन बंद आँखों में भी बस तू नज़र आए
वाह....वाह.
सजदा करूँ मैं तेरी कलम को बार-बार
हर हर्फ़ से लिपटी मेरी आरज़ू नज़र आए
हर्फ़ और आरजू का यह संगम बहुत ही प्यारा बन पड़ा है.....
फासलों में क़ैद हो गए ये दो बदन हमारे
उफ़क से ये ज़मीन क्यूँ रूबरू नज़र आए
जिंदाबाद.....!
ग़ज़ल तो बहुत ही बढ़िया रही!
ReplyDeleteमंगलवार 27 जुलाई को आपकी रचना ... चर्चा मंच के साप्ताहिक काव्य मंच पर ली गयी है .कृपया वहाँ आ कर अपने सुझावों से अवगत कराएँ .... आभार
ReplyDeletehttp://charchamanch.blogspot.com/
फासलों में क़ैद हो गए ये दो बदन हमारे
ReplyDeleteउफ़क से ये ज़मीन क्यूँ रूबरू नज़र आए
ग़ज़ब का शेर है .. आपने तो कमाल ही कर दिया ... लाजवाब ग़ज़ल है ...